सवाल तो बहोत किये थे मैंने दुनिया से।
मगर मुनासीब जबाब नहीं मिला।
हर सवाल पर लोगों का रवैया कुछ बेपरवाह जैसा मिला।
मैं ही खामखा बोझ उठाये चला ।
दुसरों का जनाजा अपने खंदे पे उठाके चला।
चव्वनी की मेहरबानी और बंदे रुपये का नखरा।
समझ न पाया दुनिया में कौन झुठा , कौन खरा।
अपने हिसाब से चलने में ही समझदारी है।
बतावो,
किसको उलझने की तैय्यारी है।