माँ ...
ये शब्द ना जाने कबसे ,
केवल शब्द होने का किरदार भूल चुका है ।
ये ममता है ,यही ब्राम्हण है
रोते बिलखते दिल का सुकून हो चुका है ।
एक दिन में नही समा सकती
शुक्रगुजारी किसी भी माँ की ,
ये दिन तो यूँही एक
बहाना हो चुका है ।
ख़ुदा तो खुद भी कम था
अपने बच्चों की हिफाज़त के लिए,
ओहदा माँ का उससे ऊँचा हो चुका है ।
ख़ुशबू सा बसता है आशीर्वाद मेरे सर पे
माँ की दुआ ऐसा इत्र हो चुका है ।
ये शब्द ना जाने कबसे
सिर्फ शब्द होने का किरदार भूल चुका है ।
-Khushboo