Hindi Quote in Poem by Pranjal Saxena

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#KAVYOTSAV -2

गिरे जो विशाल वट वृक्ष



गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

दो दिन संक्षिप्त रुदालियाँ,
फिर विस्तृत खुशहालियाँ।

पहले दिन टूटें चूड़ियाँ,
तेरहवें दिन बनें पूड़ियाँ।

मृत्यु पर सजे बँटवारा मंच,
रचित हों नित नवीन प्रपंच।

रिश्तों के दरकें विश्वास,
चारों ओर धन की आस।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

नौकरी, मकान और व्यापार,
होएं कई-कई हिस्सेदार।

दिखें दुनिया के अजीब रंग,
जर - जमीन को होए जंग।

भूला प्रेम भाव को चित्त,
चर्चा में है केवल वित्त।

सभ्यता प्रदर्शन में थे मगन,
हुआ उनका चरित्र नग्न।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

भूले वृक्ष की निर्मल छाया,
चर्चा केंद्र में धन की माया।

जड़ों में जिसने दिया न जल,
तोड़ना चाहें अमूल्य फल।

लालच बनाए व्यवहार वक्र,
रचे मनुष्य अनेक कुचक्र।

 कर रहे वो गणनाएँ सरल,
किसको कितना मिले तरल।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

उसने बसाई एक नन्हीं सृष्टि,
हो रही जिसमें अलगाव वृष्टि।

एक परिवार और एक रक्त,
हुआ खण्ड - खण्ड विभक्त।

ओढ़ लालच, भावनाएँ सुप्त,
योजनाएँ गुप्त, प्रेम विलुप्त।


इसके तर्क, उसके कुतर्क,
घर बना, अब एक नर्क।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

मृतक की वस्तुएँ फैलाएँ दोष,
इसके दान का करो उद्घोष।

पुरानी खटिया, पुराने कपड़े,
इनके लिए, कौन झगड़े।

पुरानी चद्दर का भी किया दान,
रह गए जमीन और मकान।

पुरानी वस्तुएँ बड़ी दोष युक्त,
आभूषण, संपत्ति दोष मुक्त।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

बँटवारे में हो, ये भी चर्चा,
किसने कितना किया खर्चा।

न एक तिहाई न आधा-आधा,
मैं बड़ा, मेरा हिस्सा ज्यादा।

तुम लड़की और तुम दामाद,
तुम क्यों कर रहे विवाद।

ब्याह हुआ अब हुईं पराई,
क्यों संपत्ति को नजर उठाई।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

मुझको चाहिए मेरा अधिकार,
तू परदेसी तुझ पे धिक्कार।

मुझे मिले सब कारोबार,
मैं था एकलौता सेवादार।

मैंने ही उसका बुढ़ापा ढोया,
मैं ही सबसे ज्यादा रोया।

अब न प्रेम, न है संयम,
न तू प्रथम, न मैं दोयम।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

अनेक-अनेक हैं कामनाएँ,
ताक पर रखी भावनाएँ।

अनेक-अनेक निकले तंज,
रिश्तों में अब केवल रंज।

अनेक-अनेक हैं दावेदार,
जिव्हा देखो बड़ी धारदार।

अनेक-अनेक जागीं दुष्टताएँ,
रसातल में पहुँची शिष्टताएँ।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

वट वृक्ष जब हो जाए पस्त,
बँटवारा बनाए सबको व्यस्त।

वट वृक्ष का भूल जाएँ किस्सा,
मिल जाए जब अपना हिस्सा।

न कोई दवा न कोई मरहम,
बस सम्पत्ति ही भुलवाए गम।

ऐ सम्पत्ति शत् - शत् नमन,
तेरा प्रवेश तो दुःख गमन।

गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।


गिरे जो विशाल वट वृक्ष,
होएं अनेक वीभत्स दृश्य।

प्रांजल सक्सेना

Hindi Poem by Pranjal Saxena : 111161236
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