अरी ओ क्रूर सत्ता !
ये क्या किया?
बिखेर दी स्याही
कलम के पर नौंच डाले
अपंग कर दिया शब्द
मांग उजाड़ दी रचना की !
वो जाती थी जंगल में
सुबह सुबह लकड़ियां बीनने
उसकी कमर की लोच से
उठती थी कविता
छलकते थे छंद !
वो आती थी पनघट पर
लेने दो बूंद पानी
मिलती थी नैनों को
उसी से रवानी
उसकी गगरी से चटकते थे मुक्तक
चुनरी से लहराती थी ग़ज़ल
ओ निष्ठुरा
पहुंचा दिया पानी उसकी देहरी पर
धर दी उसकी रसोई में गैस?
इतिहास तुझे कभी माफ़ नहीं करेगा!
ओ शब्द शिल्पियों की दुश्मन
ओ चैन हरिणी कलमकारों की
ओ हमारे समय की बेशर्म हंता !!!