कविता
अभिसार
अर्पण कुमार
हे मेरी रात की रानी!
अपने दो गुलाबों के बीच
आज मुझे सजा लो
क्या जाने
सदियों से उचटी हुई
मेरी नींद को
इस सुगन्धित घाटी में
कुछ सुकून मिल जाए
आज अभिसार की रात है
आओ
तुम्हारे रोमरहित
चरण-युग्म के टखनों पर
मौलसिरी के पुष्पों की
पायल बाँध दूँ
तुम्हारी कटि के
चारों ओर बंधे
हल्के, इकहरे धागे से
आज जी भर खेलूँ
जिसे तुमने किसी
मेखला की जगह
बाँध रखा है
तुम्हारी तिरछी,
रसभरी आँखों ने
एक निगाह उसकी ओर की
और मैंने समझ लिया
तुम्हारा इशारा
मैं धागे की
हल्की लगी गाँठ खोल देता हूँ
एक अनजाने नशे में
तुम्हारी आँखें बंद हो जाती हैं
और तुम्हारे होठों का पट
हल्का खुल जाता है
तुम स्वर्ग से उतरी
किसी नदी के तट पर पड़ी
कोई सुनहरी मछली सरीखी
जान पड़ती हो
मैं अपनी उँगलियों के स्पर्श से
काँपती तुम्हारी नाभि को
चूमता हूँ
जो इस वक्त एक
कँपायमान झील बनी हुई है
एक ऐसी झील
जो मेरे स्पर्श और
तुम्हारी कमनीयता से बनी है
जिसमें आज की रात
हम दोनों साथ डूबेंगे
कई कई बार
और जब एक दूसरे को
तृप्त कर श्लथ बाहर निकलेंगे
यह झील हम दोनों की सुगंध से
महक उठेगी
झील के ऊपर का आकाश
मधुपटल बन जाएगा।
आज अभिसार की रात है
लेटे रहेंगे हम देर तक
एक दूसरे के पार्श्व में
एक दूसरे की आँखों में पढ़ेंगे
मचलते अरमानों को फिर-फिर
आज की रात
अँधेरे में गूँथे जाएँगे
दो शरीर
धरती की परात में
जहाँ कुम्हार ही माटी है
और माटी ही कुम्हार
जिसमें प्रेम की तरलता से
पानी का काम लिया जाएगा
इससे निर्मित होगी
एक नई दुनिया
जहाँ नफ़रत और हिंसा की
कोई जगह नहीं होगी
जहाँ किसी मधूक से
कोई प्रेमी युगल
लटकाया नहीं जाएगा
जहाँ कोयल की कूक पर
नहीं होगा
कोई प्रतिबंध
और जब पृथ्वी
सचमुच मधुजा कहलाएगी
हे मेरी माधवी!
अपनी मरमरी बाँहों में
समेट लो मुझे
और अपने लावण्य से
भर दो मिठास
मेरे अस्तित्व में।
.......
#KAVYOTSAV -2