English Quote in Blog by Manu Vashistha

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✍️वो साप्ताहिक हाट__
गर्मी की छुट्टियों में नानी के यहां जब भी जाती, तो वो साप्ताहिक हाट, जिसे पैठ भी कहते थे, बहुत अच्छी लगती थी। अब भी लगती होगी शायद वह हाट, जिसका नजारा किसी मेले से कम नहीं हुआ करता था। बचपन में बहुत इंतजार रहता था, घर के सामने से रंग बिरंगे कपड़ों में, सज धज कर निकलती हुई औरतें, अपने बच्चों का हाथ थामे हुए, शायद यह उनके जरूरतों के सामान के साथ मनोरंजन का भी साधन हुआ करता था। हाट का इंतजार पूरे सप्ताह रहता था। जब भी मां के साथ जाते तो निगाहें बस किसी चाट पकौड़े वाले या गुब्बारे वाले का ही पीछा कर रही होती। वहां हाट बाजार में, पूरे हफ्ते की जरूरत की सारी चीजें साग सब्जी, (फल, मिठाई जोकि बाहर से आती थी) दाल, मसाले, साबुन, कपड़े या नई ब्याहताओं के लिए, कान के बुंदे हों, गले का मोतिया हार, रंग बिरंगी चूड़ियां, सब कुछ मिलता था। खिलौने वाला, चाबी से चलने वाले डुग डुग करते, ऊपर नीचे घूमते बंदर वाला खिलौना, तो सभी को बहुत ही पसंद था। छोटे- बड़े बर्तन, खुरपी, दरांती, मटके, दूध दही की बिलौनी सब कुछ। आइसक्रीम, बुढ़िया के बाल वाला और हाट में कई बार तो वजन तोलने की मशीन वाला भी खड़ा रहता था। लौटते हुए रंगीन आइसक्रीम, चुस्की लेना नहीं भूलते थे। जिससे फिर एक दूसरे के होंठ और जीभ देखते थे किसका ज्यादा रंगीन हुआ है। घर आकर अपने छोटे-छोटे सिक्कों को देखते कितने खर्च हुए कितने बच गए। अगले दिन भर दोपहरी में सीढ़ियों की मोड़ वाली चौकोर सीढ़ी पर आधिपत्य जमा, घर घर खेलना, चारपाई लगाकर मां की धोती (साड़ी नहीं) से घर बनाना अभी भी याद है। कई तरह के बड़े बड़े शॉपिंग मॉल खुल जाने के बावजूद हाट बाजार का महत्व कम नहीं हुआ है, आज भी गांवों में ग्रामीण अपनी जरूरत की चीजें हाट से ही खरीदते हैं। जो आनन्द गांव की गलियों में है, वो अनुभूति शायद मॉल से सामान खरीदने में नहीं होती है।
चित्र स्त्रोत_ गूगल

English Blog by Manu Vashistha : 111112116
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