टीपू सुल्तान की जय (लघुकथा)
वो एक छोटा सा क्लब था।
क्लब ने गांधी जयंती मनाने के लिए शाम को एक छोटे कमरे में बच्चों को इकठ्ठा कर दिया।
बच्चों से कहा गया कि वे दिए हुए समय में कुछ भी करें।
अब बच्चे इतने तो समझदार थे ही कि वे गांधी जयंती मनाने के लिए दिए गए समय में क्रिकेट न खेलें।
बच्चे कुछ भी करने की इस छूट से खुश हो गए। यहां वे गा सकते थे, रंगों से ख़ूबसूरत चित्र बना सकते थे, गीतों की अंत्याक्षरी खेल सकते थे या फ़िर कोई कविता या लेख लिख सकते थे।
एक बच्चे ने अपने साथियों को बताया कि उसने दलाई लामा का चित्र बनाया है।
दूसरे बच्चे ने कहा कि उसने निदा फ़ाज़ली पर लेख लिखा है।
एक बच्चा बोला कि उसने नीरज के एक गीत की दो पंक्तियां याद की हैं।
टीचर ने तभी आकर घोषणा की, कि अब समय समाप्त होता है।
बच्चे चहकते हुए चले गए।
जाते हुए बच्चों की भीड़ के बीच टीचर ने एक आवाज़ सुनी- टीपू सुल्तान की जय!
टीचर का माथा ठनका, ये गांधी जयंती पर बच्चे टीपू सुल्तान की जय क्यों बोल रहे हैं?
टीचर की समझ में कुछ न आया।
कमरे का दरवाज़ा बंद करने से पहले जब टीचर ने कमरे की लाइट बुझानी चाही, तभी जैसे एकाएक टीचर के दिमाग़ की बत्ती जली।
उन्हें कमरे के फर्श पर एक पुराना अख़बार पड़ा दिखाई दिया। उन्होंने उसे उठाकर सरसरी तौर पर उलट पलट कर देखा।
उन्हें अख़बार में दलाई लामा का फोटो दिखाई दिया।पास ही में नीरज का एक गीत भी था। और नीचे निदा फ़ाज़ली का एक साक्षात्कार छपा था।
टीचर महोदय अब इतने भी नासमझ तो नहीं थे कि जाते हुए बच्चों के टीपू सुल्तान की जय बोलने का तात्पर्य न समझें। आख़िर वे भी क्रिएटिविटी की क्लास चलाते थे।