शिक्षा (लघुकथा)
एक बूढ़े किसान के पास पुराना पुश्तैनी खेत था।कितनी भी मुसीबतें आएं,वह बाप - दादा के उस खेत को छोड़ता न था।
वह खेत था भी जादुई चिराग। बूढ़ा उसमें हल चलाता, बीज रोपता, खाद पानी देता और खेत लहलहाने लगता। घर भर की रोटी भी निकलती और चार पैसे भी बचते।
पैसा बचा बचा कर बूढ़े ने अपने बेटे को पढ़ा दिया। उसे काबिल बना दिया।
बेटा अब रोज़ उठते समय सोचता- आज मेरे पास पचास हज़ार की ज़मीन है,अगले साल एक लाख की हो जाएगी,पांच साल बाद दस लाख की... यह सब सोचता हुआ पैसा उधार लेकर घर का सब सामान लाता रहता और लंबी तान कर सोता।
पिता हैरानी से देखता।उसे कुछ समझ में नहीं आता।वह सोचता,इसे आराम से सोते सोते पैसे कमाने का गुर शिक्षा से आया या मेरी वर्षों की मेहनत से !
उसने सोचा, ऐसे पड़े पड़े तो ये बीमार हो जाएगा। फ़िर रोज़ बढ़ती इस महंगाई में इतना उधार कैसे चुकाएगा?
किसान चिंतित होते हुए एक साधु के पास गया और उसे अपनी व्यथा बताई।
सब सुन कर साधु बोला - चिंता मत करो, बैठे बैठे जब पैसे खत्म हो जाएंगे,खेत बंजर हो जाएगा,तो ये चोरी कर लेगा,डाका डाल लेगा, लोगों की जेब काटने लगेगा।
किसान घबरा कर बोला - तब तो इसे जेल हो जाएगी।
साधु ने कहा,ऐसा कुछ नहीं होगा।तब तक राजा,मंत्री,चोर,सिपाही सब बराबर होंगे।कोई किसी का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।
किसान ने सोचा- काश, मैं अपने खेत को साथ में लेकर ही आत्महत्या कर पाता, इसे स्वर्ग - नर्क जहां भी जाऊं, साथ रख पाता।