इक्कीस से सत्ताईस—तारीख़ नहीं, तपस्या का काल,
जब भारत की आत्मा ने ओढ़ा था बलिदान का जाल।
आनंदपुर से निकले गुरु, आँधी में अडिग मशाल,
धर्म नहीं, मनुष्यता बचाने को दिया हर प्रतिकाल।। 1
चमकौर की गढ़ी में गूँजा, इतिहास का सिंहनाद,
अजीत सत्रह का, जुझार चौदह का—अदम्य स्वाभिमान।
थोड़े थे, पर सत्य के संग—वह युद्ध नहीं था हार,
वह था यह घोषणा-पत्र कि भय से बड़ा है विचार।। 2
उधर ठंडी बुर्ज में बैठी, हिम-सी शांति की छाया,
माता गुजरी की आँखों में ईश्वर स्वयं समाया।
कँपकँपाती देह ने बच्चों को यह मंत्र सिखाया—
“धर्म अगर छूट जाए, तो जीवन अर्थ खो जाता है साया।।” 3
जोरावर आठ का, फतेह छह का—कद भले ही छोटे थे,
पर निर्णय उनके पर्वत थे, संकल्प अडिग, अटल थे।
दरबार ने लालच, भय दिखाए, ताज और आराम,
पर बच्चों ने चुन ली ईंटें—सच के लिए बलिदान।। 4
दीवारों में चिन दिए गए, पर विचार नहीं मरे,
सरहिंद की मिट्टी ने देखे, इतिहास के सूरज उगे।
उनकी चीख़ नहीं, मौन बोला—सदियों तक, काल-काल,
कि धर्म बचाने को बालक भी बन सकता है ढाल।। 5
जब यह समाचार पहुँचा, माँ ने मौन वरण किया,
चार दीप जलाकर आँचल ने स्वयं को अर्पण किया।
माता गुजरी का जाना—वियोग नहीं, संकल्प था,
एक माँ नहीं, भारत की चेतना ने देह त्यागा था।। 6
चार साहिबज़ादे, गुरु गोविंद—यह कथा किसी पंथ की नहीं,
यह भारत की आत्मकथा है, जो झुकना जानती नहीं।
शहीदी सप्ताह पूछता है—याद रखोगे या भूल जाओगे?
इतिहास कहता है स्पष्ट—पहचान उसी से पाओगे।। 7
— जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)