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बातें किताबों से पहले पैदा हुईं। शायद हमारे आस-पास बातों से पुराना कुछ भी नहीं। जब किसी ने पहली बार बातों को सहेज के रखा होगा, तब कहीं जाकर पहला पन्ना बना होगा — और उन पन्नों से किताबें। इसीलिए ज़िंदगी को समझने के लिए किताबें ही नहीं, बातें भी पढ़नी पड़ती हैं — वो बातें जो कही गईं और वो भी जो बग़ैर कहे, चुप्पी में बयान हो गईं।
कभी-कभी लोग छूने से नहीं, बल्कि बातों से ज़्यादा करीब आ जाते हैं — इतनी करीब जहाँ छूकर पहुँचना भी मुमकिन नहीं। किसी बातचीत की शुरुआत कहाँ जाएगी, ये किसी को नहीं मालूम होता। एक बात से दूसरी बात निकलती है — कभी बहुत दूर जाती है, कभी रास्ते में ही रुक जाती है।
बातें वैसी ही ज़रूरत हैं जैसे सांस या धड़कन |
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