चोटियाँ छोड़ी, टोपी छोड़ी, पगड़ी भी भूल गए।
तिलक चंदन मिटा के, अब नकाब चेहरे पे धूल गए।।
कुर्ता छोड़ा, धोती छोड़ी, यज्ञोपवीत भी छूट गया।
संध्या-वंदन, राम नाम से, जैसे सबका मन रूठ गया।।
गीता-पाठ, रामायण कथा, अब घरों में कहाँ रहे?
लोरी, श्लोक, संस्कृत की ध्वनि, किताबों में सिमट कर रह गई।
नारी ने रूप बदला, साड़ी-चूड़ी सब छोड़ दिया।
दुपट्टा, चुनरी, मांग-बिंदी—पश्चिमी रंग ओढ़ लिया।।
बच्चे अब आई की गोद में पलते, माँ का समय कहाँ?
संस्कारों का दीपक बुझा, घर में अब वो दम कहाँ?
सुबह-शाम की राम-राम, पांव छूना भी भूल गए।
संयुक्त परिवार का मंदिर, अब छोटे कमरे में सिमट गए।।
पूछो खुद से—कौन हो तुम?
भारतीय, सनातनी या बस नाम मात्र रह गए तुम?
गुरुकुल की शिक्षा खो गई, यज्ञ-शास्त्र कहाँ गए?
मंदिर की घंटियाँ सुनकर भी, मन क्यों अब मौन रहे?
बौद्ध ने सिर मुंडाया, सिक्ख ने पगड़ी रखी सदा।
मुसलमान नमाज़ न छोड़े, ईसाई चर्च जाता ज्यों ज्यों बढ़ा।।
पर हम?—हमने खुद ही छोड़ी, अपनी पहचान पुरातन।
संस्कार, वेद, परंपरा सब, भूले आधुनिक जीवन।।
अब भी वक़्त है, जागो फिर से।
अपना धर्म, अपना गौरव थामो फिर से।।
ज्योति जलाओ, दीप बनो।
“जयति सनातन” गूंज उठे हर मन में फिर से।।
जयतु भारतं, जय श्रीराम,
फिर गूंजे घर-घर नाम।
— ©️ जतिन त्यागी