सपना
क्या देखा है, कभी सपनों को,
गुलाबी से लाल, लाल से कत्थई,
और फिर कत्थई से काला होते हुए?
क्या देखा है कभी, सपनो को सपनों के अंदर,
टूटते हुए, और उन टुकड़ों को, किसी और को,
खुली आंखों के सामने, चुरा के ले जाते हुए?
क्या देखा है, सपनों में तैरना जानने के बाद भी,
खुद को डूबते हुए?
क्या देखा है बिन बंधन के, खुद को बांधे हुए,
और भागना चाहो तो, हाथ-पैर जकड़े हुए?
क्या देखा है सपनो में खुद को इमारत से गिरते हुए?
क्या कभी चिल्लाया है सपनों में, और
लाख कोशिश के बावजूद, आवाज़ निकली ही नही?
क्या है सपना, क्यों है सपना,
सपनो के दुनिया में इन दिनों मैं,
सपनों की हक़ीक़त ढूँढती रहती हूँ।
मधु शलिनी वर्मा