"सड़क"
सो जाओ,
सो जाओ सड़क !
तुम्हारे कंधों से उतर गए हैं
दिन के थके हुए कदम,
सायरनों की चिल्लाहट,
हॉर्नों की झुँझलाहट,
रेशम की तरह खिंचती कारें
और धूल में लिपटे झगड़े
बाजार के ठेले
फुटपाथ के मेले
अब सब घर पहुँच चुके हैं।
तुम रह गई हो,
स्ट्रीट लाइट में
बिना आवाज़ की सतह
तुम्हारे किनारों पर
अब कोई नहीं पूछता रास्ता
कोई भी नहीं देखता
लाल, पीली, हरी बत्तियों की तरफ।
खम्भे से लटके लाइट में
केवल कीडों की
भनभनाहट है
नींद उतर रही है धीरे-धीरे
पटरियों पर,
जैसे कोई बूढ़ी माँ
सिर सहला रही हो
रह गई हो तुम अब
केवल एक लंबा निश्वास,
एक शेष पंक्ति,
अद्रिश्य शरीर की अपूर्ण
इच्छा का घर
अन्जाना डर
सो जाओ सड़क,
कल फिर कोई दौड़ेगा तुम पर
किसी "जरूरी" मंज़िल की तलाश में
फिर थकेगा कोई
धूप में जलेगा कोई
समस्या में उलझेगा कोई
समाधान की आश में
.............................
सो जाओ
सो जाओ सड़क !
सुबह फिर जगना है ।
-पवन कुमार शुक्ल