सस्नेहाभिवादन मित्रों
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बेहतर है
संशोधन करें
अपने भीतर
माना ,है कीचड़
लगता है भय
फँसने का
केवल उसमें फेंकने से
पत्थर
क्या बचा सकेंगे
स्वयं को?
लहुलुहान होते
मन में
पहुँचेगा काला रक्त
जो जमेगा जाकर
मस्तिष्क की
नसों में
धड़कनों का
बना चूरा,बिखेर
उस कीचड़ में
न कर सकेंगे
खेती, स्नेह की
जिसके बिना
वैसे ही कंगाल हो
रहीं दिशाएँ....
स्वीकार करते हुए
हर क्षण
गांधारी की खोलना पट्टी
बहुत सही है
किंतु, सही नहीं केवल
घूरते रहना ग्लास के
ख़ाली हिस्से को
आधा भरा भी तो है
बुझाएँ प्यास
और निकल पड़ें
एक नई यात्रा पर
उस ख़ाली ग्लास को
भरने शुद्ध जल से
अपनी भावी
संतति हेतु !!
डॉ प्रणव भारती