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ज़रूरी था... पिछले हफ़्ते मैं और मेरे माता-पिता कोरोना पॉजिटिव हो गए। इस समय मैं अपने पैतृक घर पर उनके साथ हूँ। मेरी पत्नी और पुत्र दूसरे घर में सुरक्षित हैं। 19 अप्रैल को हमारी शादी की तीसरी सालगिरह थी, लेकिन इस स्थिति में उनसे मिलना संभव नहीं था। इस आपदा की घड़ी में, लोगों के इतने बड़े दुखों के बीच यह बात बांटना भी छोटा लग रहा है। बस यह ठीक है कि मेरा बाकी परिवार सुरक्षित है और मैं इस समय माता-पिता के साथ हूँ। मेघा को दिए कुछ उपहारों में हमारे फ़ोटो पर कलाकार Ajay Thapa की बनाई यह पेंटिंग सबसे ख़ास है... =========== आगे कभी...पीछे मुड़कर इस साल को देखेंगे, तुम इससे पूछ लेना..."क्या यह साल ज़रूरी था?" मैं भी डांट दूंगा..."क्या यह हाल ज़रूरी था?" ज़िन्दगी के किसी शांत दौर में...फिर इस साल से बात करेंगे। तब जब तुम मुस्कुरा रही होगी, बैंक में पड़ी मोटी बचत का हिसाब लगा रही होगी, बुढ़ापे की दवाई खा रही होगी। तब जब मैं कहीं फ़ोन नंबर की जगह पिन कोड लिख रहा होऊंगा, तुम मुझे किसी महीन बात का अंतर समझा रही होगी। मैं छिप कर मीठा खा रहा होऊंगा, तुम प्रभव से मेरी शिकायत लगा रही होगी। उन बातों में कभी इस साल को भी शामिल कर लेंगे, और मुस्कुराकर इससे कहेंगे, शायद यह इम्तिहान ज़रूरी था... ======== #ज़हन Last week, tested positive for Coronavirus along with my parents. I am in home quarantine away from my wife and kid...and today is our third wedding anniversary.
पीएचडी वाले डॉक्टर (लघुकथा) वर्ष 1998 वैसे तो संदीप जी की किराना दुकान थी, पर वे दुकान के बाहर भी बड़े जुगाड़ू इंसान थे। खुद का पढ़ने में मन कभी लगा नहीं, इसलिए 10वीं के बाद दुकान पर बैठ गए, लेकिन समय के साथ पास ही हाईवे पर बने विश्वविद्यालय में उनकी अच्छी जान पहचान हो गई थी। अब दुकान के साथ-साथ उन्होंने उस विश्वविद्यालय में छात्रों के एडमिशन पर कमीशन लेने का काम शुरू किया। कुछ सालों बाद, अच्छे संपर्कों और कुछ घूस के साथ संदीप ने अपनी औसत बुद्धि धर्मपत्नी को डॉक्टरेट की उपाधि दिलवा दी। इस उपलब्धि से उत्साहित होकर उन्होंने अपनी साली, बहन, जीजा को भी पीएचडी धारक बनवा दिया। इन डॉक्टरेट डिग्री के बल पर इन "डॉ" को शिक्षा, अनुसंधान से जुड़े सरकारी विभागों में नौकरी मिल गई। इस तरह संदीप ने कई जानने वालों को फर्ज़ी सम्मान और नौकरियां दिलवाने में मदद की। वर्ष 2021 संदीप की 30 साल की बेटी, हेमा का किसी काम में मन नहीं लगता था। ऊपर से वह भी औसत बुद्धि। अब पुराना ज़माना जा चुका था। वर्तमान में, पीएचडी करने के लिए कड़े नियम लागू थे और इस डिग्री में चयन से लेकर अंतिम शोध लिखने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी कि कोई भी डॉक्टरेट की उपाधि पा ले। इतना ही नहीं, उस विश्वविद्यालय पर भी ऐसे मामलों में कुछ जांच चल रही थीं। संदीप के संपर्कों ने अब जो इक्का-दुक्का जगह उपलब्ध बिकाऊ पीएचडी का दाम बताया वो आम इंसान की पहुंच से बाहर था। फिर इतने पैसे देने के बाद भी मेहनत और समय लगना ही था...जो संदीप को सिस्टम की बेईमानी लगता था। एक दिन किसी शुभचिंतक ने संदीप की दुखती रग पर हाथ रख दिया। "आपके परिवार में इतने पीएचडी वाले डॉक्टर हैं, बिटिया को भी कहिए...कुछ देखे इसमें।" संदीप ने मन ही मन पहले हालात और फिर शुभचिंतक को गाली देकर लंबी सांस ली...और कहा - "आजकल के बच्चों में...वह पहले जैसी बात कहाँ?" समाप्त! ============ #ज़हन
जैसे वे कभी थे ही नहीं...(लघुकथा) जॉली जीत और बॉबी जीत, सफल फिल्मकार भाइयों की जोड़ी थी। दोनों कुल 57 फ़िल्में बना चुके थे। जॉली की मृत्यु हुई तो बॉबी का रचनात्मक सफर भी खत्म हो गया। अब सिर्फ़ किसी अवार्ड समारोह, टीवी शो में मेहमान के तौर पर बॉबी साल में 2-4 बार लोगों के सामने आता था। उनके पुराने नौकर ने ड्राइवर से कहा - "जॉली सर के जाने के बाद बॉबी सर के इंटरव्यू बदल गए हैं।" ड्राइवर - "मैंने इतना ध्यान नहीं दिया...शायद गम में रहते होंगे, बेचारे।" नौकर - "नहीं, जॉली सर के ज़िंदा रहते हुए, इन दोनों की फ़िल्मों पर बात करते समय बॉबी सर बारीकी से बताते थे कि जॉली सर ने किसी फ़िल्म में क्या-क्या और कितना अच्छा काम किया था। अब उनके इंटरव्यू में वह बारीकी सिर्फ़ अपने लिए रह गई है। जैसे..." ड्राइवर - "जैसे?" नौकर किसी के पास न होने पर भी दबी आवाज़ में बोला - "...जैसे जॉली सर कभी थे ही नहीं।" ======= #ज़हन Image by Daniel Frank
दिल्ली बड़ी दूर है, किसान भाई! #ज़हन वह भागने की कोशिश करे कबसे, कभी ज़माने से तो कभी खुद से... कोई उसे अकेला नहीं छोड़ता, रोज़ वह मन को गिरवी रख...अपना तन तोड़ता। उसे अपने हक़ पर बड़ा शक, जिसे कुचलने को रचते 'बड़े' लोग कई नाटक! दुनिया की धूल में उसका तन थका, वह रोना कबका भूल चुका। सीमा से बाहर वाली दुनिया से अनजान, कब पक कर तैयार होगा रे तेरा धान? उम्मीदों के सहारे सच्चाई से मत हट, देखो तो...इंसानी शरीर का रोबोट भी करने लगा खट-पट! अब तुझे भीड़ मिली या तू भीड़ को मिल गया, देख तेरा एक चेहरा कितने चेहरों पर सिल गया। यह आएगा...वह जाएगा, तेरे खून से समाज सींचा गया है...आगे क्या बदल जाएगा? तेरे ज़मीन के टुकड़े ने टेलीग्राम भेजा है, इस साल अच्छी फसल का अंदेशा है। देख जलते शहर में लगे पोस्टर कई, खुश हो जा...इनमें तेरी पहचान कहीं घुल गई। =========
2 साल पहले(19 April 2018) जीवन में एक बदलाव आया। कुछ आदतें बदली और कुछ आदतें बदलवाई। थोड़ी बातें और ढेर सारी यादें बनाई। एक रचनात्मक व्यक्ति की प्राथमिकताएं अलग होती हैं…उसे दुनिया में रहना भी है और दुनियादारी में पड़ने से भी परहेज़ है। ऐसे में डर होता है कि क्या शादी के बाद भी यह सोच बनी रहेगी या नहीं? पहले मेघा और अब प्रभव ने मिलकर मुझे जीवन के कई पाठ पढ़ाए। इन्होनें बताया कि प्राथमिकताएं कोई बाइनरी कोड नहीं जिन्हें या तो रखा जाए या छोड़ा जाए…इंसान नए नज़रिये और जीने के ढंग के साथ प्राथमिकताओं में कुछ बदलाव करके भी खुश रह सकता है। मेरे मोनोक्रोमेटिक जीवन को खूबसूरत पेंटिंग बनाने के लिए शुक्रिया मेघा और प्रभव! आप दोनों के लिए 2 रचनाएं – कुछ मैंने समझा…कुछ तुमने माना, नई राह पर दामन थामा। कुछ मैंने जोड़ा…कुछ तुमने संजोया, मिलकर हमने ‘घर’ बनाया। दोनों की जीत…दोनों की हार, थोड़ी तकरार…ढेर सा प्यार। मेरी नींद के लिए अपनी नींद बेचना, दफ्तर से घर आने की राह देखना। माथे की शिकन में दबी बातें पढ़ना, करवटों के बीच में थपथपा कर देखना। साथ में इतनी खुशियां लाई हो, एक घर छोड़ कर…मेरा घर पूरा करने आई हो। पगडंडियों से रास्ता सड़क पर मुड़ गया है… सफर में एक नन्हा मुसाफिर और जुड़ गया है। चाहो तो अब पूरी ज़िंदगी इन दो सालों की ही बातें दोहराती रहो… लगता है यह सफर चलता रहे…कभी पूरा न हो! ================ (हास्य) [ध्यान दें – ये दोनों ही मेन लीड हैं, क्योंकि मेरी प्रोफाइल है इसलिए खुद को नायक बना रहा हूँ।] मैं उपन्यास हूँ…आप दोनों मेरे प्लाट ट्विस्ट और मेन लीड, मैं छुटभैया नेता हूँ…आप दोनों मेरे जुटाए कैबिनेट मंत्री और भीड़। मैं अन्ना हजारे हूँ…आप दोनों मेरे संघर्ष और अनशन, मैं वीडियो गेम हूँ…आप दोनों मेरे प्लेयर और लास्ट स्टेज के ड्रैगन। मैं एसयूवी हूँ…आप दोनों मेरे चेसिस और इंजन, मैं सुबह की सांस हूँ…आप दोनों मेरे माउथवाश और मंजन। मैं ट्रैक्टर हूँ…आप दोनों मेरे कल्टीवेटर और डाला, मैं शक्तिमान हूँ…आप दोनों मेरे किलविश और कपाला! मैं सब्जीवाला हूँ…आप दोनों मेरा ठेला और टोकरा, मैं धूम सीरीज़ हूँ…आप दोनों मेरे अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा! मैं हलवाई हूँ…आप दोनों मेरी दिवाली और मिठाई, मैं तापसी पन्नू हूँ…आप दोनों मेरी पीआर एजेंसी और बीफिटिंग रिप्लाई! मैं अजय देवगन हूँ…आप दोनों मेरे रोहित शेट्टी और काजोल, मैं बीजेपी हूँ…आप दोनों मेरे आरएसएस और बजरंग दल। मैं इंदिरा गांधी हूँ…आप दोनों मेरे भारत रत्न और इमरजेंसी, मैं पाकिस्तान हूँ…आप दोनों मेरे टेररिज़्म और इंसरजेंसी। मैं फ़ुटबॉल हूँ…आप दोनों मेरे जूता और लात, [ओ भाई…मारो मुझे मारो] मैं हालात हूँ…आप दोनों मेरी यादें और जज़्बात। मैं बाबा रामदेव…आप दोनों मेरे योग और पतंजलि, मैं धड़कन…आप दोनों मेरे देव और अंजली। जीवन में नहीं रहा कोई अभाव, मोहित को मिल गए मेघा और प्रभव। ====== #ज़हन
तेरे प्यार के बही-खाते...(नज़्म) जुबां का वायदा किया तूने कच्चा हिसाब मान लिया मैंने, कहाँ है बातों से जादू टोना करने वाले? तेरी कमली का मज़ाक उड़ा रहे दुनियावाले... रोज़ लानत देकर जाते, तेरे प्यार के बही-खाते... तेरी राख के बदले समंदर से सीपी मोल ली, सुकून की एक नींद को अपनी 3 यादें तोल दी। इस से अच्छा तो बेवफा हो जाते, कहीं ज़िंदा होने के मिल जाते दिलासे। जाने पहचाने रस्ते पर लुक्का-छिपी खिलाते, तेरे प्यार के बही-खाते... फिर तेरे हाथ पकड़ आँगन से आसमान तक लकीरें मिला लूँ, दिल पर चेहरा लगा कर नम नज़रों से तेरा सीना सींच दूँ... पीठ पीछे हँसने वालो के मुँह पर मंगल गा लूँ, इस दफा फ़रिश्ते लेने आयें...तो पीछे से टोक लगा दूँ। काश अगले जन्म तक बढ़ पाते, तेरे प्यार के बही-खाते... #ज़हन
बहरी दुनिया शायद मेरी आह तुझे अखरने लगी ... तभी अपनी रफ़्तार का बहाना बना मुझे अनसुना कर गयी ... मेरा शौक नहीं अपनी बातें मनवाना, किन्ही और आँखों को तेरी हिकारत से है बचाना !! तुझसे अच्छी तो गली की पागल भिखारन... मुझे देख कर मेरे मन का हिसाब गढ़ लेती है .. आँखों की बोली पढ़ लेती है .... उम्मीदों से, लकीरों से ... तड़पते पाक ज़मीरों से ... इशारों से ....दिल के ढोल गँवारों से ... कभी तो भूलेगी अपनी और मेरी कमियाँ, मेरी बात सुनेंगी ....समझेगी यह बहरी दुनिया!! #ज़हन
रंग का मोल सपने दिखा कर सपनो का क़त्ल कर दिया, दुनिया का वास्ता देकर दुनिया ने ठग लिया! फिर किसी महफ़िल के शौक गिना दो, रंग का मोल लगा लो, उजली चमड़ी की बोली लगा दो, फिर कुतर-कुतर खाल के टुकड़े खा लो, बचे-खुचे शरीर पर हँसकर एक और गुड़िया का ज़मीर डिगा दो! तेरा भी कहाँ पाला पड़ गया? ...या तो इनमे शामिल हो जाना, या फिर कोई सही मुहूर्त देखकर आना... ये लोग लाश की अंगीठी पर रोटी सेंकते हैं.... और रूह की जगह रंग देखते हैं। समाप्त! #ज़हन
ख्याल...एहसास (ग़ज़ल) एक ही मेरा जिगरी यार, तेरी चाल धीमी करने वाला बाज़ार... मुखबिर एक और चोर, तेरी गली का तीखा मोड़। करवाये जो होश फ़ाख्ता, तेरे दर का हसीं रास्ता... कुचले रोज़ निगाहों के खत, बैरी तेरे घर की चौखट। दिखता नहीं जिसे मेरा प्यार, पीठ किये खड़ी तेरी दीवार... कभी दीदार कराती पर अक्सर देती झिड़की, तेरे कमरे की ख़फा सी खिड़की। शख्सियत को स्याह में समेटती हरजाई मद्धम कमज़र्फ तेरी परछाई... कुछ पल अक्स कैद कर कहता के तू जाए ना... दूर टंगा आईना। जाने किसे बचाने तुगलक बने तुर्क, तेरे मोहल्ले के बड़े-बुज़ुर्ग। ...और इन सबके धंधे में देती दख़्ल, काटे धड़कन की फसल, मेरी हीर की शक्ल... ======= #ज़हन
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