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Yogesh Kanava

Yogesh Kanava Matrubharti Verified

@yogeshkanava1243
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दिल की व्यथा को वो कह रहा है

तेरे कपोलों‌ पर जो यूं बह रहा है



एक अश्रुकण दृग से बह गया था

तेरी सम्पूर्ण व्यथा को कह गया था



खोया विश्वास है और हैं सूनी आंखें

काटे नही कटती अब ये यौवन रातें



सांवली सलोनी‌ बैठी मधुरस धार लिए

आकुलता , व्याकुलता और अश्रुधार लिए



फूल‌ खिले देह मे पर‌मन‌मयूर न‌ नाच रहा

पपीहा कूक कूक देखो प्रेम राग बांच रहा ।



- योगेश कानवा

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मेरे कपोलों‌ पे कविता कर‌ लो‌‌ तुम।















सागर पीड़ा का मुझ में उमड़ आएगा



मन की पीड़ा को आज हर लो तुम



वक्त कुछ और यूं ही गुज़र जाएगा



पास आ के बातें चार कर लो तुम



भ्रमर आँखों का कुछ बहक जाएगा



मेरे नैनों से नैना चार कर लो तुम



सुर सांसों‌ की सरगम‌ का संवर जाएगा



मेरे अधरों पे अधर धर लो तुम



रंग कलियों का कुछ और निखर जाएगा



मेरे कपोलों‌ पे कविता कर‌ लो‌‌ तुम।



-योगेश कानवा

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तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय


जाने कितनी गलियां
सड़कें चौक
छूट गए पीछे
बस
मैं घूमता रहा
एक अनजानी सी प्यास लिए
यूँ ही खानाबदोश सा
मैं
भटकता रहा
कभी इस नगर
तो कभी उस डगर
तेरी तलाश में
और जब तू मिली तो
उस मोड़ पर
जहाँ से लौट जाना मुमकिन नहीं
तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय ?
गलियों ,सड़कों और चौक को छोड़ते
एक अनजानी सी डगर।
मैं नहीं चाहता हूँ
किसी के रास्ते में
अड़ कर खड़ा हो जाऊं
कोई मेरी ठोकर खा कर गिर पड़े
मैं
यह भी नहीं चाहता कि
मैं देव प्रतिमा में ढलूँ
या
मील का पत्थर बनूँ
चाहता हूँ बस इतना ही
किसी की बुनियाद बनूँ
किसी को सहारा दे सकूँ
चाहत नहीं है मेरी
मैं सुन्दर बनूँ
मैं चाहता हूँ बस
रहना अपनी ही सादगी के साथ क्योंकि मैं
एक अनगढ पत्थर हूँ
और अनगढ़ ही रहना चाहता हूँ
अपनी सादगी के साथ
तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय ?

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जीवन अंगारों पर चलती

तुम हो अतुल बलशाली, मैं मानती हूँ,

जय पराजय से भी ऊपर मैं जानती हूँ।

हो रहा रक्त संचारित मेरा तुझ में जानते हो,

किन्तु फिर भी अबला मुझको मानते हो।

कहाँ कितना सच है आज मुझको बता दो,

तेरे सबल होने के पीछे है कौन यह बता दो।

नहीं बोल सकते तुम यह बात मैं जानती हूँ,

लाख अत्याचार करो फिर भी अपना मानती हूँ।

इसलिए कह रही हूँ तुझसे मैं यह बात,

तेरी ताकत के पीछे सदा रही मैं साथ।

किन्तु फिर भी तुम मुझको निर्बल कहते सदा,

भुज बल मद चूर, अहंकारी तुम रहते सदा।

मैं निर्बल नहीं, अबला नहीं तुम यह जान लो,

बेहतर है मेरे आत्मबल को तुम पहचान लो।

मैं हूँ अजेय किन्तु, मद से ना कभी मैं भरी हूँ,

तेरी प्रतिवादी नहीं, मैं तो बस तेरी सहचरी हूँ।

नारी को दुर्बल समझने की ना तू भूल कर,

जीवन अंगारों पर चलती, सोती ये शूल पर।

तो बस तू आज मान ले, बस यह जान ले,

कर सकती है सब कुछ, जो मन में ठान ले।

- योगेश कानवा

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आज वही यमुना वही नीर वही तीर

वहीँ बैठी थी वो लिए अपने हिये धीर !

दुग्ध धार ज्यों बह रहा था निर्मल नीर

कोमल देह सुरभित श्यामवर्ण शरीर !

फैली वन उपवन मादकता मधुमास की

सब थे मृग खग सब थे और थी वासवी !

आम्रवल्लियों से महक रहा था उपवन

इधर योजनगंधा बैठी लिए चितवन !

उफनती लहरियों का वह संगीत मधुमय

इधर उफन रहा था यौवन वासवी युववय !

यमुना लहरें भी उछाल उछाल देख रही थी

फेन अपना उसके तन पर फेंक रही थी !

भीगी पिण्डलिया भीगा वक्ष यौवन सारा

मदमस्त था वह यमुना का भी किनारा !

देख यौवन अनावृत उसका कोयल कूक रही

धधकती यौवन ज्वाला में जैसे घी फेंक रही !

देवलोक इंद्रलोक और यमलोक रहे सब देख

इधर कामदेव ने भी अपने सब शस्त्र दिए फेंक !

यक्ष गंधर्व किन्नर मानव सब बेसुध हो जाएँ

लगी होड़ सब में पलभर को रूप वो पा जाएँ !

ऊषा ज्योत्स्ना सा था कितना यौवन स्मित

भूल अपनी ही कस्तूरी गंध मृग कितना विस्मित !

कुसमित कुञ्ज में पुलकित पुष्प अलि प्रेमालिंगन

मधुकर भी मकरंद उत्सव में हुआ देखो संलग्न

मृग भी पहुँच गए गन्धाकर्षण में खिंचे हुए

मंद मुस्कान लिए अधर मधुरस सिंचे हुए !

सुरभित शीतल समीर बह रही थी मंद मंद

योजन दूर भी उपस्थिति कह रही थी वह गंध !

हाँ वही थी वह गंधवती मत्स्यगंधा गंधकाली

अधरों पर लिए बैठी थी जो मधुरस की प्याली !

चन्दन वन में जूही चमेली जैसे थी वो वसवी

किन्तु व्याकुल मन नहीं कोई तनिक पास भी !

कोमल बांहे फैला जैसे आलिंगन जादू जगाया

मन चितवन से व्याकुलता आलस को भगाया !

अब वो चंचल हिरणी सी तक रही चंहु ओर

जाग उठा था यौवन प्रलय अब घनघोर !

जो कस्तूरी गंध से महक रहा तन महका महका

निर्लज्ज हवा का झोंका भी यूँ डोले बहका बहका !

इधर योजनगंधा बैठी थी अपने ही ख्यालों में

उधर उलझ रह था मन शांतनु का सवालों में !

सारथी खींचो लगाम तुरंग की यहीं पर

उतरा नीचे , रखे पाँव उसने मही पर !

बोला कैसी विचित्र है यहाँ की यह माया

किसने कस्तूरी गंध से उपवन महकाया !

अमात्यवार ठहरो यहीं मैं अभी आता हूँ

खोजने यह गंध स्रोत , मैं अब जाता हूँ !

खिंचा चला गया बह रही नीर यमुना धार

ज्ञात न हुआ तनिक आ गया था योजन पार !

यहाँ यह अश्व कैसे हिनहिनाया है

लगता है अजनबी कोई यहाँ आया है !

मंत्रमुग्ध सा एक राजपुरुष वहाँ खड़ा था

राजसी परिधान शीश मुकुट हीरों जड़ा था !

देख अजनबी को हाथों से वक्ष छुपाया

वो मंद मुस्काया और शांतनु नाम बताया !

कौन हो देवी ? तुम किस घर जाई हो

अप्सरी कोई देवलोक छोड़ इधर आई हो !

हे राजपुरुष मैं निषाथ कन्या नौका चलाती हूँ

तनिक ठहरो मैं अपनी पतवार लिए आती हूँ

सकुचाई मृगनयनी वो चली कुलांचे भरती

देख रहा था ये गगन , देख रही थी धरती !

आई वो गजगामिनी सी लिए हाथ पतवार

बिठा राजन को , नाव ले चली मझधार !!

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