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सागर तट के लोल लहर, नही प्रभाव बहवों का, मर्मस्थल के मंजूषा में, वेदना असीम घावों का। S.D.Pandey
मुक्ति पथ अविरत चपल है कालचक्र, नित चलता रहे निशिवासर। अम्बर दिग के दृग देखे है, नही भूले वो शशि प्रभाकर। चारु चमक चंचल चितवन, कंचन भूषण सज्जित थी। अखिल श्रृंगार से शोभित, मनमोहक छवि में भारत थी। सोने की चिड़िया कहलाती, बनी भंजको की धर्मशाला। शाश्वत है साक्षात प्रमाण, सिंधु–सा गहरा है स्मृतिशाला। वसन फटे तनु पर लिपटी, अवनत अंबक आनन की। छाल छिले देह मुरझाई, उलझी बिखरी लट शेखर की। पगली बन सूली पर लटकी, बंधी हाथ पांव साँकल से। बंधक बन अधमो के दासी, वंचित हुई थी उदकल से। देख दशा लालों की अपने, गरज-गरज रुदन किया। घुट-घुट के रह जाती हिंद, मर-मर कर उसने जिया। खण्ड-खण्ड गृहीत किया, दुर्गति करते जन जीवन को। कुचल रहे पतित पांवो से, छलनी करते वक्ष स्थल को। लज्जित करते नारी को, अबला छिपती फिरती रहती। असीम वेदना को सहती, तिल-तिल नित्य जीती मरती। नवजातों को भी ना छोड़े, जयमाला रक्तो की बहती। निर्मम से नर संहार हुआ, रणक्षेत्र बना ये पावन धरती। जन में छाई आग अँधियारी, दुर्गम का गंतव्य हुआ था। मचा चहुदिशा में हाहाकार, त्राहि-त्राहि से गूंज रहा था। कहर-कहर गुहार लगाती, अमित विक्षोभ हिय में भरा। जन-जन थे दीन दशा में, शव शैय्या बना था हिंद धरा। जिस भू के वीर बालपन में, गणक किए दंत सिंहो के। नक्षत्र लोक भी दंग हुआ था, दुर्दशा देखकर हिंदो के। लहूलुहान थी भारत माता, देख दशा बने वीर रखवाला। मुक्तिपथ पर निकल पड़े, उबल रहा था भीषण ज्वाला। संघर्ष किए डट खूब लड़े, रणघोष किए आजादी का। शत्रु भी परास्त हुए, उछाह भरा शौर्य देख वीरों का। शत्रुजय कर स्वाधीन हुए, पावन तिरंगा परचम लहराया। विद्वान वीर इस धरती पर जन्मे, जगत गुरु है कहलाया। सतेश देव पाण्डेय मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
बहुत ललक था धन कमाने का! उस धन से जीवन बनाने का! ना जाने क्या–क्या देखे थे सपने! पर सपने थे, कैसे हो सकते है अपने? चलती रही सपनों में ही जिंदगी! भागते रहे भुला के आज की सादगी! दिन–माह–बरस कई गए बीत! छूटते–बिछड़ते गए जो दिल से जुड़े थे मीत! सम्पूर्ण समर्पण किया जिसको मन! करते–करते धन का अर्जन बीत गया पूरा यौवन! वंचित रहा वैभव, व्यर्थ किया धन पीछे अपना जीवन! अंतिम सांसे ले रहा था जब ये तन! किसी काम न आया वह संचय का धन! रुकी थी सांसे बंद हुई थी धड़कन! तन का शव में हुआ परिवर्तन! होने लगी थी अपनों को देख कर घुटन! कुछ पल के लिए ही होने लगा भार! क्या कहना किसी को–यही है जीवन का सार! फूंक दिया–मिट गई सारी साख! अस्थियां भी जल कर हो गई राख! (सतेश देव पांडेय)
शब्द-शब्द में सिंधु भरा, काव्य सदा उजागर है। रत्नाकर की गहराई है, रश्मि देता प्रभाकर है।
अरण्य पथ बन बटोही निकल पड़ा, कानन पथ में पर्वत पाहन था। सवार होकर चल पड़ा, द्वि-परिधि का वाहन था। कुछ दूर चल कर देखा मैने, पथ-सुधारक प्रगति पर था। धुंध हुआ था राहों में, यात्रा करने में डर था। भूरज विलय बयारों में, उस रज से मैं सना-घना था। मंद-गति से चलता मैं, उस पथ पर जो अभी बना था। पहले मैंने देखा था, हरियाली जो लहर रहा था। प्रखर प्रहार करते जड़ में, भूमंडल भी कहर रहा था। देखा मैने तोड़ते हुए, उपकरण उपल के चट्टानों को। विध्वंस करते हुए, झूमती हरीता के उद्यानों को। छाया तो अब शून्य हुआ, निष्प्राण वटवृक्ष धरासायी था। मरुधरा सा खण्ड क्षितिज का, श्वास लेने में बहुत कठिनाई था। देख दृश्य हतप्रद हृदय, क्षण दूर अवसाद मिटाने बैठा था। खग-विहंगम का झुंड निकला, कोलाहल के ध्वनि से गूंज उठा था। मानो जैसे कहती हो वह, विकट प्रलय अब निकट आया। तरसेंगे सब छाव नीर से, तुमने जो तरुवर काट गिराया। तल गगन के उड़ते पंक्षी, बाधाओं का बोध कराती। सूखे नीर निर्झर से, मकर मीन का अंत हो जाती। ऐसा होगा मानव जीवन, अल्प का होगा आयु उसका। गूढ़ व्याधि हर चेतन में, शल्य का उपचार है जिसका। तरंग जाल जो बिछी हुई है, शीघ्र संचार को देती। घातक है यह घाती, वज्र प्रहार से भी भारी होती। पकड़ो तुम इस अवसर को, लौट ना फिर वापस आएगी। सोच समझ कर कदम बढ़ाओ, घड़ी समय बताएगी। सतेश देव पाण्डेय
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