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Sheetal

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@sheetal1038
(34)

#चाँद नगर में रहने वाले

हम एक ऐसा घर बनाएंगे

कृष्ण तू अनंत है,
आज यही मंत्र है.

आज मन कृष्ण हुआ,
कृष्ण हुआ कृष्ण हुआ,
अनन्न हुआ जन्म हुआ
कृष्ण हुआ कृष्ण हुआ.

आज हर तरफ मुझे,
कृष्ण नज़र आता है,
शीतल मन कैसे यूँ,
कृष्ण देख पाता है?

बाँवरी तो न हो गी,
ये डर सताता है,
मीरा, की जैसी,
न, ज़हर पीना आता है.

एक परीक्षा तो दे दूंगी,
ये समझ आता है,
शून्यता मे, भी मुझको
कृष्ण नज़र आता है.

आज मन धन्य हुआ,
कृष्ण हुआ कृष्ण हुआ
आज जन्म कृष्ण हुआ,
कृष्ण हुआ कृष्ण हुआ

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#कृष्ण प्रेम

जिंदगी की किताब में, हम कुछ मिटा तो नहीं सकते, लेकिन आगे कुछ ऐसा ज़रूर लिख सकते हैं,
कि पढ़ने वाला, किताब बंद करते करते,
फिर रुक सा जाए, और तब जब पढ़े....
तो एक कॉफ़ी बनायें
और फिर सोफे पर लेट के पढ़ने लग जाए.

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मेरी छत से सारी चिड़िया भाग गयीं,
एक बिल्ले की वजह से,
अब उन सब को बुलाऊंगी.
मेरा मूंह महकेगा मेरे पास मत आना.
आज ख़ूब प्याज खाऊँगी.

अब कोइ बिल्ला
अगर मेरी चिड़िया को
डराएगा,
तो एक और प्याज
काट डालूंगी,
आज मैं ख़ूब प्याज खाउंगी

मेरा मूँह महकेगा
मेरे पास मत आना
नहीं तो एक और प्याज
काट डालूंगी.

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स्त्रियों की दिशा.

कुछ जोंकें ऐसी होती हैँ जो सिर्फ स्त्रियों के पेट मे पलती हैँ,  पुरुषों में नहीं पायी जातीं. हाँ हाँ जोंक जो पिले रंग की होती है मल द्वार से निकलती हैँ. हाँ जी, मैंने उन्हें देखा है.
औरतों के अंदर रह के उनका खून चुस्ती रहती हैँ, मगर ये वो जोंक नहीं है जो सतह पर एक लिब्बी की तरह घींसट-घींसट के चलती है, और पेट से बाहर आने पर इनका वज़ूद ख़त्म हो जाता है. ये वो जोंकें हैँ जो पेट से बाहर आने पर वज़ूद मे आती हैँ. और फिर एक किल्ली बन जाती हैँ उनकी चमड़ी से चिपक जाती हैँ और फिर उनका खून चूसने लगती हैँ. सब जोंकें एक सी नहीं होतीं बहुत जोंकें बहुत अच्छी भी होती हैँ, जो आगे चल कर, औरतों का हर बुरे भले वक़्त मे, उनके साथ खड़ी रहती हैँ उनको समझती हैँ उनकी भावनाओं की कदर करती हैँ, जिनकी वजह से औरतों का सहज़ मन जीवित रहता है... लेकिन ये जोंक एक किल्ली बनके स्त्रियों की चमड़ी से खून चूस के बड़ी हो के एक कुत्ते का रूप ले लेती है और उन ही पर भौंकने लगती है, उनकी दशा उनकी दिशा पर निर्देश देने लगती है उनके शोषण वोषण की बातें करने लग जाती है, एक आदमखोर कुत्ता जो कभी वफ़ादार नहीं होता. ये कुत्ते उन्हीं औरतों को जिंदगी भर नोंचते रहते हैँ उन्हें खाते रहते हैँ.
अब मैं लिखने मे सक्छम नहीं हूं इसलिए नहीं की मुझे लिखना नहीं आ रहा, बल्कि इसलिए की मेरे हाँथ काँप रहे हैँ.
उन जोंकों को स्त्रियों के शरीर मे या उससे बाहर आते ही मसल देना चाहिए जैसे मटर के दाने निकालते वक़्त उसमे लगी जोंक खुद ही हाँथ से मसल जाती है और एक घिन सी आने लगती है.

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कल सुबह एक कोइ बकवास पढ़ ली, बर्दाश्त कर गयी.
समझ नहीं पायी की वो एक जोंक की तरह मेरे दिमाग़ में घुस गयी है. पूरा दिन पूरी रात वो जोंक मेरे दिमाग़ में रेंगती रही रात भर सो नहीं पायी. ऐसी बहुत सी जोंक हमारे दिमाग़ में रेंगती रहती हैं हम कुछ नहीं करते मगर
आज जब सुबह चिड़ियों के लिए दाना डालने गयी तो एक बिल्ला पहले से ही वहां घात लगाए उनके शिकार के लिए बैठा था तब मेरी बर्दाश्त की हद टूट गयी और मैंने उस जोंक को दिमाग़ में ही सोंच के मर दिया अब कुछ आराम है.

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