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shalini singh

shalini singh

@shalinisingh2695
(17)

तुम्हे पसन्द है ना गुलमोहर का पेड़..
हरियाली और चुप रास्ते...
जहां केवल एक बोलता हुआ सा मौन हो..
सुनाई पड़े तो सिर्फ़ चिड़ियों की चहचहाहट
पानी का कलरव,पत्तियों की सरसराहट
जहां बिखरी पड़ी हों सुर्ख़ पत्तों की मानिंद कुछ ख़ूबसूरत कविताएं
तो सुनो प्रिय
ढूंढेंगे कोई ऐसा अकेला सा दिन
और चुप सा रास्ता
पर....
तुम मेरे सुर्ख़ चटक रंग पहन कर आना
और वादा कि मैं तुम्हारे हल्के रंग ओढ़ लुंगी..
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शालिनी

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निर्णय
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स्त्रियों मन भर पढ़ो
पर मत करो छँटाक भर सवाल
रख दो अपने तमाम सवाल ताक पर
खुद को समेट लो एक निश्चित परिधि तक
कि सवाल व्यवस्था पर पहुंचाते हैं चोट
और चोट करने वाली स्त्रियाँ खतरा हैं इस व्यवस्था के लिये
तुम सबके लिये सपने बुनो
पर मत बुनो खुद के लिये कोई सपना
कि तुम्हारे सपनों की गूँज से
धसक सकती है बरसो पुरानी नींव

जब याद आये कोई सपना
तो तुम गुनगुना लेना गोधूलि में पीर अपनी
भोर में तुलसी को जल देते हुए कर लेना साझा अपना मन
सबके सामने न रो पाओ
तो रसोई में प्याज की परतों के परे बहा लेना अपने सिंचित आँसू
और कोई देख ले तो कोस देना मरी प्याज को
कोस लेना खुद को कि ये पिछले जनम के बुरे कर्मों का फल है

स्त्रियों मत रहो महान बनने की असफल कोशिश में
छोड़ दो लकीरों पर चलना
बना लो ना नई लकीरें आप
जी लो ना आत्मसम्मान से

इहलोक और उहलोक की परिधि से आगे भी एक सपनीली दुनिया है
जहाँ सपने हैं
नीली झील में तैरती मछलियाँ हैं
पेडों से झरते हुए स्निग्ध फूल हैं
पश्चिम से आते हुए पंछी हैं
पूरब से झाँकता सूरज है
आसमान में टँगे चाँद तारे हैं
ये सब तुम्हारे लिये ही हैं
वापस के दो उनकी दी हुई छत
और छीन लो सारा आसमान अपने लिये
देह तुम्हारी मन तुम्हारा
तो खुद के निर्णय भी तुम्हारे
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शालिनी सिंह

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मिल्कियत
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सुदूर गाँव में बसी ब्याहताएँ
उलाहनों के बीच
थामें रहती है चुप की चादर
सहमी सी सुनती रहती है बोल कुबोल

माँ के संस्कारों को सींचने के उपक्रम में
दिन की उठापठक के बीच भी 
निकाल लेती है शाम के धुंधलके से ठीक पहले का कुछ वक्त अपने लिये

सिंगार की परत चढ़ा कर इठला लेती है मन ही मन
उनका नाम गुम हो चुका है पति के नाम की ओट में
पुकारा जाता है उन्हे फलाने की दुल्हन के नाम से
नाम जो पहचान है वो भी तो नही मिली बिरसे में इन्हें
न इन्हें ठीक ठीक याद अपने जन्म की तारीख़
कि कोई कोरी बधाई ही दे देता इन्हें

इसी दुःख की गीली ज़मीन में वो रोप लेती हैं कुछ गीत
दुख का ज्वार जब उमड़ पड़ता है मन में
तो फूटने लगते हैं बोल
खुल जाती हैं भरे मन की गाँठे
जब गाती हैं सास मोरी मारे ननद गरियावे
खाली कर लेती हैं अपना मन
जो न जाने कब से भरा हुआ है
इन गीतों के रूपक 
पीड़ा कह लेने का जरिया थे

इनके हिस्से अक्सर नही आती
प्रसव पीड़ा में पुचकारने वाली सासें
न बेटी के पैदा होने पर साथ खड़े होने वाले पति
न घर,न खेत न खलिहान
इनका कुछ नही होता

तब इनके हिस्से आते हैं वो गीत जो ये गाती हैं
यही होते हैं इनकी मिल्कियत जो ये आगे बढ़ा देती हैं

डॉ शालिनी सिंह

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