The Download Link has been successfully sent to your Mobile Number. Please Download the App.
Continue log in with
By clicking Log In, you agree to Matrubharti "Terms of Use" and "Privacy Policy"
Verification
Download App
Get a link to download app
हम, कलम के सिपाही हैं, कलम को रोक नहीं सकते। जन जन को जगाना है, कलम को तोड़ नहीं सकते । संघर्षों के डर से, कलम को छोड़ नहीं सकते। चाहे, मेरी हस्ती को मिटा दो, कलम को झूका नहीं सकते। -विवेकानंद राय
मैकाले, भाषायी विभाजन को झेलकर खड़ी हो पायी थी थोड़ा सा संभलकर दिग्भ्रमित लोग कुछ अतिवादी हो गये अंग्रेजी-मोहपाश में बंधे तभी घाव दे गए 'सेवकों की भाषा यह' शब्दों के तीर चले ओछी-राजनीती, विरोध, बैर में सब छले 'स्वहित' में चितन की परिधि ही सिमट गई भूमंडलीय-संस्कृति में अँधेरा दिया तले अस्पष्ट लक्ष्य बढ़ाता मंजिल की दूरी है राष्ट्रीय-मुख्य-धारा की कल्पना अधूरी है प्रवंचना, उपेक्षा के घाव न नासूर बने स्वीकार करें हम, आज निर्णय जरूरी है तमिल के तीर और कन्नड़ के त्रिशूल से हमले जब उठे हिंदी कराह उठी शूल से राजनीति -प्रेरित भाषायी हथियार उठे सामान्य-जन-स्तब्ध,यह क्या हुआ भूल से? शांति से बैठकर चर्चा करें, चिंतन करें संवाद से ही सुलभ , सब मिल मंथन करें शल्य-क्रिया की, आये न नौबत कभी सर्व-भाषा-प्रगति का सभी अभिनन्दन करें सर्वमान्य भाषा को राष्ट्रभाषा कर पहचाने स्वयं बहु-माध्यमों की बन गई प्रिय यह माने भूमण्डल में जिसने तृतीय स्थान बनाया है हिंदी को स्वीकारें , उसे प्रगति का मूल जाने - विवेकानंद
मै शब्दों का क्रांति ज्वार हूँ, वर्तमान को गाऊंगा। जिस दिन मेरी आग बुझेगी, उस दिन मै मर जाऊंगा।। मै धरती पर इंकलाब के स्वर की एक निशानी हूँ। लिखते- लिखते अंगारा हूँ, गाते-गाते पानी हूँ। कलम सिपाही बनकर जिंदा हूँ, किसानों के भूखे बच्चों से शर्मिंदा हूँ। उस दिन मेरी आग बुझेगी, जिस दिन कृषक न भूखें होंगे। मै शब्दों का क्रांति ज्वार हूँ, वर्तमान को गाऊंगा... - विवेकानंद राय
आज वर्तमान समय में जिस प्रकार की राजनीति, भारत मे हो रही है, वह न तो भारतीय लोकतंत्र और ना ही आमजन मानस के हित मे है। एक लोकतांत्रिक देश मे जिस प्रकार से जाति, धर्म और नफरत की राजनीति हो रही है उससे देश मे एक नई विभाजन की रेखा खींचने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है जो ठीक नहीं है।
जिनकी बदौलत ही मेरा अस्तित्व है, इस धरा पर। वह बदहवास सी है, इस धरा पर।। आज, वो न होती, तो मै न होता इस धरा पर। वह भयातुर, विकल हो भागती, लाज बचाने को इस धरा पर।।जिनकी बदौलत ही पुरुष का अस्तित्व है, इस धरा पर। मत खेल, उसके अस्तित्व से, अन्यथा तु अस्तित्वहीन हो जायेगा, इस धरा पर।।
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है इस परिंदे में जान बाक़ी है जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं अब तो बस आसमान बाक़ी है अब वो दुनिया अजीब लगती है जिस में अम्न-ओ-अमान बाक़ी है इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा इक नया इम्तिहान बाक़ी है सर क़लम होंगे कल यहाँ उन के जिन के मुँह में ज़बान बाक़ी है
Copyright © 2024, Matrubharti Technologies Pvt. Ltd. All Rights Reserved.
Please enable javascript on your browser