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दो चार शायरी क्या लिखी खुद को ग़ालिब समझ बैठा उसने किराये पर क्या रखा खुद को मालिक समझ बैठा। -रामानुज दरिया
ओ आज भी ख्याल रखती है मेरी पसंद और न पसंद का। मगर अब प्यार नहीं करती मैं मीठी और ओ हल्की मीठी चाय पीना पसंद करती है पर जब भी मिलती है चाय हल्की मीठी ही बना कर लाती है मगर अब प्यार नहीं करती चेहरे की उदासी पढ़ लेती है देखती है तो नजरें नहीं हटाती मगर अब प्यार नहीं करती। उसकी जुल्फें बहुत पसंद थी मुझे आज भी ओ बाल नहीं कटवाती मगर अब प्यार नहीं करती। -रामानुज दरिया
कुछ पाने की चाह में सब कुछ गंवा दिया जल रही थी जिंदगी हमने सिर्फ हवा दिया -रामानुज दरिया
चांदनी सिमट गयी आज चाँद की हाथों में। -रामानुज दरिया
कितनी हसरत से संभाला था अपनी तकदीर समझते थे आज उसे भी खो दिया हमने जिसे अपनी जागीर समझते थे। चौखट चौखट माँगा जिसको न मंदिर मस्जिद समझते थे आज उसे भी खो दिया हमने जिसे अपनी जागीर समझते थे। भरोसा इतना था बातो पर पत्थर की लकीर समझते थे आज उसे भी खो दिया हमने जिसे अपनी जागीर समझते थे। -रामानुज दरिया
मंजूर नहीं तुम्हें कोई और देखे बात शक की नहीं हक की है। -रामानुज दरिया
गर परिस्थितियां आपको बिवस करें तो उसी बिवसता में नयी परिस्थिति का निर्माण करें। -रामानुज दरिया
त्यौहार तो हम दोनों के ही हैं मेरे हमदम फर्क इतना तू ईद मना रही और मैं मुहर्रम।
खामोश लवों ने जब भी सवाल किये अपनों के ही सारे चेहरे बेनक़ाब किये। धड़कने बढ़ जाती है, नाम सुनकर बंद आँखों से उसने सारे जवाब दिये। -रामानुज दरिया
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