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Rajesh Kumar Srivastav

Rajesh Kumar Srivastav

@rajeshkumar
(27)

जिंदगी की रफ़्तार कभी रूकती नहीं |
मुश्किलों से डरकर कभी थमती नहीं |
आना और जाना लगा रहता सदा यहाँ |
इंतज़ार ये कभी किसी का करती नहीं |
उठती है, गिरती है, फिर सम्हलती है |
ये समंदर की लहर है कभी ठहरती नहीं

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#Gandhigiri
स्थानांतरण के बाद जब मैं अपने नए बॉस से मिला तो उनके चेम्बर की अवस्था देखकर दंग रह गया । उनके आस-पास के दीवाल गुटखा और पान के पिक से रंगीन हो गए थे । सहकर्मियों से पता चला इसके जिम्मेवार मेरे बॉस ही है । हमको बॉस के इस आदत को सुधारने की कोशिश न करने की सलाह भी दी गई क्योंकि 'बॉस इस ऑलवेज राइट' । मैंने बॉस को कुछ कहने की बजाय रोज उनके सामने ही उस गंदगी को नियमित रूप से साफ करने लगा । कुछ ही दिन में बॉस ने अपनी इस गलत आदत को छोड़ दिया ।

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#काव्योत्सव
भावनाप्रधान कविता
कुछ दिन
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कुछ दिन बुरे वक्त का ग़र साथ मिल जाता 
कौन है अपना कौन पराया पता चल जाता 
मंडराते है भौरें खिले फूल पर झुण्ड -झुण्ड 
मुरझाने पर जो आता वही हमदम बन जाता 
चन्द दिनों की तन्हाई भी जरूरत है राजेश 
अपनों की अहमियत भी तभी समझ आता 
विरह की आग में जलकर जो निकल आये 
मिलन की तपिश को वो ठंडा नहीं कर पाता 
मंजिल की तलाश में मुझे भटकने दो यारों 
यूं ही नहीं किसी को, नई राह दिख जाता 

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#काव्योत्सव -2
भावनाप्रधान कविता
ऋतुराज बसंत
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काश कोई वक्त की पहिया थमा देता 
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता 
कोकिलों की कुहुक, भ्रमरों की गुंजार 
आमों की मंजरियाँ, टेसुओं की बहार 
धरती का यौवन कभी कम ना होता 
काश कोई वक्त की पहिया थमा देता 
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता 
नव पल्ल्व, नव उमंग, नव जीवन, 
स्फूर्ति, जोश, मादकता से भरा मन
प्रीत और मनुहार कभी ख़त्म ना होता 
काश कोई वक्त की पहिया थमा देता 
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता 
कोमल कपोलें और सुगन्धित हवाएं 
ओढ़ी पिली चुनरियाँ मन को बहकायें 
फागुन का रंग कभी मद्धम ना होता 
काश कोई वक्त की पहिया थमा देता 
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता 

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#Kavyotsav
वेश्या
वो हर शाम दिख जाती /
उस खंडहर सा इमारत के नीचे /
जिसकी सफेदी,
दिवाल के पपड़ियों के साथ-
उजड़ गई थी वर्षों पहले /
लेकिन उसकी कोमल चमड़ियों को-
सभ्य समाज नोच-नीच कर भी -
नहीं उजाड़ पाया था अब तक /
टूटी खिड़किया, अधखुले दरवाजे/
दीवालों पर लटकती लताए /
शाम होते ही लगती थी टिमटिमाने-
केरोसिन की ढिबरिया /
सज जाती थी महफिले /
लेकिन उन महफिलों में,
अब नहीं सुनाई पड़ती थी-
गीत और संगीत की ध्वनियाँ /
केवल सुन पड़ती थी/
ग्राहकों को लुभाने की आवाज़ें /,
'सौदों' का मोल-भाव,
मनचलों की भद्दी फब्तियां,
बदले में गाली-गलौज /
दबंगों और पुलिस के -
छेड़छाड़ एवं वसूली के शब्द /
लेकिन कभी हार नहीं माना उसने /
चिलचिलाती धुप, मूसलाधार वर्षा,
कड़ाके की ठंढ या बसंत की शाम /
खड़ी रहती सज- धज कर /
इंतज़ार में ग्राहकों के /
जो दिन में इस और देखने से भी -
कतराते थे /
लेकिन शाम होते ही -
खीचे चले आते थे /
तृप्त करने अपने आप को /
उसके यौवन का पान कर /
गालों पर लाली, होठों पर -
सुर्ख लाल रंग /
चेहरे पर सफ़ेद पाउडर की मोटी परत /
पतले कपडे की पहनी साडी से-
झाँकता एक-एक अंग /
लगती थी साक्षात अप्सरा-
उतरी हो आकास से /
अकेली नहीं /
कई और भी है साथ में /
किसी को मजबूरी ने -
इस दलदल तक लाया /
किसी को किसी ने-
यहाँ लाकर फँसाया //
कुछ ने तो शौकिया -
इस पेशे को अपनाया /
जो भी हो वह-
पैसों के बदले -
अपना तन बेचती है /
'सभ्य समाज' का प्यास बुझाकर/
केवल अपना पेट भरती है /

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#Kavyotsav
बुरा वक्त

कुछ दिन बुरे वक्त का ग़र साथ मिल जाता /
कौन है अपना कौन पराया पता चल जाता /
मंडराते है भौरें खिले फूल पर झुण्ड -झुण्ड /
मुरझाये पर जो आता वही हमदम बन जाता /
चन्द दिनों की तन्हाई भी जरुरत है राजेश /
अपनों की अहमियत भी तभी समझ आता /
विरह की आग में जलकर जो निकल आये /
मिलन की तपिश को वो ठंढा नहीं कर पाता /
मंजिल की तलाश में मुझे भटकने दो यारों /
यूँ ही नहीं किसी को, नई राह दिख जाता /

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#Kavyotsav
ऋतुराज बसंत

राजेश कुमार श्रीवास्तव

काश कोई वक़्त का पहिया थमा देता
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता

कोकिलों की कुहुक, भ्रमरों की गुंजार
आमों की मंजरियाँ, टेसुओं की बहार
धरती का यौवन कभी कम ना होता
काश कोई वक़्त का पहिया थमा देता
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता

नव पल्ल्व, नव उमंग, नव जीवन,
स्फूर्ति, जोश, मादकता से भरा मन
प्रीत और मनुहार कभी ख़त्म ना होता
काश कोई वक़्त का पहिया थमा देता
तो ऋतुराज बसंत अलविदा ना होता

कोमल कोंपलें और सुगन्धित हवाएँ, 
ओढ़ी पिली चुनरियाँ मन को बहकायें
फागुन का रंग कभी मद्धम ना होता
काश कोई वक़्त का पहिया थमा देता

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