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बदली नहीं हूँ मैं गर मेरी बोल-चाल, मेरे पहनावे से, तुम्हें मैं कोई और लगूँ; तो कुछ देर और ठहर जाना। मेरी बातों को मेरे गाँव तक पहुँचने में, ज्यादा वक्त नहीं लगता। मेरे कपडों से आती मिट्टी-नीम की भीनी-भीनी सुगंध, ढूँढ़ लेगी तुम तक पहुँचने का पता। क्यूँकि, बदली नहीं हूँ मैं। गर मेरे आसमान छूने के सपने से, तुम्हें मैं शहरी लगने लगूँ; तो दोबारा मेरी आँखों में झांक कर देखना। अपने गाँव की गलियों में, नहर किनारे, बाड़ी के पास, बसने को तरसती निगाहें दिखेंगी। क्यूँकि, बदली नहीं हूँ मैं। - नूपुर पाठक
जज़्बाती हूँ, पर नाकारा नहीं। मुश्किल में हूँ, पर बेचारा नहीं। फिर से गिरा हूँ, पर ज़िन्दगी से हारा नहीं। - नूपुर पाठक
गाँव से निकलकर शहर तक पहुँच तो गए, साथ पहुँच न पाया तो, वो अपनापन, वो सादगी, वो भोर, वो साँझ, वो दिया-बाती का समय, वो निंबोली-शहतूत के फल, वो मटके-सुराही का पानी, वो आम का पना, वो दादी की कहानी। शहर के शोरगुल में, अब साथ मेरे सिर्फ मौन रहता है। - नूपुर पाठक
सुनो... वो कहेंगें सुधर जाओ, पर यूँहीं अजीब-से रहना तुम। वो कहेंगें कि झूठ ही बिकता है आजकल, पर यूँहीं सच कहते रहना तुम। वो कहेंगें कि अपनों से दूरी अच्छी है, पर यूँहीं रिश्ते सहेज के रखना तुम। वो कहेंगें कि चलो आसमान की सैर को, पर यूँहीं ज़मीन से जुड़े रहना तुम। वो कहेंगे कि मेरी सोहबत सही नहीं, पर यूँहीं अपने दिल की सुनते रहना तुम। - नूपुर पाठक
दो भागों में बंटी हुई, कल तक बेटी थी, अब बहु हुई! - नूपुर पाठक
एक बेटी की नहीं, संवेदना की हत्या हुई है, मानवता की चिता जली है। ओम् शांति! - नूपुर पाठक
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