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Devraj singh

Devraj singh

@devrajraj

प्यार रो नाटक, दो दिन रो संग,
फेर बदल जावे, नवा रंग।
वासना री आग में दिल जळे,
रिश्ता काँच-सा थर-थर ढळे।

अमेरिका री गलियों में आम कहानी,
क्षण भर रो संग, फेर जुदाई निशानी।
दो पल री छांव, फेर अकेलापन,
सच्चो प्रेम गयो, रह ग्यो अपनापन।

पर सोचो उन नण्हा प्राण रो हाल,
जन्म स्यूं पहले ही टूटी डोरां री माल।
कद स्यूं पावै संस्कार री छाँव,
घर ही बनग्या बदलतो ठाँव।

वहाँ तो फादर्स डे नी रोशनी है,
मदर्स डे पर ममता री झलकणी है।
पर यहाँ का हाल बिचारो ज़रा,
गर्भ री खबर स्यूं टूटे डोरां रा धरा।

वासना पूरी, प्रेम तार-तार,
कलंकित कर दीदो पवित्र व्यवहार।
संस्कार कहाँ स्यूं आवैंगे भला,
जद खुद खो दिए रिश्तां रा धागा।

मत करो ए गंदा काम,
वासना खातर मत लो प्रेम रो नाम।
अरे नालायका! पवित्र बंधन मत तोड़ो,
इच्छा पूर्ति खातर इसने मत जोड़ो।

प्रेम तो दीपक री लौ है,
तन री भूख नाय, आत्मा रो सौ है।
ए बालक ने देवे संस्कार,
बुढ़ापे में बन जावे आधार।

संस्कारां ने मत चढ़ाओ आग,
मानवता ने मत दियो दाग।
प्रेम समझ नाय आवे, तो चुप रहो,
पर इसने बदनाम कर पीढ़ीं मत खो।

सच्चो प्रेम वो है जो मर्यादा सिखावै,
आत्मा री पवित्रता, धीरज बतावै।
जां वचन निभावणो ही सबसे मोटी बात,
ते री विरासत में छावै उजाळा दिन-रात।
कविता का अर्थ (सरल व्याख्या)

1. प्रेम का नाटक और वासना की आग

कविता की शुरुआत में यह बताया गया है कि आजकल प्रेम का रूप छोटा और दिखावटी हो गया है।

लोग कुछ दिनों या महीनों का साथ निभाकर अलग हो जाते हैं।

असली प्रेम की जगह वासना (शारीरिक आकर्षण) ने ले ली है।



2. अमेरिका का उदाहरण

अमेरिका जैसे देशों में यह बहुत आम है कि रिश्ते जल्दी बनते और जल्दी टूट जाते हैं।

वहाँ प्रेम और वासना का फर्क धुंधला हो गया है।

लेकिन जब ऐसा होता है, तो बच्चे सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं।



3. बच्चों पर असर

अगर माता-पिता का रिश्ता स्थायी नहीं है, तो बच्चों को संस्कार और सुरक्षा नहीं मिल पाती।

कविता यह सवाल उठाती है कि जो बच्चा गर्भ में है या जन्म ले चुका है, उसे अच्छे संस्कार कहाँ से मिलेंगे, जब घर ही बदलता रहे।



4. अमेरिका और भारत की तुलना

अमेरिका में बच्चे को फादर्स डे या मदर्स डे जैसे विशेष अवसरों पर कुछ संस्कार या अपनापन मिल जाता है।

लेकिन भारत में अगर प्रेम वासना पर टिकेगा और गर्भ का समाचार सुनते ही रिश्ता टूट जाएगा, तो बच्चा बिल्कुल अधर में रह जाएगा।



5. कठोर संदेश

कविता में चेतावनी दी गई है कि अगर केवल वासना चाहिए, तो प्रेम जैसे पवित्र रिश्ते का नाम मत लो।

प्रेम का सहारा लेकर वासना की पूर्ति करना, प्रेम का अपमान है।

प्रेम तो आत्मा का बंधन है, यह केवल तन की भूख नहीं है।



6. संस्कार का महत्व

सच्चा प्रेम ही बच्चों को संस्कार देता है, परिवार को मजबूत बनाता है और जीवनभर साथ निभाता है।

अगर प्रेम की जगह वासना हावी हो गई, तो आने वाली पीढ़ी संस्कारविहीन हो जाएगी और समाज में अंधेरा फैल जाएगा।



7. निष्कर्ष

कविता के अंत में कहा गया है कि असली प्रेम वही है जो धैर्य, मर्यादा और पवित्रता सिखाए।

सच्चा प्रेम पीढ़ियों तक उजियारा फैलाता है, जबकि झूठा प्रेम और वासना समाज को खोखला बना देती है।

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बेमतलब होने का डर — भाग 2

कभी लगता है,
जीवन कोई अधूरा ग्रंथ है,
जिसकी हर पंक्ति मैं लिख तो देता हूँ,
पर अर्थ कभी पूरा नहीं कर पाता।

मन प्रश्न पूछता है—
क्या मैं ही अधूरा हूँ?
या फिर यह दुनिया
हम सबको अधूरा ही रखती है?

हर दिन जागता हूँ
नए संकल्प के साथ,
पर रात की खामोशी में
वही पुराने सवाल
तारों की तरह झिलमिलाने लगते हैं।

कभी सोचता हूँ—
अगर सब कुछ बेमतलब है,
तो फिर यह धड़कन क्यों जारी है?
क्यों सपनों की परछाइयाँ
अब भी मेरी पलकों पर उतर आती हैं?

शायद मतलब ढूँढ़ने से नहीं मिलता,
बल्कि जीने से बनता है।
जैसे दीपक
अंधेरे का हिसाब नहीं पूछता,
बस जलकर
अपना उत्तर दे देता है।

तो क्या मैं भी
एक दीपक की तरह
जलने के लिए ही बना हूँ?
या फिर राख में छिपी चिनगारी
कभी अग्नि बनकर
आकाश को छूने की हिम्मत करेगी?

डर अब भी है…
पर डर के पीछे
एक छोटा-सा साहस भी है।
वो कहता है—
"मतलब खोज मत,
मतलब बन जा।"

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कभी सोचता हूँ—
अगर मैं मरकर भी अमर हो गया,
तो क्या ये अमरता
मेरे शब्दों की होगी,
या मेरी अधूरी कहानियों की?

शायद लोग पढ़ेंगे मुझे
एक अनजान दर्पण की तरह,
जिसमें झाँककर वे
अपने ही चेहरे देखेंगे।
और मैं…
फिर भी अनकहा रह जाऊँगा।

जीवन ने जितने प्रश्न दिए,
वे अधूरे ही रहे।
मृत्यु शायद
उनका उत्तर न बने,
पर शायद नई पहेली बन जाए।

क्या सचमुच अमर होना
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है?
या यह भी एक और बंधन है
जिससे आत्मा मुक्त नहीं हो पाती?

मैं डरता हूँ…
कि मेरी अमरता भी
मेरे ही शब्दों की कैद न बन जाए।
कहीं ऐसा न हो कि
मैं फिर लौट-लौटकर
अपनी ही कविताओं में
भटकता रह जाऊँ।

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बेमतलब होने का डर

कभी आजीविका की भागदौड़ से
जब पल दो पल का सन्नाटा मिलता है,
तो मन अपने ही विचारों की
भट्टी में तपने लगता है।
शब्द उठते हैं,
विचारों की धारा में उलझते हैं,
और मैं…
हर बार अपने ही जाल में कैद हो जाता हूं।

निकलना चाहता हूं—
पर जाल और गहराता जाता है।
थककर बैठता हूं
तो फिर नए सिरे से उलझना शुरू कर देता हूं।
मानो समय का चक्र
मेरे साथ खेल खेल रहा हो।

कभी दूसरों की अच्छाइयों को
अपने जीवन का आदर्श मान लेता हूं,
तो कभी अपनी कमियों से
नज़रें चुरा लेता हूं।
कभी अनमोल जीवन का मोल तौलने लगता हूं,
तो कभी कल्पनाओं के अथाह समंदर में
बिना नाव, बिना किनारे
डूबता चला जाता हूं।

सोचता हूं—
संसार के गड़े हुए मुर्दों को
एक-एक कर बाहर निकाल दूं,
झूठ के नीचे दबे सत्य को
सबके सामने रख दूं।
लेकिन तभी डर लगता है,
कहीं मैं खुद उसी कब्र में
दफन न हो जाऊं।

इस मतलबी दुनिया में
कहीं गुम न हो जाऊं,
दुनिया की तरह
कहीं मैं भी मतलबी न बन जाऊं।
देखी है ये दुनिया
आधी अधूरी, अधूरी सी—
कहीं ऐसा न हो कि
इस अधूरी दुनिया में
मैं भी बेमतलब हो जाऊं।

हाँ, मृत्यु निश्चित है…
हर सांस उस ओर एक कदम है।
पर मेरे भीतर सवाल उठता है—
क्या मृत्यु सचमुच अंत है?
या फिर जीवन का दूसरा नाम ही अमरता है?

डर यही है…
कि मरने के बाद भी
यह मन, यह विचार, यह उलझन
जिंदा रह जाएँ।
और मैं…
मरकर भी
जिंदा न हो जाऊं।

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