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Avdhut Suryawanshi

Avdhut Suryawanshi

@avdhutnirvan


कृष्ण को मानना बहुत सरल है,
कृष्ण की मानना बहुत कठिन।

कृष्ण संदेश है ज्ञान का,
कृष्ण विज्ञान है साक्षी का।

कृष्ण मनुष्य की मृगतृष्णा का भेदन है,
कृष्ण उत्साह है जीवन का।

कृष्ण नृत्य है ब्रह्मांडीय, काल के परे।
कृष्ण प्रेम नहीं, प्रेम कृष्ण है।

कृष्ण मित्र है, परम मित्र।
कृष्ण जगद्गुरु है, सारा संसार उनमें है।

कृष्ण रणछोड़ दास हैं, अहंकार से शून्य।
कृष्ण शपथ तोड़ने वाले हैं, बंधनमुक्त।

कृष्ण विष्णु का आठवाँ अवतार हैं, मानवी चेतना का।
पूर्ण अवतार, परिपूर्ण मानव।

कृष्ण विष्णु का अर्थात रहस्यमयी जीवन-ऊर्जा का परिपूर्ण रूप हैं।

मत्स्य से विष्णु का जन्म हुआ।
मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण तक की यात्रा है।

कृष्ण छलांग हैं मानव के
स्वयं के साक्षात्कार के।

अब चेतना को अपने घर जाना है,
यही संदेश है।

कृष्ण का संदेश साक्षी का संदेश है।
हे पार्थ! अपनी चेतना को जानो।
ना तुम्हें कोई मार सकता है,
ना तुम मर सकते हो।

अपने असली स्वरूप को जानो, पार्थ।

पर पार्थ अभी आपको देवकीनंदन कहकर
नए प्रश्न उपस्थित करेगा।

क्योंकि अभी के पार्थ को आपका वह स्वरूप भी
ठीक से समझाया नहीं गया है।
बहुत कम लोगों ने आपकी बात प्रामाणिकता से कही।

लेकिन जिन्होंने आपको सिर्फ़ देवता और ईश्वर बना दिया,
जो आपको हर समय हर कष्ट से बचाने वाला बताया,
हमने उन्हीं को बड़ा किया,
उन्हीं को पूजा गया।

आपके बताए हुए सारा ज्ञान, विज्ञान, विधियाँ ,
हम भूल गए।

कृष्ण जैसे महागुरु को,
पूर्णावतार को भी हम समझ न पाए।

इसीलिए मैंने कहा कि,
एक है कृष्ण को मानना,
सुंदर है, रूप ही ऐसा है कि मनुष्य झूम उठे।

एक है उन्होंने जो कहा, वह जानना।

पर हे देवकीनंदन,
सभी आपकी राह देख रहे हैं कि आप आओगे
और दुष्टों का संहार करोगे।

पर शायद हमें यह नहीं बताया गया कि आप आ भी गए तो
युद्ध तो हमें ही लड़ना होगा।

और युद्ध होगा भी।

शायद आपका संदेश गलत लिया गया।
मनुष्य ने उसे भी सीमित रखा।
और हमें भी पीढ़ी दर पीढ़ी यही बताया
कि विष्णु का अवतार होगा
और वह दुष्टों का सर्वनाश करेगा।

पर यह नहीं बताया कि वहाँ एक नहीं,
बहुत सारे अर्जुन होंगे,
तो वे सवालों की लड़ी लगा देंगे।

“तुम ही ब्रह्म हो अर्जुन, तुम अजन्मा हो।”
उनका यह संदेश बताया नहीं गया।

उन्होंने यह भी कहा,
“पार्थ! मेरे भी बहुत जन्म हुए हैं।”

फर्क इतना है कि मैं अभी उन्हें देख सकता हूँ,
और तुम नहीं।

जागो पार्थ!
मैं तुम्हें यहाँ सभीका मार्ग बताने आया हूँ।

पर कृष्ण को पूजना आसान होगा,
और हमेशा आसान रहा है मन के कारण।
मन का विस्तार होगा।

उपवास रख दिया,
दो-चार फूल चढ़ा आए - बात खत्म।

पर खुद का शीर, अहंकार कौन चढ़ाएगा?
कौन उन्होंने बताए हुए अनेक मार्गों में से
एक मार्ग चुनेगा?

कृष्ण हमें कृष्ण बनाने आए थे,
उस से कम नहीं।

इसीलिए तो उनको जगद्गुरु कहा गया।

गुरु - जो शिष्य को गुरु बना दे,
उससे कम नहीं।

और एक ही दुष्ट है जगत में - मनुष्य का मन।
उसका नाम दुर्योधन है।

वह सभी इंद्रियों को अपने साथ ले लेगा।

अभी तो अपना सारथी कृष्ण को बनाओ।
पर याद रखना, तुम्हें ही युद्ध लड़ना होगा।

मानो मत -जानो।
युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
युद्ध मन से ही है।

क्योंकि बाहर कोई दुष्ट है ही नहीं।
कृष्ण का संदेश तत्वमसि है।

वहाँ दूसरा कहाँ?
अब चलो।

कृष्ण सिर्फ़ सारथी होंगे ,
सार कहने वाले,
दिशा दिखाने वाले।

_अवधूत सूर्यवंशी

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जहाँ की बात हो और तू आए,
घटा की बात हो और तू आए।

कोई किस्सा, कोई मसला हो क्या,
मेरी हर बात में बस तू आए।

ग़म-ख़ुशी की परवाह अब क्या करता,
तेरे आने से आए, तेरे जाने से जाए।

मुख़्तलिफ़ ख़ुशबू कहूं तो रुकती कहाँ,
बदनाम तेरे इश्क़ में क्यों हुआ जाए?

आदमी फ़रिश्ता बन भी गया तो क्या,
क़यामत से पहले अगर तू आए।

हाथ थामे हाथ छोड़ने के लिए,
जा-ब-जा बिकता हुआ बाज़ार सजा रखा जाए।

उलटी है गिनती हर शख़्स की जिसे मिला,
बात निकली तो बात सिर्फ़ बात तक रह जाए।

कूचा-ए-बाज़ार से अब क्या रखूँ रिश्ता, कैसे?
नज़र बदली नहीं कि नज़ारा भी बदल जाए।

तुम बहुत तेज़ हो, देखा मैंने,
अब हर घड़ी वक़्त से वक़्त क्या पूछा जाए?

ए आदमी की जात को हुआ क्या, किसे पता?
जज़्बात बहुत तेज़ हैं, मगर दिल क्यों चालबाज़ रखा जाए?

फ़ुर्सत मिली तो लिखूंगा तुझ पर मैं ग़ज़ल,
अवधूत की हर फ़ुर्सत में तेरा ही ख़याल आए।

_अवधूत सूर्यवंशी

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आज फिर एक दिन गुजर गया,
संसार अपनी अनोखी गति में खुश था।
सुख-दुख का विक्ष प्रयोग तीव्र था।
प्रेम के पंछी को मुक्त कर, अब अदृश्य डोरी से बाँध दिया था।
अमरत्व को विष का आलिंगन हो जैसे।
मैं व्यथित था,
पर मैं चलता ही गया अपनी दिशा में —
आकाशमार्गी...

_अवधूत सूर्यवंशी

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ती आजकाल माझा प्राण मागते,
हृदयातून आत्म्याचे वाण मागते।

अंतरीचा हा अर्जव सख्या सांगुनी,
माझी सारी तहान मागते।

हो, मी तुझाच आहे निरभ्र आकाशासारखा,
मिठीत मावत नाही म्हणून जमीन मागते।

मानवी मनाच्या पावसाळी वाळवंटात
मृगजळ प्रिये,
समाजाच्या चौकटीत राहून ती दान मागते।

आता पुरे की अवधूत, अजून काय बाकी?
काहीही म्हणा, ती खूप छान मागते।

_अवधूत सूर्यवंशी

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शून्य काव्य, गहन भव्य
सूक्ष्म रचना, अखंडित दिव्य।

मंत्र मुक्त, तंत्र युक्त
मानवी देह, देह मुक्त।

अजन्मा स्तोत्र, ऊर्जा-ज्योत
अनाहत गान, अजपा जप।

अवधूत - स्वयं से मुक्त,
स्वयं में युक्त।

चेतना : रूप।
शब्द : रचना।

_अवधूत सूर्यवंशी

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जीवन का आधार है साहस
मृत्यु की खोज है साहस

एक जीवन जो चलता सीधा, बिना प्रश्न उठाए
प्रश्नों की कतार है साहस।

कुछ लोग आयु की तीस साल में ही मर जाते हैं
देह के गिरने तक जीवन का उत्सव मनाना है साहस

अपने आप को ना समझ, दूसरों की आँखों में पहचान ढूँढना बहुत आम है
अपने आप को अग्नि में डाल, अपने आप से प्रश्न पूछना है साहस

अपने होने पे लाखों सवाल हैं, समाज की तुलना से भरे
गणित और काव्य का क्या मेल — यह सवाल पूछना है साहस

रोज़ दर्पण में जो दिखता, क्या वही सच है
भविष्य, भूत, वर्तमान से सवाल पूछना है साहस

बहुत आसान है अपने आप को दुखी कहना, समाज साथ देगा
समाज के सामने आनंदित रहना है साहस

कुछ सवाल समाज की भेड़चाल को विचलित कर जाते हैं
कितना भी विचलित कर दें, पर सवाल पूछते रहना — यह है साहस

सुख को कैसे भोग ले अपनी मृत्यु तक — यही ढूँढता है समाज
मृत्यु के आगे भी क्या जीवन है — यह सवाल पूछना है साहस

बलिदान का अर्थ अपने बल को दान करना है अगर
तो अहंकार की बलि दे देना — यही है परम साहस

जीवन रहस्य है अज्ञात का, अवधूत
अंधेरे राजमार्ग से हट, अपना रास्ता बनाना है साहस

_अवधूत सूर्यवंशी

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दिल का सफ़र अफ़सर न हुआ
मैं तेरे दफ़्तर में क्लर्क भी न हुआ

बाज़ार से खरीद लाता कुछ किस्मत
अफ़सोस, किस्मत को भी
मेरी किस्मत पर यक़ीन न हुआ

तोड़ लाता चाँद अगर हाथ लंबे होते मेरे
हाथ बढ़ा के देखा, तो चाँद को यक़ीन न हुआ

ग़ुलज़ार की ग़ज़ल कहूँ या फ़ैज़ की ज़ुबां
अपना हाल देख शेर भी शर्मिंदा हुआ

अब और क्या रुलाएगा अवधूत
तू कब ज़िंदा था... जो मौत ना हुआ

_अवधूत सूर्यवंशी

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आग आग में मिले तो क्या होगा
राख होगा, जमाना भला क्या होगा

पता मालूम नहीं, पता पूछनेवालों का
पता मिल भी गया तो क्या पता होगा

अगर सुलग उठी चिंगारी कुछ इस कदर बारिशों में
हाँ, मगर बारिशों के पानी का हाल क्या होगा

मैं तेरे शहर में अजनबी था शायद
रात रुक जाता तो तेरा क्या होता

अब के सफ़र, हमसफ़र पे क्या बात करता अवधूत
ख़ाक होने बाद क्या तू फिर आग होता

_अवधूत सूर्यवंशी

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मन से आगे बढ़ना सीखो
मन की अपनी अति और प्रीति की मांग है

अपने मन को व्यक्त कर समझना सीखो
मन चेतना और देह के बीच का बस एक संदेश वाहक है
पर संदेश वाहक को लगता की वही मालिक है

असल में हर समस्या का मूल मन के विस्तार से ही शुरू होता है
चेतना और बुद्धि अपने इनपुट देती है
पर मन अपने वायरस के साथ मस्त होता है

मन के आगे निकलने के बहुत मार्ग हैं
इसमें से सरल है, अपने आप को कुछ समय देना
यह ऐसा है जैसे आपने खुद को पढ़के एडजस्ट कर लिया है

असल में ड्राइविंग सीट पे चेतना को होना चाहिए था इस देह में
पर मन है, अब मन सैकड़ों बार रास्ता बदलता तो यात्री परेशान है

प्रेम, रस, करुणा, आनंद से भरा हमारा होना है
पर संदेशवाहक अगर मालिक हो तो बस अपने आप को खोना है

ज़िंदगी बहुत ज़्यादा खूबसूरत है मगर
मन के कारण आत्मकेश से सभी हैरान हैं

मन समझने का विषय है, लड़ने का नहीं
रोज जैसे हम नहाते हैं तन के लिए
मन को भी कैथार्सिस ध्यान से साफ करना है

चलो अभी सुबह सुबह ज़्यादा ज्ञान ना देता यह अवधूत
यह अभी आनंदित है, पर अपना संदेशवाहक भी ज़रा संवेदनशील है
_अवधूत सूर्यवंशी

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रचनात्मकता हमारा स्वभाव है
रचना स्वयंम को रचने निकली है
प्रेम रस लीन रचना उसका अविरत भाव है

हृदय आँखें है उसकी और मौन स्वभाव है
रचना गहन समाधि में लीन अनंत की पुकार है

काव्य छंद कविता गीत यह उसके अंग हजार है
अनासक्त चले जैसे लावण्यवती हर थिरकन में
झंकार है

रचना रचना के प्रेम में आतुर, रचना को रचना से ही मिलन सार है

देह बस एक व्यंग है, रचना को रचना में मिल जाना है,
रचना रचना को अंगीकार है

प्रेम मग्न रचना प्रेम अधीर, शरीर सुख तो उसका एक अमूल्य गले का हार है,
प्रेमी नित नूतन उपहार लाता उसे, रचना को रचना के हर रूप का स्वीकार है

रचना स्वस्वतंत्र अपने आप में पूर्ण है
इसी कारण शायद, रचना के इस यात्रा में सुख दुख का ही बंध है

साक्षी स्वयंम को कर्ता समझ रहा अब
मोह भंग ताप शाप है

सुख दुख का स्वप्न देखता अनंत का यात्री
अनंत यात्रा स्वतंत्र रचना अभी स्वयंम का विस्तार है

अवधूत रचना प्रेमरस से भरी आनंद स्वरूपा
अजन्मा, की अनाहत पुकार है

_अवधूत सूर्यवंशी

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