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कविता रतजगे में चाँद अर्पण कुमार आज रविवार था छुट्टी का दिन एकाध बार किन्हीं ज़रूरी कामों से बाहर गया और फिर पढ़ने-लिखने के अपने कारोबार में लगा रहा समय पर दिन का भोजन किया और जहाँ थोड़ी सी झपकी का अंदेशा था वहाँ देर शाम तक सोता रहा ................... और अब यह क्या रात में आँखों से नींद ही गायब है सोमवार की भोर हो चुकी है दीवार-घड़ी ने साढ़े चार बज़ा डाले हैं मगर आज आँखों ने शायद रतजगा करने की ठान ली है बाहर बरामदे में कई बार झाँक आया खिड़की के छज्जे पर बैठा कबूतर आवाज़ करने पर भी न फड़फड़ाया और न भागा संभवतः वह भी गहरी नींद में हो दुबारा ऐसी हिमाकत करने से खुद को रोक लिया खिड़की के छज्जे पर चाँदनी-नहाई रात में यूँ बैठे-बैठे वह क्या मजे की नींद ले रहा है इस समय किसी अंदेशे का उसे कोई खटका भी तो नहीं है आखिर तभी तो वह दिन की तरह चौकन्ना नहीं है मगर उसे लेकर एक ख्याल और आता है क्या जाने अलसायी रात में बिखरते ओस की बूँदों ने उसके पंखों को भी भारी कर दिया हो आज ही अखबार में पढ़ा था कि आज चाँद धरती के कुछ अधिक करीब रहेगा और इसलिए कुछ अधिक बड़ा और चमकीला दिखेगा बरामदे में लगी जाली को हटाकर कई बार चाँद को देख आया रात के इस बीतते पहर में उसे देखने से प्रीतिकर और क्या हो सकता है! चाँद भी शुरू–शुरू में पूरब की तरफ था अपनी गति से क्रमशः पश्चिम की तरफ होता गया बीच में एकाध बार तो गर्दन टेंढ़ी कर उसे देख लिया मगर अब वह इतना पश्चिम जा चुका है कि उसे अपने बरामदे से नहीं देख सकता चौदह-मंज़िला फ्लैटों की इस सोसायटी में दीवारें भी तो अमृत-पान करने के मूड में रास्ते में आ खड़ी होती हैं चाँद को तकने के लिए अब छत पर ही जाना एकमात्र विकल्प है मगर फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर पहली मंज़िल से चौदहवीं मंज़िल पर इस घड़ी छत पर जाना.... कौन मानेगा कि चाँद मुझे खींचकर छत पर लाया है लोग तो कुछ और ही अर्थ लगाएंगे और लोग ही क्यों पत्नी को भी मुझपर शक हो सकता है और जाने कितने निर्दोष चेहरे अचानक से उसे कुलक्षणी लगने लग सकते हैं यह रतजगा भी कितना खतरनाक है तभी सबसे मुनासिब यही लगा कि इस रतजगे को कविता में दर्ज़ कर लिया जाए चाँदनी की इस शीतलता को कविता के कटोरे में उतार ली जाए। ........... #KAVYOTSAV -2
कविता व्हाट्स-अप डीपी अर्पण कुमार मैं उससे प्यार करने लगा हूँ या इसे यूँ कहना कुछ ज़्यादा ठीक होगा कि वह मुझे अच्छी लगने लगी है मगर उससे यह सब मैं कह नहीं सकता हर चीज़ कहना संभव भी नहीं वक़्त के अलग अलग सिरों पर खड़े हैं हम सोचता हूँ क्या उसे किसी उलझन में डालना ज़रूरी है! क्या उससे अपने दिल का भेद खोले बिना रहा नहीं जा सकता! अपनी ही धुन में खोए किसी गुमनाम संगीतकार सा मैं सिर्फ़ स्वयं को अपना संयोजन सुनाता हूँ उससे बेमतलब के चैट सप्ताह में दो तीन बार तो हो ही जाते हैं बचे दिन बाक़ी उन संवादों की ख़ुशबू में हो गिरफ़्तार बीत जाते हैं क्या समय का यूँ सरसराता और गुनगुनाता हुआ निकल जाना प्यार का कोई हासिल नहीं है क्या सामनेवाले से इज़हार कर देना ही सब कुछ है! आजकल भोर में यही कोई चार बजे के आसपास मेरी नींद टूट जाती है बीच-बीच में पास की पटरी से ट्रेन के गुज़रने की आवाज आती है मन तो बावरा है कहाँ से कहाँ की सोच लेता है वह इस ट्रेन में बैठ मुझसे मिलने आ रही है आ रही है क्या! ओह, नहीं आई। कोई बात नहीं अगली में आ जाएगी दिल जाने कब हार मानेगा! मैं भी यहीं हूँ पटरियाँ भी यहीं हैं और देश में अभी ट्रेन का चलना कोई बंद थोड़े ही न हुआ है! भोर के ये बेमतलब और मीठे से ख़याल इतना सुकून कैसे देते हैं! पूछता हूँ अपने आप से प्यार से भला और क्या चाहिए! मैं व्हाट्स अप का उसका डीपी (डिस्पले पिक्चर) देखता रहता हूँ आज उसका हेयर स्टाइल इस तरह का है तो कल उसने यह कपड़े पहने थे परसों एक पार्टी में उसने ख़ूब डांस किया था अपने मोबाइल पर उसकी ये तस्वीरें देखते हुए मुझे कई बार गुमान होता है वह किसी रैंप पर कैट-वॉक कर रही है पूरी स्पॉट लाइट उस पर आ जमी है और मैं हॉल के एक अँधेरे कोने में बैठा बस उसे निहार रहा हूँ मेरे अंदर उजाले का कोई झरना फूट पड़ता है। ............ #KAVYOTSAV -2
कविता आओ ! अर्पण कुमार आओ अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच आओ तमाम नाराजगियों के रहते भी आओ कि प्यार करें इस अँधेरे में एक-दूसरे से लगकर एक-दूसरे को रोशन करें आओ कि दुनियादारी लगी रहेगी कि इसी दुनियादारी में प्रेम के लिए भी कोई कोना सुरक्षित रखना होगा आओ कि बच्चे सो गए हैं आओ कि बड़ों का एक-दूसरे से सुख-दुख साझा करने का यही समय है जानता हूँ कि थकान हावी है शरीर पर जम्हाई पर जम्हाई आ रही है पोर-पोर दुख रहा है बदन का मगर आओ कि कुछ देर और विलंबित रखें अपनी थकान को कल रविवार है सुबह देर तक सोते रहेंगे इसके एवज़ में किसी भी सूरत में सिर्फ इसके लिए समय निकालना आज भी हसरत की चीज़ है कि गृहस्थी के तमाम दबावों के बीच इस प्रेम को भी एक अनिवार्य अंग मानकर चलना होगा आओ कि घर की उठापटक तो चलती रहेगी कि इसी उठापटक में प्रेम भी किया जाए कि गृहस्थी में निश्चिंतता कभी नहीं आ पाएगी उसकी जरूरत भी नहीं आओ कि प्रेम करते हुए कुछ निश्चिंत हुआ जाए। ... .... #KAVYOTSAV -2
कविता अँगीठी बना चेहरा अर्पण कुमार दरवाजे के आगे कुर्सी पर बैठा खुले, चमकते आकाश को निहारता फैलाए पैर, निश्चिंतता से पीता तेज धूप को जी भर आँखें बंद किए तुम्हें सोच रहा हूँ ... ... ... और तुम आ गई हो दुनिया की सुध-बुध भुलाती मेरी चेतना में मेरी पेशानी पर दपदपाती, चमकती बूँदों की शक्ल में जैसे आ जाती है कोयले में सूरज की लाली या फिर अँगीठी की गोद में उग आते हैं नन्हें-नन्हें कई सूरज चमकदार लह-लह करते कोयलों के तुम तपा रही हो मेरे चेहरे को और मेरा चेहरा अँगीठी बन गया है जिस पर तुम रोटी सेंक रही हो मेरे लिए ही, तुम्हारे सधे हाथों की लकदक करती उँगलियाँ जल जाती हैं झन्न से छुआती हैं जब गर्म किसी कोयले से और झटक लेती हो तुम तब अपना हाथ तुर्शी में एकदम से मगर बैठे हुए जस का तस भूख के पास स्वाद की दुनिया रचती बैठकर मेरी पेशानी पर चुहचुहा रही हो तुम बूँद-बूँद में ढलकर मैंने ढीला छोड़ दिया है अपने अंग-अंग को तुम उतर रही हो आहिस्ता-आहिस्ता पोर-पोर में और मैं उठना नहीं चाह रहा हूँ कुर्सी से जो प्रतीत हो रही है अब तुम्हारी गोद पृथ्वी का सबसे अधिक सुरक्षित सबसे अधिक गरम कोना, मेरे लिए। .......... #KAVYOTSAV -2
कविता छोरों बीच शहर अर्पण कुमार भोर में जागा बिस्तर पर लेटा बंद किए आँखें निमग्नता में डूबा हूँ आकंठ स्मृति-सरोवर में तुम्हारे, दूर किसी मंदिर से शंख-ध्वनि आती है उठान लेती और क्रमशः शांत होती जाती, कमरे से बाहर नहीं निकला हूँ अब तक मगर सभी गतिविधियाँ दिख रही हैं मुझे यहीं से आवाज़ के भी अपने चेहरे होते हैं कोई अपना दुपहिया स्टार्ट करता है और कुछ देर के लिए उपस्थिति दर्ज़ कराता वातावरण में अपनी पों-पों की गायब हो जाता है तेज़ी से अपनी मंज़िल ओर जगने की तैयारी करते शहर की खटराग सुनता हूँ मैं अपने बंद अँधेरे कमरे में चौकन्ने और शांत कानों से किसी घर का दरवाज़ा खुल रहा है किसी दुकान का शटर किसी के बच्चे जाग रहे हैं किसी के मियाँ कोई बर्तन मल रहा है कोई अपनी आँखें चिर-परिचित मुहल्ले का अस्तित्व ढल जाता है उतनी देर निराकार मगर क्रियाशील ईश्वर में हवा की सांय-सांय पर कब्ज़ा जमा लिया है पक्षियों ने अपने सामूहिक कलरव से हॉकर गिराकर अखबार धप्प से बरामदे में चला गया है दूसरी गलियों में अपनी पुरानी साइकिल पर ताज़ी खबरों का बंडल लादे सुर्खियाँ फड़फड़ा रही हैं दस्तक देतीं दरवाज़े पर मैं कमरा खोल देता हूँ शहर के इस छोर पर सूरज अपनी गठरी खोल चुका है दिन के शुरुआत की आधिकारिक घोषणा हो चुकी है अब तुम्हें भी उठकर मेरी कविता से जाना होगा शहर के उस छोर पर बीती रात जहाँ तुम सोयी तो ज़रूर थी मगर बदलकर करवट चुपके से पलट आयी थी इस छोर पर आँखों में चढ़ी एक छोर की खुमारी को मलते हुए शुरू करना है तुम्हें अपनी दिनचर्या सारी शहर के दूसरे छोर पर । .......... .... #KAVYOTSAV -2
कविता हथेली का खालीपन अर्पण कुमार खाली हथेली पर उदास नहीं होता हाँ, इतराता ज़रूर हूँ मैं सोचता हूँ... खाली है यह तो जाने किन मूल्यवान चीज़ों से कब भर जाए अभी नहीं तो फिर कभी आज नहीं तो कल कल नहीं तो परसों खाली तो है यह, मगर किसी सीमा से मुक्त भी खाली है, सो इसपर कुछ भी रखा जा सकता है देखें अगर इससे हवा और रोशनी कैसे उन्मुक्त गुजरती है आकाश उतर कर कैसे धम्म से बैठ गया है इसपर और इस विराटता को महसूसतीं मेरी ये पाँचों उँगलियाँ इस खालीपन को गोया उत्सव में बदलती चली जा रही हैं धूप में बैठता हूँ देर तलक और धूप में चमकती हथेली को देखता हूँ भरपूर लकीरों से भरी त्वचा पर सोने की परत चढ़ी महसूस होती है मैं कृतज्ञ हो उठता हूँ मेरा दाहिना हाथ हिलने लगता है ऊपर आकाश में चमकते सूरज को अभिभावदन करती हथेली का चेहरा मुझे बड़ा संतोषप्रद दिखता है निराश नहीं करती मुझे मेरी रिक्त हथेली क्योंकि मेरे भीतर का विश्वास इसे खाली मानने को तैयार नहीं ठीक वैसे ही जैसे अभी पश्चिम में डूब रहे सूरज को देखते हुए मेरी विज्ञान-सम्मत दृष्टि उसे तिरोहित होना नहीं मानती मुझे भरोसा नहीं किसी भविष्यवाणी में मगर जब कोई नज़ूमी मेरी हथेली को देखना चाहता है तो मैं सहर्ष आगे कर देता हूँ इसे उसका माखौल उड़ाना मेरा मकसद नहीं होता मगर अपनी हथेली को दो व्यक्तियों के बीच यूँ पुल बनता देख मुझे अच्छा लगता है अच्छी बुरी जितनी बातें मेरे अनजाने भविष्य को लेकर बताई जाती है यह हथेली उस सारे वाग्जाल के केंद्र में पड़ी हल्के से मुस्कुरा देती है मानो कह रही हो कि जैसे यह पूरी सृष्टि ही एक वाग्जाल हो ये खाली हथेलियाँ ही हैं जिनके बीच रखकर जुए के पासे फेंके जाते हैं राजा रंक और रंक राजा बन जाता है इन खाली हथेलियों पर बसंत में हम भांति-भांति के रंग बनाते हैं और अपने प्रेमीजनों के गालों पर लगा देते हैं सोचता हूँ ... ये हथेलियाँ निस्सार कैसे हो सकती है जो कई चेहरों के दुलार-दर्प से जगमग हों! .................. ............ #KAVYOTSAV -2
कविता अभिसार अर्पण कुमार हे मेरी रात की रानी! अपने दो गुलाबों के बीच आज मुझे सजा लो क्या जाने सदियों से उचटी हुई मेरी नींद को इस सुगन्धित घाटी में कुछ सुकून मिल जाए आज अभिसार की रात है आओ तुम्हारे रोमरहित चरण-युग्म के टखनों पर मौलसिरी के पुष्पों की पायल बाँध दूँ तुम्हारी कटि के चारों ओर बंधे हल्के, इकहरे धागे से आज जी भर खेलूँ जिसे तुमने किसी मेखला की जगह बाँध रखा है तुम्हारी तिरछी, रसभरी आँखों ने एक निगाह उसकी ओर की और मैंने समझ लिया तुम्हारा इशारा मैं धागे की हल्की लगी गाँठ खोल देता हूँ एक अनजाने नशे में तुम्हारी आँखें बंद हो जाती हैं और तुम्हारे होठों का पट हल्का खुल जाता है तुम स्वर्ग से उतरी किसी नदी के तट पर पड़ी कोई सुनहरी मछली सरीखी जान पड़ती हो मैं अपनी उँगलियों के स्पर्श से काँपती तुम्हारी नाभि को चूमता हूँ जो इस वक्त एक कँपायमान झील बनी हुई है एक ऐसी झील जो मेरे स्पर्श और तुम्हारी कमनीयता से बनी है जिसमें आज की रात हम दोनों साथ डूबेंगे कई कई बार और जब एक दूसरे को तृप्त कर श्लथ बाहर निकलेंगे यह झील हम दोनों की सुगंध से महक उठेगी झील के ऊपर का आकाश मधुपटल बन जाएगा। आज अभिसार की रात है लेटे रहेंगे हम देर तक एक दूसरे के पार्श्व में एक दूसरे की आँखों में पढ़ेंगे मचलते अरमानों को फिर-फिर आज की रात अँधेरे में गूँथे जाएँगे दो शरीर धरती की परात में जहाँ कुम्हार ही माटी है और माटी ही कुम्हार जिसमें प्रेम की तरलता से पानी का काम लिया जाएगा इससे निर्मित होगी एक नई दुनिया जहाँ नफ़रत और हिंसा की कोई जगह नहीं होगी जहाँ किसी मधूक से कोई प्रेमी युगल लटकाया नहीं जाएगा जहाँ कोयल की कूक पर नहीं होगा कोई प्रतिबंध और जब पृथ्वी सचमुच मधुजा कहलाएगी हे मेरी माधवी! अपनी मरमरी बाँहों में समेट लो मुझे और अपने लावण्य से भर दो मिठास मेरे अस्तित्व में। ....... #KAVYOTSAV -2
कविता सजनी या कि कल्पना अर्पण कुमार जो मेरी कालिमा को किसी ख़य्याम सा पीती है वह कल्पना है जो मेरी वासना को अनुष्ठान मान अपने तईं भरपूर निभाती है, वह कल्पना है आकाश बेपर्दा है चतुर्दिक और धरती ने लाज छोड़ रखी है जो इस मनोहरता को मेरी दृष्टि में भरती है, वह कल्पना है मेरे रचे को किसी कादंबरी सा जो गुनगुनाती है, वह कल्पना है रख अपने मान को परे जो मुझे मानती है, वह कल्पना है जिसका ताउम्र ऋणी रहूँगा, उस विराट ह्रदया को पहुँचे मेरा सलाम जो मेरे एकान्त को किसी कलावंत सा दुलारती है, वह कल्पना है कँपकँपाते कँवल को जो झट अपना शीतल गोद सौंपती है अपराध कैसा भी हो, जिसकी कचहरी मुझे रिहा कर देती है जिसकी कटि से लग मेरे सपने कल्पनातीत उड़ान भरने लगते हैं ख़ुद काजल लगा जो मुझे बुरी नज़रों से बचाती है, वह कल्पना है हर सच में कुछ कल्पना है, हर कल्पना का अपना भी कुछ सच है कुछ लिखे गए और प्रेषित हुए, जो अनलिखा रहा, वह भी तो ख़त है उससे मुझे मिलना न था, उसे मेरे पास आना न था, जानते थे हम इसे जिसे मैंने फिर भी दुलारा और जो मुझको ख़ूब है सही, हासिल यही वो वक़्त है उसे बस घटित होना है, सच में हो या झूठ में, गली में हो या हो बीच अँगना प्यार तो बस हो जाता है, खुली आँखों से हो या देखें हम कोई सपना पक्षी कलरव करते हैं, पेड़ों के पत्ते सरसराते हैं और संध्या गीत कोई गाता है तुम चुपके से मेरे पास चली आती हो, सजनी हो या हो कि कल्पना। ................. #KAVYOTSAV -2
कविता आँखें अर्पण कुमार आँखें हैं कि पानी से भरी दो परातें जिनमें उनींदी तो कुछ अस्त व्यस्त सी चाँदनी तैरती है चुपचाप पीठ तो कभी पेट के बल, सतह पर तो कभी सतह के नीचे, कदंब की एक टहनी हटाकर जिनमें कोई दीवाना चाँद डूबा रहता है देर तक आँचल फैलाए दूर तक और बैठी हुई बड़ी ही तसल्ली से रात्रि जिनकी कोरों मे काजल लगाती है, जिनकी चमक से सबेरा अपना उजास लेता है, जिनके पर्दों पर टिककर ओस अपने आकार ग्रहण करते हैं, रात की रानी झुककर जिनपर अपना सुगंध लुटाती है ये वही परात हैं जिनकी स्नेह लगी सतह पर रात्रि अपना नशा गूँथती है, ये वही परात हैं, दुनिया के सारे सूरजमुखी बड़े अदब से दिन भर जिनके आगे झुके रहते हैं और साँझ होते ही दुनिया के सारे भँवरे जिनकी गिरफ़्त में आने को मचलने लगते हैं कल-कल करते झरने का सौंदर्य है इनमें छल-छल छलकते जल से भरी हैं ये परात, ये परात दुनिया की सबसे खूबसूरत और ज़िंदगी से मचलती हुई परात हैं ये परात हैं तो मैं हूँ कुछ देखने की मेरी लालसा शेष है मेरी महबूबा की पलकें, इन परातों के झीने और पारदर्शी पर्दे हैं जब वह अपनी पलकें उठाती है, परात का पूरा पानी मेरी चेतना पर आ धमकता है मैं लबालब हो उठता हूँ पोर पोर मेरा पूरा देहात्म चमक उठता है जिसकी प्रगल्भ तरलता में सोचता हूँ, क्या है ऐसा इन दो परातों में कि दुनिया की सारी नदियों का पानी आकर जमा हो गया है इनमें ही कि पूरे पानी में बताशे की मिठास घुली है और बूँद-बूँद में जिसकी रच बस गई है केवड़े की खुशबू । ...........…..... #KAVYOTSAV -2
कविता अँधेरे में पुरुष अर्पण कुमार दिन भर के तामझाम के बाद गहराती शाम में निकल बाहर नीचे की भीड़ से चला आता हूँ खुली छत पर थोड़ी हवा थोड़ा आकाश और थोड़ा एकांत पाने के लिए निढाल मन एक भारी-भरकम वज़ूद को भारहीन कर खो जाता है जाने किस शून्य में अंतरिक्ष के कि वायु के उस स्पंदित गोले में साफ़ साफ़ महसूस की जाने वाली कोई ठोस रासायनिक प्रतिक्रिया होती है और अलस आँखों की कोरों से बहने लगती है एक नदी ख़ामोशी से डूबती-उतराती करुणा में देर तलक भला हो अँधेरे का कि बचा लेता है एक पुरुष के स्याह रुदन को प्रकट उपहास से समाज के दुःखी पुरुष को अँधेरे की ओट मिल जाती है नदी सरकती हुई उसके पास आती है और उसे अपने पार्श्व में ले लेती है देर तक एक दूजे के मन को टटोलते हुए दोनों दूसरे के दुःखों को कब सहलाने लगे, इसका पता उन्हें भी नहीं चला उस रात्रि करुणा का उजाला था और मेरे पुरुष के भीतर कोई स्त्री अँखुआयी थी। ..... #KAVYOTSAV -2
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