Adi Yogi Shiva in Hindi Spiritual Stories by Ravi Bhanushali books and stories PDF | आदी योगी शिव

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आदी योगी शिव

आदियोगी शिव की कथा सृष्टि के आरंभ से भी पहले की है। जब न आकाश था, न पृथ्वी, न प्रकाश और न अंधकार। केवल एक अनंत शून्य था, जिसमें न समय की गति थी और न दिशा का कोई अस्तित्व। उसी शून्य में एक चेतना स्थिर थी। वह चेतना किसी रूप में बंधी नहीं थी, फिर भी सब कुछ उसी से उत्पन्न होने वाला था। वही चेतना आगे चलकर आदियोगी शिव के रूप में प्रकट हुई।


आदियोगी शिव न जन्मे थे और न कभी मरेंगे। वे आदि भी थे और अंत भी। वे शून्य भी थे और अनंत भी। जब सृष्टि की पहली लहर उठी, जब पंचतत्व आकार लेने लगे, तब शिव ने स्वयं को प्रकट किया। उनके जटाओं से ढका मस्तक, शरीर पर भस्म, गले में नाग और नेत्रों में अपार शांति थी। वे किसी सिंहासन पर नहीं बैठे थे, न ही किसी स्वर्ग में रहते थे। उनका स्थान कैलाश पर्वत था, जहाँ बर्फ, मौन और स्थिरता उनका साथ देते थे।


कैलाश पर बैठकर शिव ध्यान में लीन रहते थे। उनका ध्यान इतना गहरा था कि समय भी उनके समीप आकर ठहर जाता था। उनके मौन में भी ज्ञान था और उनकी स्थिरता में भी सृष्टि की गति छिपी हुई थी। वे किसी से कुछ कहते नहीं थे, पर जो भी उनके समीप आता, उसके भीतर कुछ बदल जाता।


उधर धरती पर जीवन का आरंभ हो चुका था। मनुष्य जन्म ले रहा था, बढ़ रहा था और मर रहा था। वह भूख, भय और इच्छाओं में उलझा हुआ था। उसे जीवन का अर्थ समझ नहीं आता था। सुख उसे क्षणिक लगता और दुख स्थायी। वह ईश्वर को बाहर खोजता, आकाश की ओर देखता और प्रश्न करता, पर उत्तर कहीं नहीं मिलता।


मनुष्य की यह अवस्था आदियोगी शिव देख रहे थे। उनके हृदय में करुणा थी, पर वे जानते थे कि केवल करुणा से मुक्ति नहीं मिलती। मनुष्य को स्वयं को जानना होगा। उसे अपने भीतर उतरना होगा। ज्ञान बाहर से नहीं दिया जा सकता, उसे भीतर से जाग्रत करना पड़ता है।


एक दिन पार्वती ने शिव से पूछा, “स्वामी, मनुष्य इतना दुखी क्यों है?”

शिव ने नेत्र नहीं खोले, पर स्वर शांत और गूंजता हुआ था। “क्योंकि वह बाहर खोज रहा है, जबकि सत्य भीतर है।”


धरती पर सात साधक सत्य की खोज में भटक रहे थे। उन्होंने संसार त्याग दिया था। धन, परिवार, मान-सम्मान सब कुछ छोड़कर वे केवल एक ही उद्देश्य लेकर निकले थे – सत्य को जानना। कठिन मार्गों से गुजरते हुए, असंख्य कष्ट सहते हुए वे हिमालय पहुँचे और अंततः कैलाश के समीप आकर तपस्या में बैठ गए।


सातों साधक वर्षों तक वहीं रहे। बर्फ गिरी, तूफान आए, रातें बीतीं, दिन ढले, पर उनका संकल्प नहीं डगमगाया। वे न कोई प्रश्न करते, न कोई शिकायत। केवल साधना करते रहे। आदियोगी शिव उन्हें देखते रहे, पर मौन रहे। यह मौन भी एक परीक्षा थी – धैर्य की, समर्पण की।


समय बीतता गया। एक दिन ऐसा आया जब उन सातों साधकों की चेतना परिपक्व हो गई। उनका अहंकार गल चुका था। उनकी इच्छाएँ शांत हो चुकी थीं। तभी आदियोगी शिव ने नेत्र खोले। उस क्षण कैलाश में कंपन हुआ। वायु स्थिर हो गई और आकाश जैसे झुक आया।


शिव बोले, “अब तुम सुनने योग्य हो।”


यही वह क्षण था जब आदियोगी शिव, आदिगुरु बने। उन्होंने कोई धर्म स्थापित नहीं किया। उन्होंने कोई पूजा-पद्धति नहीं सिखाई। उन्होंने केवल योग दिया – स्वयं को जानने का मार्ग। उन्होंने बताया कि शरीर साधन है, मन बंधन है और चेतना ही मुक्ति का द्वार है।


शिव ने योग के अनेक मार्ग बताए। उन्होंने बताया कि श्वास के साथ कैसे चेतना को जोड़ा जाए, मन को कैसे शांत किया जाए और अहंकार को कैसे विलीन किया जाए। उन्होंने कहा कि ईश्वर कोई बाहरी सत्ता नहीं है, वह स्वयं की अनुभूति है।


एक साधक ने पूछा, “प्रभु, मोक्ष क्या मृत्यु के बाद मिलता है?”

शिव मुस्कुराए। “जो जीवन में मुक्त नहीं हुआ, वह मृत्यु के बाद भी बंधन में रहेगा।”


आदियोगी शिव का ज्ञान धीरे-धीरे धरती पर फैलने लगा। उनके शिष्यों ने यह ज्ञान आगे पहुँचाया। मनुष्य ने पहली बार अपने भीतर झाँकना शुरू किया। ध्यान, साधना और योग से उसके भय कम होने लगे। वह समझने लगा कि जीवन केवल संघर्ष नहीं, एक अवसर है।


पर सृष्टि में संतुलन सदा बना रहे, यह आवश्यक था। जहाँ-जहाँ अधर्म बढ़ा, अन्याय फैला, वहाँ आदियोगी शिव ने रुद्र रूप धारण किया। उनका संहार क्रोध से नहीं, करुणा से उत्पन्न होता था। वे नष्ट करते थे ताकि नया निर्माण हो सके। वे तोड़ते थे ताकि संतुलन बना रहे।


पार्वती ने एक बार फिर पूछा, “आप संहार भी करते हैं और करुणा भी रखते हैं, यह कैसे?”

शिव ने कहा, “जो सब कुछ स्वीकार कर लेता है, वही करुणामय होता है। संहार भी स्वीकार का ही एक रूप है।”


युग बदलते गए। समय आगे बढ़ता गया। मनुष्य ने मंदिर बनाए, मूर्तियाँ स्थापित कीं और शिव को पत्थर में खोजने लगा। उसने नियम बनाए, कर्मकांड रचे, पर आदियोगी शिव वैसे ही रहे – मौन, स्थिर, ध्यानमग्न।


आज भी जब कोई साधक सच्चे मन से ध्यान करता है, जब कोई अपनी श्वास को महसूस करता है और मन को शांत करता है, तब आदियोगी शिव की चेतना उसे छूती है। वे किसी एक स्थान पर नहीं हैं। वे हर उस क्षण में हैं, जब मनुष्य स्वयं से साक्षात्कार करता है।


आदियोगी शिव हमें यह सिखाते हैं कि जीवन का उद्देश्य बाहर की उपलब्धियों में नहीं है। वास्तविक यात्रा भीतर की है। दुख कोई दंड नहीं, बल्कि संकेत है। और मोक्ष कोई दूर का लक्ष्य नहीं, बल्कि जाग्रत जीवन की अवस्था है।


वे आदि हैं।

वे अनंत हैं।

वे मौन हैं।

और वही परम सत्य हैं।