मैंने फ़ोन स्क्रीन की आख़िरी लाइन दोबारा पढ़ी—“जमालीपुरा अस्पताल पहुँचिए। जल्दी।”
दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
“निश! बाहर आओ, तुरंत!” मैंने आवाज़ लगाई।
निशिका पानी से बाहर निकली—भीगी हुई, काँपती हुई। “क्या हुआ? कौन-सा फ़ोन था?”
“मौसी को अस्पताल ले गए हैं। चलो—अभी।”
उसकी मस्ती एक ही पल में गायब हो गई। पानी उसके पैरों से टपक रहा था, शरीर ठंड से काँप रहा था। “कम से कम मुझे… बदन सुखाने का मौका तो दो!” उसने घबराकर कहा।
मैंने कार का हीटर तेज़ किया। “गाड़ी में बैठो—बस। रास्ते में सूख जाएगा। अभी समय नहीं है।”
हम तेज़ी से गाँव की ओर लौटे। रास्ता पहाड़ी और सँकरा था। निशिका ठंडी सीट बेल्ट पकड़े बैठी थी। “ऐसा… क्या हो गया मौसी को?” उसकी आवाज़ काँप रही थी।
मैंने सड़क पर नज़रें टिकाईं। “फ़ोन किया तो बस इतना कहा कि मौसी अस्पताल में हैं। और जल्दी आने को।”
निशिका का गला भर आया। “पहले बच्चों को ले चलो… प्लीज़। मुझे डर लग रहा है।”
“मैं पहले स्कूल ही जा रहा हूँ,” मैंने गाड़ी और तेज़ की।
स्कूल में अंदर के सिपाही और भी ज़्यादा सतर्क दिखे। हमने जल्दी से आरव और मायरा को उठाया और कार में बिठाकर अस्पताल की ओर निकल पड़े।
अस्पताल छोटा-सा था—हल्की दवाई की गंध, बूढ़ी दीवारें, और बेचैनी से भरा माहौल।
दरवाज़े के पास एक दुबला-पतला, हड्डियों-सा ढाँचा-सा आदमी दिखाई दिया—चश्मा तिरछा, होंठ सूखे, बाल हवा में उड़ते हुए।
घोंचू कुमार। पैंतीस का आदमी, पर बुद्धि किसी बच्चे जैसी—बचपन में मेरे पीछे-पीछे घूमता रहता था।
असली नाम मुरली। पर गाँव में कोई उसे उस नाम से नहीं बुलाता।
पता नहीं क्यों—वह मुझे देखते ही उछलकर आया और दोनों हाथ फैलाकर गले लगाने की कोशिश की। “रंजीत भइय्या! रंजीत भइय्या!”
मैंने झुंझलाकर उसे धक्का दिया। “दूर हट—घोंचू! अभी नहीं!”
वह तुरंत पीछे हट गया, जैसे किसी बच्चे को डाँट पड़ी हो।
अंदर पहुँचा तो मौसी बेड पर लेटी थीं—पूरी तरह पसीने में भीगीं, सिर पर पट्टी, बाँह में ग्लूकोज़ चढ़ रहा था।
मैं उनके पास बैठा। “मौसी… ये हुआ क्या?”
उन्होंने थकी आवाज़ में कहा, “कुत्ता… कुत्ते ने… काट लिया बेटा…”
डॉक्टर पास आकर बोला, “कुत्ते ने काटा होगा… शायद… घाव अजीब था, पर हमने रैबीज़ प्रोटोकॉल दे दिया है। हालत सुबह तक स्थिर हो जानी चाहिए। कल डिस्चार्ज कर देंगे।”
मैंने मौसी का हाथ थामा। “अब और नहीं। कल आप मेरे साथ शहर चलेंगी। यहाँ नहीं रहने दूँगा।”
मौसी ने हल्का-सा सिर हिलाया। “ठीक है बेटा…”
कुछ देर बाद हम सब बाहर निकले। दरवाज़े के पास वही घोंचू ज़मीन पर बैठा काँप रहा था।
“अब क्या हुआ?” मैंने चिढ़कर पूछा।
उसकी आँखें डर से फैल गईं। “आपकी मौसी को… कुत्ते ने नहीं काटा रंजीत भइय्या…”
मैंने भौंहें चढ़ाईं। “क्या बक रहा है तू?”
वह फुसफुसाया, “मौसी को… आदमी ने काटा है। सफ़ेद चमड़ी वाला आदमी… जिसके जिस्म में खून नहीं था… वही काटता है…”
मैंने हँसकर कहा, “कुत्ता था। डॉक्टर ने बोला है। तू अपनी बकवास बंद कर।”
वह चुप हो गया—पर उसकी आँखों का डर… मेरी हँसी को झूठा बना रहा था।
निशिका पास आई। “चलो, बच्चों को घर ले चलते हैं।”
मैं कार की तरफ़ बढ़ा, लेकिन घोंचू अब भी हमें घूर रहा था—आँखों में दहशत लिए।
और तभी पहली बार लगा—शायद वह झूठ नहीं बोल रहा था।