अलाव की गरम लपटें अभी भी हल्की-हल्की तड़क रही थीं, मगर अब किसी की भी नज़रें आग पर नहीं थीं। सबका ध्यान बस रंजीत पर टिक गया था—उसकी आँखें जैसे उस अँधेरे जंगल में कहीं अटक गई थीं, कहीं बहुत पीछे, किसी बीते हुए समय में।
राधिका ने धीमे स्वर में पूछा, “रंजीत… क्या हुआ था वहाँ?”
रंजीत ने एक लंबी साँस ली, जैसे किसी जमे हुए स्मृति-ताले को खोल रहा हो। फिर उसने बोलना शुरू किया—
करीब आठ-नौ साल पहले की बात है, जब मुझे सुबह-सुबह फोन आया—मौसा जी नहीं रहे। अचानक। मैं स्तब्ध रह गया। उनकी तबीयत ठीक थी, कम-से-कम हम सब यही मानते थे। उसी दोपहर हम पहाड़ों में बसे जमालीपुरा गाँव की तरफ़ निकल पड़े—मैं, मेरी पत्नी निशिका और दो बच्चे, आठ साल का आरव और पाँच साल की मायरा। रास्ता लंबा था, हवा ठंडी, और मन अजीब-सा भारी।
निशिका शादी से पहले कई साल ब्रिटेन में रह चुकी थी, इसलिए उसके लिए भारत के किसी पहाड़ी गाँव का सफ़र एक रोमांचक अनुभव जैसा था। वह और बच्चे पूरे रास्ते घाटियों और झरनों को देखकर उत्साहित थे, जबकि मैं मौसा जी के घर की पुरानी यादों में डूबा हुआ था।
जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते गए, सड़कें सुनसान होने लगीं। पहाड़ों में अँधेरा जल्दी आता है; पाँच बजे के बाद धूप लगभग गायब हो गई। बच्चे पिछली सीट पर ऊबने लगे थे, और मुझे सिर में हल्का दर्द होने लगा था—शायद लगातार ड्राइव और तनाव के कारण।
करीब पाँच-साढ़े पाँच बजे सड़क के किनारे हमें लकड़ी की चार-पाँच छोटी दुकानों का एक क्लस्टर दिखा—एक चाय की दुकान, एक पान स्टॉल, और एक पुराना जनरल स्टोर जो दुकान से ज़्यादा किसी पुराने गोदाम जैसा लगता था। इन दुकानों के पीछे थोड़ी ढलान पर एक टूटा-फूटा बाथरूम था—दीवारों पर उखड़ा नीला रंग और टीन की चादर का आधा टेढ़ा दरवाज़ा।
बच्चे बिस्कुट और नमकीन खाकर बोर हो चुके थे, इसलिए मैंने सोचा कि थोड़ा ढंग का खाना खा लिया जाए। मैं कार रोककर चाय और पराँठे मँगवाने लगा। तभी आरव ने कहा कि उसे बाथरूम जाना है। मैंने उसे जाने दिया और दुकान वाले से एक और चाय मँगाई।
शायद दस-बारह सेकंड ही बीते होंगे कि वह अचानक चीखते हुए बाहर भागा और सीधा मेरी टाँगों से लिपट गया। मैं चौंक गया—पहले तो सोचा कि वह फिसल गया होगा या कोई कीड़ा होगा। मैंने उसे शांत करने की कोशिश की, पर उसका चेहरा बिल्कुल पीला पड़ चुका था और वह काँप रहा था।
वह हाँफते हुए बोला, “पापा… अंदर… कोई आदमी है… वो शीशे पर सर मार रहा था… बार-बार… और उसके मुँह से झाग निकल रहा था…”
उसके इन शब्दों ने मेरे भीतर एक अजीब-सा सन्नाटा भर दिया, लेकिन मेरी पहली प्रतिक्रिया वही थी जैसी किसी भी पिता की होती है—मैंने सोचा कि वह डर गया होगा, या शायद कोई नशे में होगा। बच्चों की कल्पना अक्सर बातें बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती है। यही मानकर मैंने उसे समझाया कि शायद कोई बीमार होगा, या उसे भ्रम हुआ होगा। एक पल के लिए मैं अंदर जाकर देखने ही वाला था, लेकिन तभी मैंने देखा कि निशिका घबरा गई थी और मायरा की आँखों में आँसू आ चुके थे।
मैंने फैसला किया—“लेट्स गेट आउट ऑफ़ हियर।”
हम जल्दी-जल्दी कार में बैठे। जैसे ही मैं गाड़ी बढ़ाने लगा, मेरी नज़र रियर-व्यू मिरर पर गई। वही टूटा हुआ बाथरूम… वही टेढ़ा दरवाज़ा… और वह दरवाज़ा अब बहुत धीरे-धीरे—मानो किसी के हाथों से—अंदर की तरफ़ खिंच रहा था।
उसके भीतर का अँधेरा भारी और गाढ़ा था, और एक पल के लिए मुझे साफ़ लगा कि वहाँ कोई आकृति खड़ी है। मैं घबरा गया और तुरंत मिरर से नज़र हटा ली। दिल थोड़े ज़ोर से धड़क रहा था। फिर खुद को समझाया—“हवा होगी। टीन के दरवाज़े ऐसे ही हिलते हैं।” मैंने अपनी ही बात पर भरोसा करने की कोशिश की और गाड़ी आगे बढ़ा दी।
लेकिन सच तो यह है कि उस जगह से दूर निकल आने के बाद भी कुछ देर तक मेरे दिमाग में आरव की वही चीख घूमती रही। उसकी आँखों का डर जैसे मेरे भीतर कहीं बैठ गया था। वह पहला संकेत था—जिसे हमने देखा भी, और नहीं भी। इंसान कभी-कभी अपने डर को खुद ही दबा देता है, क्योंकि सच को पहचान लेना अक्सर उसे नज़रअंदाज़ कर देने से ज़्यादा मुश्किल होता है।
हम उस क्लस्टर से निकलकर आगे बढ़ चुके थे। जमालीपुरा गाँव अब ज़्यादा दूर नहीं था। लेकिन रास्ते भर आरव की चीख, उसका चेहरा, और उस बाथरूम का अँधेरा—सब मेरे दिमाग में बार-बार घूम रहे थे। मन एक अजीब-सी बेचैनी से भरा हुआ था।
गाड़ी एक मोड़ पर आई तो मैंने ब्रेक लगाया। निशिका ने पूछा भी नहीं—वह समझ चुकी थी कि मैं कुछ सोच रहा हूँ। बच्चे पिछली सीट पर थककर सो गए थे।
मैं धीरे से बाहर निकला और कार के पीछे गया। डिक्की खोली।
अंदर एक काला, चौकोर, सर्विस किट जैसा बक्सा रखा था—सीक्रेट सर्विस वालों के लिए मानक आपातकालीन किट। मैंने उसे ऊपर खींचकर खोला।
भीतर, ऊपर की परत में मेरी सर्विस हैंडगन चमक रही थी—मॉडल वही जो मुझे ऑपरेशन ड्यूटी के साथ जारी किया गया था। किसी भी ट्रिप पर मेरी सर्विस-गन साथ रहती थी—डिपार्टमेंट का अनिवार्य आदेश था। सामान्य यात्राओं में भी हथियार साथ रखना पड़ता था।
मैंने गन को सावधानी से निकाला, कंधे वाला स्ट्रैप लगाया और अपने दाहिने कंधे पर ठीक किया। फिर ऊपर से अपना कोट निकाला और पहन लिया ताकि स्ट्रैप और हथियार आसानी से न दिखें।
अनजानी जगह। अजीब घटना। मेरी बरसों की ट्रेनिंग ने मुझे अलर्ट कर दिया था।
मैंने डिक्की बंद की, एक बार आस-पास नज़र दौड़ाई—कुछ नहीं, सिर्फ़ हवा में हल्की ठंडक और पेड़ों की ख़ामोशी।
फिर वापस ड्राइवर सीट पर बैठा और इंजन स्टार्ट किया।
कोट के भीतर हथियार की ठंडी धातु मेरी पसलियों से छू रही थी। और मुझे उससे एक अनकही तसल्ली मिल रही थी।
हम धीरे-धीरे पहाड़ी रास्ते पर गाँव की ओर बढ़े। पर असली कहानी… अभी शुरू भी नहीं हुई थी।