दुकानों के उस क्लस्टर को पीछे छोड़ हम पहाड़ की और गहरी चढ़ाई में बढ़ते गए। सड़क सँकरी और पेड़ घने होते जा रहे थे। हवा में एक अजीब-सी ठंडक थी—ऐसी जो मौसम से नहीं, किसी अनजानी बेचैनी से आती हो। आरव और मायरा खिड़की से बाहर झाँक रहे थे, लेकिन मेरे मन में अब भी बाथरूम वाला दृश्य घूम रहा था।
करीब आधे घंटे बाद जमालीपुरा गाँव दिखाई दिया। पहाड़ी गाँवों में अक्सर थोड़ा-बहुत जीवन दिख ही जाता है—बच्चे खेलते हुए, कोई बुज़ुर्ग दहलीज़ पर, कहीं चूल्हे का धुआँ। लेकिन यहाँ… कुछ नहीं। बहुत से घर बंद थे, कुछ पर पुराने ताले लगे हुए, और कुछ के दरवाज़े ऐसे भींचकर बंद थे जैसे अंदर के लोग अंधेरा होते ही खुद को दुनिया से काट लेते हों। एक-दो खिड़कियों में हलचल दिखती, पर कोई पर्दा तुरंत खिसक जाता।
पहली नज़र में ही लगा—इस गाँव में कोई सामान्य शांति नहीं है। यहाँ कुछ और है।
मौसा जी का घर गाँव के बीच की ओर था। गाड़ी रोकी तो बाहर कुछ गाँववाले खड़े मिले—पर सबके चेहरों पर वही खिंचा हुआ भाव, जैसे सब किसी चीज़ से थके हुए हों, या किसी डर से चुप।
मैं उतर ही रहा था कि मंदिर के पुजारी तेज़ कदमों से मेरी ओर आए। उम्र लगभग साठ, चेहरा इतना थका हुआ कि लगता था कई रातों से नींद न आई हो। उन्होंने मुझे देखते ही कहा, “बहुत देर कर दी बेटा, हमें क्रियाकर्म करने पड़े।”
मैं सन्न रह गया। “पर हम तो तुरंत निकल पड़े थे… दाह-संस्कार कब हुआ?”
उन्होंने नज़रें झुका लीं। “सुबह ही। इस गाँव में लाश देर तक नहीं रखी जाती।”
उनकी आवाज़ में दुःख से ज़्यादा डर था—और वो डर ऐसा कि उसकी वजह साफ़ नहीं थी, पर मौजूद ज़रूर थी।
मैं अंदर पहुँचा। मौसी पलंग पर बैठी थीं—सूजी हुई आँखें, थकी हुई मुद्रा। मुझे देखते ही रो पड़ीं, पर रोने में भी अजीब-सी घबराहट थी—मानो कुछ ऐसा हो जिसे बताना चाहकर भी बता न पा रही हों। उन्होंने बस इतना कहा कि मौसा जी पिछले कुछ दिनों से “थोड़े अस्वस्थ” थे—सिरदर्द, तेज़ बुखार, फिर अचानक साँस रुकना। बात पूरी तरह साफ़ नहीं थी।
अंतिम संस्कार की बची हुई रस्में दोपहर तक निपट गईं। लोग आते-जाते रहे, पर सबमें वही जल्दबाज़ी—जैसे कोई समय सीमा हो, जिसके भीतर घर पहुँचना ज़रूरी हो। सूरज ढलने लगा तो गाँव का माहौल और तेज़ी से बदलने लगा। खिड़कियाँ बंद होने लगीं, दरवाज़ों पर ताले चढ़ने लगे, और दूर कहीं किसी कुत्ते की आवाज़ घबराई हुई-सी सुनाई दी।
मैंने बातों-बातों में नोटिस किया कि अंधेरा बढ़ने पर लोग न सिर्फ़ घर जा रहे थे—बल्कि घर बंद कर रहे थे। भीतर से। जल्दी-जल्दी।
मौसी ने आग्रह किया कि हम रात यहीं रहें। शहर इतनी दूर था कि लौटने का सवाल ही नहीं था। भोजन हल्का था और जल्दी निपट गया। उसके बाद मैं पास के शिवालय के टैंकी-घाट पर गया और स्नान किया—ठंडा पानी था, लेकिन मन थोड़ी देर को शांत हुआ।
जब वापस लौटा तो रात पूरी तरह उतर चुकी थी। जमालीपुरा अंधेरे में ऐसा लगता था मानो साँस रोके पड़ा हो। हवा चल रही थी, पर घरों के बीच कोई हरकत नहीं—कोई आवाज़ नहीं।
हम जिस कमरे में रुके थे वह छोटा था, और उसमें एक बड़ा-सा बिस्तर रखा था। आरव और मायरा गहरी थकान में सो गए। निशिका मेरे पास लेटी और धीमी आवाज़ में बोली, “हम वापस कब जाएंगे? मैं काफी एक्साइटेड थी… पर अब यहाँ अजीब-सा लग रहा है।”
मैं उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, “मौसी को एक-दो दिन का साथ देना होगा। फिर निकल चलेंगे। चिंता मत करो।”
निशिका ने करवट बदली और धीमे से शिकायत की, “मेरी ये नाइटी भी तंग हो रही है… दम-सा घुट रहा है इसमें।”
मैं मुस्कुराया। “तो उतार दो, ऐसे ही सो जाओ। आराम मिलेगा।”
मैंने उसके स्ट्रैप में उँगली फिराई।
उसने चपत लगाई। “हट बदमाश।”
मैं हँस पड़ा—धीमे, ताकि बच्चे न जागें।
निशिका भी अनायास मुस्कुरा दी। एक पल को उसके चेहरे से डर हट गया और आँखों में हल्की-सी शरारत लौट आई। अगर यह हमारे घर का बैडरूम होता, तो अगला एक घंटा शायद कुछ और तरह बीतता। पर वह मेरी तरफ़ पीठ करके लेट गई।
“सो जाओ, मिस्टर सीक्रेट एजेंट,” उसने आँखें बंद करते हुए कहा।
वो दिन बहुत भारी था—मौत, गाँव का अनजाना माहौल, और रास्ते की बेचैनी। लेकिन यह छोटी-सी मस्ती… यह मज़ाक ज़रूरी था। बीवी और बच्चों के मन में डर टिकने न पाए—यही कोशिश थी मेरी।
कुछ ही देर में निशिका हल्के खर्राटे लेने लगी।
मैं अँधेरे में लेटा रहा—आँखें खुलीं, मन बेचैन।
छत के ऊपर कहीं हल्की-हल्की खरोंच जैसी आवाज़ आ रही थी। शायद कोई टहनी हवा में घिस रही होगी। बाहर दूर कहीं कुत्ता भौंका—एक बार, फिर अचानक चुप।
कभी-कभी लगता जैसे किसी के कदम बहुत धीरे से पत्तों पर पड़ रहे हों। शायद भ्रम था… पर शायद नहीं भी।
मैंने खिड़की की कुंडी एक बार फिर जाँची और बच्चों को देखा—उनकी साँसें शांत थीं, मासूम। कमरे की हवा भारी थी, और मेरे भीतर एक अजीब बेचैनी गहराती जा रही थी।
जमालीपुरा का माहौल, मौसा जी की अचानक हुई मौत, गाँववालों की घबराहट—यह सब बहुत असामान्य था। तभी एक ख़याल मेरे मन में कौंधा।
मैंने अपना सर्विस फ़ोन निकाला—वही वाला, जो सिर्फ़ विभाग का सुरक्षित नेटवर्क पकड़ता है। धीमी रोशनी में अंगूठे से टाइप किया:
“तारा, जमालीपुरा गाँव पर कोई फाइल, रिपोर्ट, या पुराना केस हो तो मुझे भेज देना।
किसी भी अनयूज़ुअल एक्टिविटी या फील्ड-इंटेल का ज़िक्र हो तो तुरंत बताना।
थोड़ा अर्जेंट है।
—रंजीत”
तारा—मेरे विभाग की सबसे तेज़ दिमाग वाली रिसर्चर। अगर कहीं भी कोई पुरानी या दबी हुई जानकारी थी… वह ढूँढ लेती थी।
मैंने संदेश भेजा, फोन साइलेंट किया और तकिए के पास रख दिया। कमरे का अंधेरा अब पूरी तरह घिर चुका था।
निशिका गहरी नींद में थी। बच्चों की साँसें स्थिर थीं। लेकिन मेरे भीतर एक अनकहा-सा तनाव जम गया था—कुछ ऐसा, जो रात के सन्नाटे में धीरे-धीरे आकार ले रहा था।
कब आँख लगी, पता ही नहीं चला। और अगले दिन जो होने वाला था… उसके लिए हम बिलकुल तैयार नहीं थे।