सपना हुआ सच
लेखक: विजय शर्मा एरी
भाग १: गाँव की मिट्टी में बस्ता सपना
राधेश्याम का घर गाँव के आखिरी छोर पर था। लाल मिट्टी की दीवारें, खपरैल की छत, और दरवाजे पर लटकता पुराना ताला—जो सालों से खुलता ही नहीं था। राधेश्याम चौदह साल का था, लेकिन उसकी आँखों में सौ साल की थकान थी।
हर सुबह वह अपने पिता के साथ खेत जाता। पिता की पीठ पर हल की रस्सी, राधेश्याम के कंधे पर पानी की मटकी। खेत में धान की पौध बोते हुए पिता कहते, “बेटा, यही हमारी जिंदगी है। मिट्टी से निकले, मिट्टी में मिल जाएँगे।”
पर राधेश्याम की आँखें खेत के उस पार देखती थीं—जहाँ शहर की बसें धूल उड़ाती हुई निकलती थीं। वह सोचता, “क्या मैं भी कभी बस में बैठकर शहर जाऊँगा? क्या मैं भी कभी स्कूल की वर्दी पहनूँगा?”
स्कूल? गाँव में सिर्फ़ पाँचवीं तक की पढ़ाई थी। उससे आगे का रास्ता बंद था। किताबें पुरानी, दीवारें टूटती हुईं, और शिक्षक—जो महीने में दो बार आते। राधेश्याम की माँ कहती, “पढ़ाई से क्या होगा? खेत जोतना सीख ले, यही तेरी विरासत है।”
पर राधेश्याम की जेब में एक पुरानी डायरी थी। उसमें वह रोज़ लिखता—
“मैं इंजीनियर बनूँगा। पुल बनाऊँगा। गाँव को शहर से जोड़ूँगा।”
हर रात वह डायरी को तकिए के नीचे रखकर सोता। सपने में वह खुद को सफेद कोट में, हेलमेट लगाए, बड़े-बड़े क्रेन के बीच देखता।
भाग २: टूटते सपने
एक दिन बारिश ने सब कुछ बदल दिया।
गाँव में बाढ़ आ गई। खेत डूब गए। घर की छत टपकने लगी। पिता की कमर में दर्द हो गया। अब खेत पर जाना मुश्किल था। राधेश्याम को शहर भेजने का फैसला हुआ।
“चाचा के यहाँ रहकर मजदूरी कर। पैसे भेजा कर।” माँ ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
राधेश्याम ने डायरी को माँ के हाथ में थमाया। “इसे संभालकर रखना। मैं लौटकर इसे पूरा करूँगा।”
शहर में चाचा का घर नहीं, एक झोपड़ी थी। चाचा ने कहा, “यहाँ पढ़ाई का चक्कर मत कर। होटल में बर्तन धो, दस रुपये रोज़ मिलेंगे।”
राधेश्याम ने बर्तन धोए। सुबह छह बजे से रात दस बजे तक। हाथों में छाले, आँखों में नींद। पर रात को वह छत पर चढ़कर डायरी खोलता और लिखता—
“आज मैंने १२ घंटे काम किया। पर मैं हारा नहीं।”
भाग ३: एक किरण
एक दिन होटल में एक साहब आए। सफेद शर्ट, चमकता चश्मा। उन्होंने राधेश्याम को बर्तन धोते देखा। पूछा, “नाम क्या है तेरा?”
“राधेश्याम।”
“पढ़ते हो?”
“पाँचवीं तक।”
साहब ने जेब से एक पर्ची निकाली। “यह मेरा कार्ड है। मेरी फैक्ट्री में नाइट स्कूल है। अगर पढ़ना चाहते हो, तो आ जाना।”
राधेश्याम की आँखें चमक उठीं। उस रात उसने डायरी में लिखा—
“सपना फिर जिंदा हुआ।”
भाग ४: नाइट स्कूल की जंग
नाइट स्कूल में ५० बच्चे थे। सब मजदूर। सब थके हुए। पर सबके पास एक सपना था।
राधेश्याम दिन में होटल में काम करता, रात में पढ़ता। नींद पूरी नहीं होती थी, पर किताबें उसकी दोस्त बन गईं।
पहला साल: छठवीं पास।
दूसरा साल: सातवीं।
तीसरा साल: आठवीं।
हर बार वह गाँव जाता। माँ को पैसे देता। डायरी दिखाता। माँ मुस्कुराती, “बेटा, तू बड़ा आदमी बनेगा।”
भाग ५: दसवीं का इम्तिहान
दसवीं का रिजल्ट आया। राधेश्याम ने ८५% marks लाए। गाँव में हलचल मच गई।
“अरे, राधेश्याम ने तो कमाल कर दिया!”
पर आगे का रास्ता? कॉलेज के लिए पैसे कहाँ से?
तब साहब (जिन्होंने कार्ड दिया था) फिर आए। “मैंने तेरी मेहनत देखी है। मेरी कंपनी में इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग है। फ्री। बस मेहनत करनी होगी।”
राधेश्याम की आँखों में आँसू आ गए। उसने डायरी खोली और लिखा—
“सपना अब हाथ में है।”
भाग ६: इंजीनियर राधेश्याम
तीन साल की ट्रेनिंग। दिन में काम, रात में पढ़ाई। अंत में डिप्लोमा।
फिर पहली नौकरी। साइट इंजीनियर। पहला प्रोजेक्ट—गाँव को शहर से जोड़ने वाला पुल।
राधेश्याम ने खुद डिजाइन बनाया। हर ईंट, हर सरिया, उसकी मेहनत की गवाही देता।
उद्घाटन का दिन। गाँव के सारे लोग इकट्ठा। रिबन काटा गया। बसें पुल पर दौड़ने लगीं।
राधेश्याम ने माइक थामा। उसकी आवाज काँप रही थी।
“यह पुल सिर्फ़ लोहे और सीमेंट का नहीं। यह मेरे सपने का है। मेरी माँ का, मेरे पिता का, मेरे गाँव का। आज मेरा सपना सच हुआ।”
भाग ७: घर की वापसी
शाम को वह अपने पुराने घर गया। माँ ने गले लगाया। पिता की आँखें नम थीं।
राधेश्याम ने डायरी माँ को दी। आखिरी पन्ने पर लिखा था—
“आज मैं इंजीनियर हूँ। पुल बनाया। गाँव को शहर से जोड़ा।
पर असली पुल तो मेरे अंदर था—विश्वास का। मेहनत का। सपने का।
और वह कभी नहीं टूटा।”
माँ ने डायरी को सीने से लगाया। बाहर पुल पर पहली बस गुजरी। उसकी आवाज गूँज रही थी—
सपना हुआ सच।
शब्द गणना: १५०२
(हिंदी में शब्द गणना थोड़ी भिन्न होती है, पर मूल भाव वही है।)
लेखक: विजय शर्मा एरी
(यह कहानी काल्पनिक है, पर लाखों बच्चों की सच्चाई पर आधारित।)