भारत की आज़ादी के बाद जब पूरा देश एकजुट हो रहा था, तब कुछ रियासतें ऐसी थीं जो भारत में शामिल नहीं होना चाहती थीं। उनमें सबसे बड़ी और जटिल रियासत थी हैदराबाद, जिसे निज़ाम मीर उस्मान अली खान शासित कर रहे थे। यह राज्य समृद्ध, शक्तिशाली और रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण था। लेकिन निज़ाम का भारत में विलय से इंकार देश की एकता के लिए गंभीर चुनौती बन गया। इसी संकट को सुलझाने के लिए भारतीय सेना ने 13 सितंबर 1948 को “ऑपरेशन पोलो” शुरू किया, जो केवल पाँच दिनों में समाप्त होकर हैदराबाद को भारत का हिस्सा बना गया।
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब देश में कुल 562 रियासतें थीं। ब्रिटिश राज के अंत के बाद इन सभी रियासतों को या तो भारत या पाकिस्तान में शामिल होना था। ज्यादातर रियासतों ने सहज रूप से भारत में विलय स्वीकार किया, लेकिन हैदराबाद, जो लगभग 82,000 वर्ग मील में फैला था और जिसकी जनसंख्या 1.6 करोड़ से अधिक थी, ने अलग राह चुनी। निज़ाम उस्मान अली खान दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक थे। वे स्वयं को एक स्वतंत्र शासक मानते थे और भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय ‘स्वतंत्र राष्ट्र’ बने रहने का सपना देख रहे थे। हैदराबाद में मुसलमान शासक वर्ग में थे, जबकि लगभग 85% जनता हिंदू थी। यह असंतुलन राजनीतिक और सामाजिक तनाव को बढ़ा रहा था।
निज़ाम के चारों ओर कुछ कठोर विचारों वाले सलाहकार थे, जिनमें सबसे प्रभावशाली था कासिम रज़वी, जो “मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन” नामक संगठन का नेता था। रज़वी ने ‘रज़ाकार’ नाम की एक सशस्त्र मिलिशिया बनाई, जिसने हैदराबाद राज्य में आतंक मचा दिया। रज़ाकार हिंदू जनता पर अत्याचार करने लगे, गांवों को लूटा गया और बड़े पैमाने पर धार्मिक हिंसा फैली। इस हिंसा ने हैदराबाद को आग की लपटों में झोंक दिया। भारत सरकार लगातार निज़ाम से शांतिपूर्ण समाधान की कोशिश करती रही, लेकिन रज़वी और रज़ाकारों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि निज़ाम सरकार असहाय हो गई।
भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल देश की एकता के लिए दृढ़ थे। उन्होंने जूनागढ़, भोपाल और अन्य रियासतों को शांतिपूर्वक भारत में मिलाया, लेकिन हैदराबाद की स्थिति अलग थी। भारत सरकार ने निज़ाम से कई बार बातचीत की। 29 नवंबर 1947 को ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ हुआ, जिसके तहत हैदराबाद और भारत के बीच मौजूदा संबंध कायम रखने की बात तय हुई। लेकिन इसके बावजूद रज़ाकारों की हिंसा नहीं रुकी। दूसरी तरफ, हैदराबाद पाकिस्तान से भी गुप्त संपर्क में था—उसने ब्रिटिशों से हथियार खरीदने और संयुक्त राष्ट्र तक मुद्दा ले जाने की कोशिश की। इससे भारत को और चिंता हुई।
जब हैदराबाद की स्थिति लगातार बिगड़ती गई, तो आखिरकार सरदार पटेल ने निर्णय लिया कि अब सैन्य कार्रवाई के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा है। 13 सितंबर 1948 की सुबह भारतीय सेना ने “ऑपरेशन पोलो” शुरू किया। इसे “पुलिस एक्शन” का नाम दिया गया ताकि इसे युद्ध न कहा जाए। ऑपरेशन का नेतृत्व मेजर जनरल जे. एन. चौधरी ने किया। भारतीय सेना ने चार दिशाओं से हैदराबाद की ओर बढ़ना शुरू किया—पुणे, सोलापुर, विजयवाड़ा और औरंगाबाद से। सेना के साथ वायुसेना ने भी रज़ाकार ठिकानों पर बमबारी की।
भारतीय सेना ने केवल पाँच दिनों में हैदराबाद की सेनाओं और रज़ाकारों को परास्त कर दिया। 18 सितंबर 1948 को निज़ाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और अगले दिन हैदराबाद पूरी तरह भारत में शामिल हो गया। इस युद्ध में लगभग 800 से अधिक लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। रज़ाकारों का संगठन पूरी तरह खत्म कर दिया गया। निज़ाम को भारत सरकार ने सांकेतिक रूप से “राजप्रमुख” बनाए रखा ताकि विलय शांति से हो सके।
18 सितंबर 1948 को हैदराबाद आधिकारिक रूप से भारतीय संघ का हिस्सा बना। यह घटना भारत की एकता के लिए ऐतिहासिक थी। इससे न केवल दक्षिण भारत में स्थिरता आई, बल्कि भारत ने यह संदेश भी दिया कि वह अपनी संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेगा। निज़ाम बाद में भारतीय राजनीति में शामिल हुए और उन्हें भारत सरकार ने कई विशेषाधिकार दिए। उनके शासन की कुछ विरासतें, जैसे हैदराबाद की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, आज भी जीवित हैं।
हालाँकि ऑपरेशन पोलो सफल रहा, लेकिन इसके बाद मानवाधिकार उल्लंघन और धार्मिक हिंसा की खबरें भी सामने आईं। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि युद्ध के बाद हुई झड़पों में कई निर्दोष नागरिक मारे गए। भारत सरकार ने इस पर सुंदरलाल समिति बनाई, जिसने बाद में रिपोर्ट दी कि हिंसा दोनों पक्षों से हुई थी, परंतु इसका दोष पूरी तरह रज़ाकारों की अराजकता पर जाता है।
हैदराबाद के भारत में शामिल होने से दक्षिण भारत में राजनीतिक स्थिरता आई। तेलंगाना, मराठवाड़ा और कर्नाटक के कई हिस्से धीरे-धीरे भारतीय प्रशासनिक ढांचे में समाहित हो गए। इससे भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को भी नया आकार मिला। आज का हैदराबाद भारत के तकनीकी और औद्योगिक केंद्रों में से एक है। यह वही शहर है, जो कभी स्वतंत्र रियासत बनना चाहता था, पर आज भारत की एकता का प्रतीक बन चुका है।
ऑपरेशन पोलो केवल एक सैन्य अभियान नहीं था, यह भारत की राष्ट्रीय एकता का प्रतीक था। सरदार पटेल ने इसे शांतिपूर्ण लेकिन दृढ़ नीति से अंजाम दिया। उन्होंने यह साबित किया कि भारत केवल बातचीत से नहीं, बल्कि आवश्यक होने पर शक्ति के प्रयोग से भी अपनी सीमाओं की रक्षा कर सकता है। भारत के सैनिकों ने केवल पाँच दिनों में जो उपलब्धि हासिल की, वह इतिहास में अमर है। उनके साहस, अनुशासन और समर्पण ने भारत की भौगोलिक और राजनीतिक एकता को सुदृढ़ किया।
“ऑपरेशन पोलो” भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है जिसने दिखाया कि राष्ट्रीय एकता केवल आदर्शों से नहीं, बल्कि दृढ़ संकल्प और निर्णायक कार्रवाई से भी बनती है। अगर उस समय भारत ने संकोच दिखाया होता, तो हैदराबाद शायद एक अलग राष्ट्र बन जाता, जिससे दक्षिण भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और एकता पर गंभीर खतरा होता। सरदार पटेल और भारतीय सेना की इस निर्णायक कार्रवाई ने न केवल हैदराबाद को आज़ाद किया, बल्कि भारत को मजबूत और अखंड बनाया। आज जब हम भारत की सीमाओं और एकता की बात करते हैं, तो ऑपरेशन पोलो का नाम सम्मान और गर्व से लिया जाता है।
यह अभियान हमें यह सिखाता है कि देश की एकता और शांति केवल बातचीत से नहीं, बल्कि सही समय पर दृढ़ कदम उठाने से भी कायम रहती है। भारत की आज़ादी केवल 15 अगस्त 1947 को नहीं मिली थी, वह 18 सितंबर 1948 को हैदराबाद के विलय के साथ सच्चे अर्थों में पूर्ण हुई।