दर्पण भाग 4
लेखक राज फुलोरे
रात की खामोशी में हवेली के पीछे एक तूफ़ान उठ रहा था।
संग्राम को आखिर पता चल गया था कि जो कुछ भी गाँव में हो रहा है — उसके पीछे सिर्फ एक ही आदमी है:
हरिओम ठाकुर।
और उसी रात संग्राम को अनामिका ने बुलाया।
वह पुरानी बंसी वाले पीपल के पेड़ के नीचे खड़ी थी।
चेहरा शांत, पर आँखों में सदियों का दर्द।
“संग्राम… आज सब खत्म होगा,”
उसने धीमे से कहा।
संग्राम ने पूछा,
“तुम सच में कौन हो, अनामिका?”
कुछ पल खामोशी रही…
फिर उसने सिर झुका दिया।
“मैं वही हूँ… जिसे ठाकुर ने मारकर आत्मा बना दिया।
मैं न जी पाई… न मर पाई।”
संग्राम का दिल सन्न रह गया।
अनामिका आगे बोली—
“मेरा श्राप तभी टूट सकता है जब
जिसने मुझे मारा… वह अपनी मौत पाए।
और वो है — हरिओम ठाकुर।”
संग्राम ने उसकी ओर देखा।
आज पहली बार वह समझ पाया कि अनामिका सिर्फ एक भटका हुआ साया नहीं…
बल्कि अन्याय का परिणाम थी।
उसने दृढ़ आवाज़ में कहा—
“चलो। आज ठाकुर का खेल खत्म होगा।”
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⭐ हवेली की ओर आखिरी सफर
हवेली दूर से ही अजीब-सा डर पैदा कर रही थी।
दीवारों पर परछाइयाँ घूम रही थीं, और अंदर से किसी के रोने की आवाज़ें आ रही थीं।
जैसे ही दोनों अंदर पहुँचे—
हरिओम ठाकुर उनके सामने पहले से मौजूद था।
उसके चेहरे पर वह पुरानी शैतान हँसी नहीं थी।
बल्कि डर।
“तुम दोनों… एक साथ?”
उसने काँपती आवाज़ में कहा।
अनामिका आगे बढ़ी।
उसकी आँखें लाल आग की तरह चमक उठीं।
“तूने मुझे मारा था हरिओम…
आज मेरी चुप्पी खत्म है।”
ठाकुर पीछे हट गया।
उसने मंत्र पढ़ने शुरू किए, पर उसकी आवाज़ काँप रही थी।
संग्राम ने तलवार निकाल ली।
“अब तेरा कोई मंत्र नहीं बचेगा, ठाकुर!”
ठाकुर चिल्लाया—
“तुम नहीं जानते मैं कौन हूँ!
मैंने इन जंगलों की आत्माओं को बाँध रखा है!
वे मेरी रक्षा करेंगी!”
लेकिन…
उस पल कुछ हुआ जिसकी ठाकुर ने कभी कल्पना नहीं की थी।
चारों तरफ घूमती परछाइयाँ —
एक-एक कर गायब होने लगीं।
क्यों?
क्योंकि वे सब उसी से बँधी थीं जिसने उन्हें दुख दिया था।
और आज पहली बार, उस आदमी पर ही खतरा था।
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⭐ अंतिम संघर्ष
ठाकुर भागने लगा।
पर हवेली का मुख्य दरवाज़ा खुद-ब-खुद बंद हो गया।
अनामिका दीवारों से होते हुए उसके सामने खड़ी हो गई।
संग्राम ने गरजकर कहा—
“भाग कहाँ रहा है? अपने पापों का हिसाब दे!”
ठाकुर ने काँपते हाथों से चाकू निकाला —
पर इस बार संग्राम तैयार था।
उसने ठोकर मारी, चाकू दूर गिर गया।
अनामिका की आवाज़ गूँजी—
“जिस दर्द से तुमने मेरी जान ली…
आज वही दर्द तुम्हें लौटेगा।”
ठाकुर घुटनों पर गिर पड़ा।
“नहीं… नहीं अनामिका… मुझे माफ़ कर दो!
मैंने गलती की… मुझे मत मारो!”
अनामिका के चेहरे पर शांति आ गई।
“मैं बदले के लिए नहीं आई…
मैं तो बस मुक्त होना चाहती हूँ।”
उसने हाथ बढ़ाया।
ठाकुर की छाती पर हाथ रखा।
और उसी क्षण —
हवेली की सारी रोशनी बुझ गई।
एक तेज़ चीख…
एक पल का अंधेरा…
और हरिओम ठाकुर वहीं ढेर हो गया।
निशब्द।
निस्तब्ध।
सदा के लिए खत्म।
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⭐ अनामिका का मुक्त होना
ठाकुर की मौत के साथ हवेली में अजीब-सी शांति फैल गई।
जैसे सदियों की कैद मिट गई हो।
अनामिका धीरे-धीरे संग्राम की ओर मुड़ी।
उसका चेहरा अब डरावना नहीं…
बल्कि एक शांत, सुंदर, हल्का-सा मुस्कुराता चेहरा था।
“धन्यवाद संग्राम…
तुमने मुझे वो दिया…
जो मैंने वर्षों से माँगा था —
मुक्ति।”
उसके शरीर से सफेद रोशनी उठने लगी।
धीरे-धीरे उसका रूप धुंध बनकर ऊपर उठने लगा।
संग्राम ने धीमे से कहा—
“अनामिका… अब तुम शांति से जाओ।”
अनामिका की अंतिम आवाज़ हवेली में गूँजी—
“अब गाँव में कोई श्राप नहीं रहेगा…
कहानी खत्म नहीं… अब शुरू होगी लोगों की नई ज़िंदगी।”
और वह आकाश में खो गई।
सदैव के लिए मुक्त।