⭐दर्पण भाग 3
लेखक राज फुलवरे
न्याय हो चुका था।
संकल्पना जेल में थी।
कल्पना को मोक्ष मिल चुका था।
पर संग्राम की कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती—
क्योंकि कुछ आत्माएँ शांति की नहीं…
बल्कि बचाई जाने की पुकार करती हैं।
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एक. संग्राम की नई रात — फिर से लौटती धड़कनें
फैसले वाली रात संग्राम अपने कमरे में अकेला बैठा था।
खिड़की आधी खुली थी, हवा कमरे में हल्की सरसराहट भर रही थी।
पर उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी थी।
अचानक…
कार के मिरर पर हल्की धुंध उभरने लगी।
संग्राम चौककर खड़ा हो गया।
उसने धीरे से कहा—
संग्राम:
“कल्पना…? क्या तुम हो?”
लेकिन मिरर में उठता धुआँ कल्पना का नहीं था।
इस बार उस धुंध में एक नया चेहरा उभर रहा था—
आँखें डरी हुई…
होंठ काँपते हुए…
और चेहरा बुरी तरह जला हुआ।
संग्राम के मुँह से निकला—
“ये कौन…?”
मिरर में आवाज गूँजी—
कमज़ोर, टूटी, दर्द में डूबी—
“म… मुझे… बचा लो…”
संग्राम का दिल धड़क उठा।
ये कोई दूसरी आत्मा थी।
कोई नया दर्द।
कोई अधूरा सच।
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दो. पुलिस स्टेशन की रात — एक अनजान सच्चाई
संग्राम, SHO अर्जुन के पास पहुँचा।
संग्राम:
“सर, एक बात कहूँ? ये मामला खत्म नहीं हुआ।
एक और आत्मा… एक और आवाज़…”
अर्जुन ने गहरी नज़र से संग्राम को देखा।
SHO अर्जुन:
“संग्राम… कुछ बताना चाहता हूँ।
कल्पना का केस जितना हमने जाना…
उससे कहीं बड़ा है।”
संग्राम सन्न रह गया।
संग्राम:
“मतलब…?”
अर्जुन ने फाइल खोली।
उसमें तीन पुरानी केस की तस्वीरें थीं—
सड़क हादसे, कार जलना, और लापता युवतियाँ।
अर्जुन:
“ये तीनों लड़कियाँ रहस्यमय हालात में मरीं…
बिल्कुल कल्पना की तरह।
और सबसे अजीब बात—
सबमें एक ही मॉडल की पुरानी कार इस्तेमाल हुई थी।”
संग्राम के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
संग्राम:
“मतलब… मेरी कार…?”
अर्जुन धीरे से बोला—
“तुम्हारी कार… उन लड़कियों की आख़िरी मंज़िल थी।”
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तीन. मिरर में नया चेहरा — और एक नई कथा शुरू
रात में संग्राम कार में बैठा।
धड़कनें तेज़। हाथ काँपते हुए।
मिरर में धुंध फिर फैली।
इस बार वो चेहरा और स्पष्ट दिखा।
जले हुए गाल। आँखों से बहता डर।
पर अब आवाज़ साफ़ थी—
“मेरा नाम… अनामिका…”
संग्राम ने साँस रोक ली।
संग्राम:
“तुम्हारे साथ क्या हुआ?”
अनामिका की आँखों में दहशत थी।
अनामिका:
“मुझे किसी ने… कार के अंदर बंद कर दिया था…
और… आग…”
उसकी आवाज़ चीख में बदल गई—
“मैं मरना नहीं चाहती थी… बचा लो…”
संग्राम की आँखे भर आईं।
संग्राम:
“किसने… किसने किया ये सब?”
अनामिका की सांसें भारी हुईं।
और उसने एक नाम लिया—
“संकल्पना नहीं…
उसके पीछे कोई और था…”
संग्राम दंग रह गया।
“कौन…?”
अनामिका की आवाज़ काँपी—
“वो… जिसने तुम्हें ये कार बेची…”
संग्राम का पूरा शरीर सन्न पड़ गया।
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चार. कार बेचने वाला — वो शख्स जो परछाइयों में छिपा था
अगली सुबह संग्राम उसी ऑटो गेराज गया
जहाँ से उसने कार खरीदी थी।
मालिक, मोहनलाल, पान खा रहा था।
संग्राम:
“इस कार का असली मालिक कौन था?”
मोहनलाल का चेहरा अचानक सफेद पड़ गया।
मोहनलाल:
“मैं… मैं क्या जानूँ?”
संग्राम ने मिरर की तरफ देखा।
धुँध बनी।
अनामिका का चेहरा उभरा।
उसने मिरर से फुसफुसाया—
“यही है… इसने… सब देखा था…”
संग्राम गरजा—
“सच बोल, नहीं तो पुलिस बुलाता हूँ!”
मोहनलाल काँपने लगा।
मोहनलाल:
“साहब… मैं सिर्फ दलाल था…
असल कार मालिक… बहुत बड़ा आदमी है।
पैसे… पावर… सब उसके पास…”
संग्राम—
“नाम बोल!”
मोहनलाल के होंठ काँपे—
“हरिओम ठाकुर…”
संग्राम चौंका।
हरिओम ठाकुर—
शहर का रसूखदार व्यापारी…
जिसके आगे पुलिस भी चुप हो जाती थी।
अनामिका की आवाज़ फिर आई—
“मेरी मौत… उसी के हाथों हुई थी…”
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पाँच. संग्राम की नई लड़ाई — सच का सबसे डरावना चेहरा
संग्राम कार में बैठा।
हाथ स्टीयरिंग पर काँप रहे थे।
अनामिका ने कहा—
“संग्राम…
कल्पना को मोक्ष मिला…
अब मेरी बारी है…”
संग्राम ने खुद से वादा किया—
“चाहे हरिओम ठाकुर शहर का सबसे ताकतवर आदमी हो…
मैं उसके गुनाह सामने लाकर रहूँगा।”
मिरर धीमे से चमका,
और अनामिका का चेहरा शांत होता गया।
कहानी अब नए मोड़ पर थी—
जहाँ सच और भी अँधेरा था,
और संग्राम की राह और भी खतरनाक।