दर्पण भाग 2
लेखक राज फुलवरे
कल्पना की अधूरी कहानी
हवा का झोंका मेरी गर्दन को छूकर जैसे भीतर तक उतर गया था।
रियर-व्यू मिरर में कल्पना का चेहरा साफ दिख रहा था—
पीला, उदास, और गहरे दर्द से भरा।
गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी थी।
मंदिर के घंटों की आवाज़ हवा के शोर में घुलती जा रही थी।
मेरी साँसें भारी थीं, और दिल बेकाबू धड़क रहा था।
मैंने हिम्मत जुटाकर पूछा—
संग्राम:
“कल्पना… तुम कौन हो? ये सब मुझे ही क्यों दिख रहा है?”
कल्पना की आँखें नम हो गईं।
उसने धीरे से कहा—
कल्पना:
“क्योंकि… सिर्फ तू ही है जो मुझे देख सकता है।
और सिर्फ तू ही है… जो मुझे न्याय दिला सकता है।”
मेरी उँगलियाँ स्टीयरिंग पर कस गईं।
संग्राम:
“न्याय? किस बात का न्याय?”
कल्पना ने गहरी साँस ली।
उसकी आवाज़ दर्द से काँप रही थी—
कल्पना:
“मेरी मौत… कोई हादसा नहीं था, संग्राम।
मुझे मारा गया था।”
मेरी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई।
---
1. संकल्पना — वह जुड़वा, जिसने मौत लिखी
कल्पना ने कहानी शुरू की।
उसकी आवाज़ टूटती-सी, और हवा में तैरती हुई लग रही थी।
कल्पना:
“मेरी एक जुड़वा बहन थी… संकल्पना।
दिखने में बिल्कुल मेरी जैसी… पर दिल से बिल्कुल उलट।
उसे सिर्फ एक चीज़ चाहिए थी—हमारी जायदाद।
और उसे पाने के लिए… वह कुछ भी कर सकती थी।”
मैंने धीमे से पूछा—
संग्राम:
“क्या तुम्हें पहले से पता था कि वो तुम्हें मारना चाहती है?”
कल्पना हँसी…
एक दर्द भरी, खोखली हँसी।
कल्पना:
“हां… शक था।
पर सोचा नहीं था कि वो इतना गिर जाएगी।”
उसकी आँखें लाल हो गईं।
मिरर में धुआँ-सा उभर रहा था, जैसे वो पिछले दृश्य दिखाने वाली हो।
---
2. मंदिर वाला दिन — जहाँ मौत इंतज़ार कर रही थी
कल्पना:
“उस रोज़ संकल्पना ने कहा—
‘चल, आज महादेव मंदिर चलते हैं। मन हल्का होगा।’
मैंने समझा… बहन है, साथ चलना चाहिए।
लेकिन मैं नहीं जानती थी… कि वही मेरी आखिरी यात्रा होगी।”
मैं मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था।
कल्पना बोल रही थी, और उसकी आवाज़ में अतीत का पूरा दर्द सुनाई दे रहा था।
कल्पना:
“हम सड़क क्रॉस ही कर रहे थे कि एक तेज़ रफ्तार ट्रक हमारी ओर आता दिखा…”
मैंने हाँफते हुए पूछा—
संग्राम:
“और?”
कल्पना की आँखें डरी हुई बच्ची जैसी लग रही थीं।
कल्पना:
“और… संकल्पना ने… मुझे धक्का दे दिया।
ट्रक मेरी तरफ… पूरी रफ्तार से…”
अचानक कल्पना की आवाज़ रुकी।
मिरर हिलने लगा।
उसकी साँसें भारी हो गईं।
मेरी उँगलियाँ ठंडी पसीने से भीग गईं।
कल्पना:
“…और मैं सड़क पर गिर गई।
लोगों को लगे कि यह बस एक हादसा था।”
मैं दहल गया।
---
3. बची थी थोड़ी जान — पर शुरू हुआ असली खेल
कल्पना की आँखें नम थीं, लेकिन आवाज़ अब गहरी हो गई।
कल्पना:
“ट्रक चला गया।
लोग दौड़े, भीड़ लगी…
पर मेरी साँसें तब भी चल रही थीं।
थोड़ी-सी जान बाकी थी।
और मैं समझ गई…
संकल्पना ने मुझे मारने का प्लान बनाया है।”
मैंने हिचकते हुए पूछा—
संग्राम:
“और तुम भागने लगी?”
वह सिर हिलाती है—
कल्पना:
“हाँ… जितनी ताकत बची थी, उससे रेंगते हुए सड़क के किनारे खड़ी एक पुरानी कार में जा बैठी।
वो मेरी शरण बन सकती थी…
अगर समय मिल जाता…”
मैंने पूछा—
संग्राम:
“फिर संकल्पना आई?”
कल्पना के चेहरे पर डर उतर आया।
कल्पना:
“हाँ… वह आई।
उसके हाथ में पेट्रोल की एक केन थी।
और माचिस भी।”
मेरी सांसें रुक गईं।
संग्राम:
“हे भगवान…”
---
4. आग — जिसने शरीर जलाया, आत्मा कैद कर दी
कल्पना की आवाज़ काँप रही थी—
कल्पना:
“मैं चिल्लाना चाहती थी…
भागना चाहती थी…
पर शरीर में जान ही नहीं थी।
संकल्पना ने पेट्रोल कार पर उड़ेला।
और कहा—
‘माफ़ कर बहना… पर सब कुछ मुझे ही चाहिए।’
फिर उसने माचिस की एक तीली जलाई…”
कल्पना की सांसें भारी हो गईं।
मिरर में धुआँ भरने लगा…
जैसे आग अभी भी जल रही हो।
कल्पना:
“और कार… भड़क उठी।
मैं चीखी… बहुत चीखी…
पर कोई सुन नहीं पाया।
मेरी आखिरी नजर… उस दर्पण पर थी—
जो कार में लगा था।”
उसकी आँखों से आँसू गिरते दिखे।
कल्पना:
“और मेरी आत्मा… उसी दर्पण में कैद हो गई।”
कंपकंपी मेरे पूरे शरीर में फैल गई।
---
5. संग्राम — चुना हुआ इंसान
कल्पना ने कहा—
कल्पना:
“संग्राम… उस कार को बाद में कबाड़ में फेंका गया।
सालों बाद उसे रिपेयर करके दोबारा इस्तेमाल में लाया गया।
और कोइंसिडेंस देख… वह तुम्हें मिल गई।”
मेरी सांस एक पल को रुक गई।
संग्राम:
“क्या… ये वही कार है?
जिसमें… तुम्हें…?”
कल्पना सिर हिलाती है।
कल्पना:
“हाँ।
इसलिए मैं तुम्हें दिखती हूँ।
इसलिए तुम्हें सुनाई देती हूँ।”
---
6. न्याय — जिसकी उसे मौत से भी ज़्यादा जरूरत है
कल्पना की आवाज़ अब विनती बन गई।
कल्पना:
“संग्राम…
मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है।
मैं इस दर्पण में और नहीं रह सकती।
मेरी आत्मा भटक रही है…
मुझे न्याय दिलाओ।”
मैंने भर्राए गले से पूछा—
संग्राम:
“कैसे? मैं क्या कर सकता हूँ?”
कल्पना ने कहा—
कल्पना:
“जिस सड़क पर मुझे मारा गया…
उस पेड़ पर एक पुराना CCTV कैमरा लगा है।
उसी में मेरी मौत का सच रिकॉर्ड हुआ है।
वह फुटेज ही संकल्पना को सज़ा दिला सकता है।”
मेरे हाथ कांप रहे थे।
पर दिल में दृढ़ता भी जाग रही थी।
संग्राम:
“मैं… करूँगा।
मैं वादा करता हूँ, कल्पना।
तुम्हें न्याय मिलेगा।”
कल्पना मुस्कुराई।
उसकी आँखों में राहत उतर आई।
कल्पना:
“धन्यवाद… संग्राम।
अगर तूने साथ दिया…
तो मैं मुक्त हो जाऊँगी।”
वह धीरे-धीरे धुंध में बदलने लगी।
कल्पना (धीमे से):
“अलविदा… अभी के लिए।”
और वह गायब हो गई।
मैं अकेला था…
लेकिन अब डर नहीं था।
अब एक मिशन था।
— सच की पहली तलाश
रात काली थी, लेकिन मेरे मन में उससे भी गहरा अंधेरा छाया हुआ था।
मैं घर की खिड़की के पास खड़ा था।
नीचे सड़क पर पीले लैंपपोस्ट की रोशनी पड़ रही थी, और मैं कल्पना की आवाज़ बार-बार सुन रहा था—
"संग्राम… सिर्फ तू ही मुझे न्याय दिला सकता है…"
मेरे शरीर में झुर्रियाँ सी उठ रही थीं।
मैंने धीरे से खुद से कहा—
संग्राम:
“अगर इस आत्मा ने मेरे ऊपर भरोसा किया है… तो मैं इसे बीच में छोड़ नहीं सकता।”
उस रात मैं लगभग सो ही नहीं पाया।
कभी कार मिरर याद आता… कभी कल्पना की जलती कार…
कभी संकल्पना का वह जल्लाद जैसा चेहरा।
सुबह होने पर मैंने एक फैसला कर लिया।
---
1. मंदिर का रास्ता — जहाँ सब शुरू हुआ था
अगली सुबह सूरज निकला ही था।
हवा हल्की ठंडी थी।
गाड़ियों का शोर अभी कम था।
मैंने अपनी Ertiga स्टार्ट की और मंदिर की ओर निकल पड़ा।
दिल की धड़कन पहले से तेज थी।
संग्राम (मन में):
“कल्पना… तुम कह रही थीं इस सड़क पर सबूत है।
देखते हैं आज किस्मत क्या दिखाती है।”
मंदिर दूर से ही दिख गया।
वही घंटों की आवाज़… वही बुजुर्ग पंडित मोरे जी।
मैंने गाड़ी को धीरे से सड़क के किनारे रोका।
पंडित मोरे जी उठकर मेरी ओर आए—
मोरे जी:
“संग्राम बेटा, आज फिर जल्दी आ गया?
सब ठीक तो है?”
मैंने मुस्कुराने की कोशिश की।
संग्राम:
“हाँ बाबा… बस थोड़ा मन भारी है। एक बात पूछनी थी।”
मोरे जी:
“बोल बेटा, क्या बात है?”
मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई और धीरे से पूछा—
संग्राम:
“बाबा… इस सड़क पर… एक पुराना CCTV कैमरा लगा था क्या?”
मोरे जी ने चौंक कर मेरी ओर देखा।
मोरे जी:
“अरे हाँ… वो सामने वाले पेड़ पर लगा था।
सालों पहले नगरपालिका ने लगाया था… पर मुझे लगता है अब काम नहीं करता होगा।”
मेरी धड़कन एक पल को रुक गई।
मैंने तुरंत पूछा—
संग्राम:
“क्या वो अभी भी है?”
मोरे जी ने उंगली से रास्ता दिखाया।
मोरे जी:
“हाँ बेटा… वो देख, जो बड़ा नीम का पेड़ है न?
उस पर ही लगा है।
पर बंद पड़े कई साल हो गए।”
मेरी उम्मीद थोड़ी कमजोर हुई… लेकिन टूटी नहीं।
---
2. नीम का पेड़ — जहाँ मौत कैद थी
मैं पेड़ के पास गया।
डाली पर एक छोटा, पुराना कैमरा लटका था।
धूल, जंग, खर-पतवार… लेकिन मौजूद था।
मेरी साँस तेज हो गई।
संग्राम:
“यही होगा… यही उसने बताया था।”
मैंने मोबाइल निकालकर कैमरे की कुछ तस्वीरें लीं।
शायद कोई इलेक्ट्रॉनिक्स वाला इसे खोलकर डेटा निकाल सके।
लेकिन तभी—
एक ठंडी हवा चली।
मिरर में हल्का-सा धुआँ दिखा।
मैंने गाड़ी की ओर देखा।
कल्पना का चेहरा… फिर उभर रहा था।
मैं जल्दी से कार के पास गया और ड्राइवर सीट में बैठा।
मिरर धुंधला होने लगा…
और कुछ सेकंड बाद—
कल्पना फिर सामने थी।
---
3. कल्पना की वापसी — और नया सच
उसकी आवाज़ धीमी, लेकिन साफ थी।
कल्पना:
“धन्यवाद संग्राम…
तू सही रास्ते पर है।”
मैंने पूछा—
संग्राम:
“क्या यही कैमरा है?
क्या इसमें… तुम्हारी मौत का सबूत है?”
कल्पना की आँखें भारी हो गईं।
कल्पना:
“हाँ…
मेरी आखिरी साँस…
मेरी चीख…
संकल्पना का चेहरा…
सब इसमें रिकॉर्ड हुआ था।”
मैं गुस्से से भर गया।
संग्राम:
“उसने जो किया… वो इंसानियत नहीं है।
मैं वादा करता हूँ… उसे सज़ा जरूर दिलवाऊँगा।”
कल्पना ने सिर झुकाया।
कल्पना:
“संग्राम… एक बात और है।”
मेरे दिल में अचानक सस्पेंस जाग गया।
संग्राम:
“क्या?”
कल्पना ने गहरी साँस ली।
कल्पना:
“सिर्फ कैमरा ही सबूत नहीं है…
एक गवाह भी था।”
मेरी आँखें चौड़ी हो गईं।
संग्राम:
“गवाह? कौन?”
कल्पना के चेहरे पर रहस्यमयी छाया पड़ी।
कल्पना:
“वही लड़का… जो मंदिर के बाहर नारियल बेचता था।
उस दिन… उसने सब देखा था।
छिपकर… डर के मारे…
पर देखा था।”
मैंने साँस रोके पूछा—
संग्राम:
“क्या वो अभी भी यहाँ है?”
कल्पना ने कहा—
कल्पना:
“हाँ…
पर वह बहुत डरता है।
उसे यकीन दिलाना होगा…
उसे भरोसा देना होगा… कि तू सच के लिए लड़ रहा है।”
मैंने मुट्ठी भींची।
संग्राम:
“मैं उसे ढूँढूँगा।
और सच सामने लाऊँगा।
चाहे कुछ भी हो जाए।”
कल्पना मुस्कुराई… हल्की-सी।
कल्पना:
“तुम ही मेरी आखिरी उम्मीद हो… संग्राम।”
और उसके साथ ही
मिरर साफ होने लगा, और वह धीरे-धीरे गायब हो गई।
---
4. डरते हुए भी आगे बढ़ने का फैसला
मैं गाड़ी से उतरा।
हवा ठंडी थी, लेकिन मेरे शरीर में गर्मी थी—
गुस्से की, दृढ़ता की, और न्याय की।
मैंने खुद से कहा—
संग्राम:
“आज… मैं वो नारियल बेचने वाले लड़के को ढूँढकर रहूँगा।”
और मैं मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
कहानी अब सच के करीब थी…
लेकिन सच से ज्यादा खतरनाक
वे लोग थे…
जो इस सच को छुपाए हुए थे।