silent room in Hindi Horror Stories by Tanya Singh books and stories PDF | खामोश कमरा

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खामोश कमरा

दिल्ली की पुरानी बस्ती में वह मकान आज भी वैसा ही खड़ा था — जैसे वक्त ने उसे छुआ ही न हो। दीवारों पर नमी की परतें थीं, पेंट जगह-जगह से उखड़ा हुआ, और खिड़कियों के शीशे इतने पुराने कि उनमें अब चेहरे नहीं, बस धुंध दिखाई देती थी।
उसी घर के ऊपर वाले हिस्से में आयुषी रहती थी — अकेली।

वो एक फ्रीलांस राइटर थी। दिन में अपने लैपटॉप पर कहानियाँ टाइप करती, रात में कॉफी के प्याले के साथ अपने विचारों से बातें।
लोग कहते हैं, जो लंबे समय तक अकेला रहता है, वो अपने भीतर की आवाज़ें सुनने लगता है।
पर आयुषी को अब अपने भीतर नहीं, अपने कमरे से आवाज़ें आने लगी थीं।

शुरुआत छोटी थी — किसी रात खिड़की का बंद होना, या दीवारों से आती सरसराहट।
उसने सोचा हवा होगी। लेकिन धीरे-धीरे आवाज़ें सांसों जैसी लगने लगीं —
धीमी, गर्म, और पास से आती हुई।
वो बिस्तर पर लेटी रहती और महसूस करती — जैसे दीवारें ज़िंदा हैं, और कोई उनके पीछे से सांस ले रहा है।

एक रात उसने घबराकर पूछा,
“कौन है वहाँ?”
कुछ पल सन्नाटा रहा। फिर बहुत हल्के स्वर में जवाब आया —
“तुम।”

वो चीख़ उठी। पर अगले ही पल कमरे में सिर्फ़ सन्नाटा था, और उसके सीने में तेज़ धड़कन।

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नीचे एक बंद बेसमेंट था। मकान मालिक ने किराया देते वक्त ही कहा था,

«“उस कमरे का दरवाज़ा मत खोलना। वहाँ सन्नाटा नहीं रहता… परछाइयाँ रहती हैं।”»

आयुषी ने तब इसे किसी बूढ़े की अंधविश्वासी बात समझा था।
लेकिन उस रात — जब बाहर बारिश हो रही थी और लैपटॉप की स्क्रीन पर शब्द धुंधले पड़ रहे थे —
उसे नीचे से किसी के चलने की आवाज़ आई।
धीरे-धीरे, जैसे कोई Barefoot फर्श पर चल रहा हो।
फिर एक औरत की हँसी… इतनी हल्की कि जैसे किसी ने सीधे उसके कान में फुसफुसाया हो।

वो डर के मारे कुर्सी से उठ खड़ी हुई, टॉर्च लेकर सीढ़ियों तक पहुँची।
नीचे अंधेरा था। टॉर्च की रोशनी में बस धूल उड़ रही थी।
वो वापस कमरे में आ गई, पर अब उसके मन में एक सवाल गूंजने लगा —
अगर वहाँ कोई नहीं था, तो आवाज़ आई कहाँ से?

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अगली सुबह उसने अपनी नोटबुक खोली। हर रात वह उसमें अपनी कहानियों के ड्राफ्ट लिखती थी।
पर आज उसमें कुछ और लिखा था।

«“तुम आखिर नीचे कब आओगी?”»

उसके हाथ काँप उठे।
लिखावट उसकी नहीं थी।
उसने बाकी पन्ने पलटे — हर पन्ने पर बस एक शब्द था —
“खामोश…”

वो डर गई। उसने नोटबुक बंद की और कोने में फेंक दी।
पर उस रात, जब उसने सोने की कोशिश की, वही शब्द बार-बार उसके कानों में गूंजा।
खामोश… खामोश रहो… मैं लिख रही हूँ…

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अगले दिन उसने डॉक्टर विवेक से संपर्क किया — एक मनोचिकित्सक, जो कभी उसका दोस्त हुआ करता था।
डॉ. विवेक ने सब सुना, फिर कहा,

«“ये Projection Hallucination है। जब दिमाग अकेलापन महसूस करता है, तो वो डर को बाहर प्रोजेक्ट कर देता है। कुछ दिनों के लिए घर छोड़ दो।”»

आयुषी ने धीमे से कहा,

«“अगर मैं चली गई… तो जो नीचे है, वो मेरे पीछे आएगा।”»

डॉ. विवेक मुस्कुराए, लेकिन उनकी मुस्कान में कुछ था — शायद डर या समझदारी।

«“जो नीचे है, वो तुम्हारे अंदर है।”»

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तीन दिन बीते।
बरसात की रात थी।
बिजली गई, हवा गीली थी, और कमरे में सिर्फ़ मोमबत्ती की टिमटिमाहट।

तभी क्लिक की आवाज़ आई।
वो बेसमेंट का ताला था — जो अपने आप टूटकर फर्श पर गिर गया।

वो काँपते हुए नीचे गई।
हर सीढ़ी पर धूल की परत, हर कदम पर चरमराहट।
नीचे दीवारों पर पुरानी तस्वीरें थीं — और हर तस्वीर में वही चेहरा।
आयुषी का।
कभी मुस्कुराती, कभी रोती, कभी घूरती हुई।

कमरे के बीचोबीच एक टूटा हुआ आईना पड़ा था।
वो झुकी, टॉर्च उस पर डाली —
आईने में उसका चेहरा नहीं था। वहाँ कोई और थी — वही, पर अलग।
वो दूसरी आयुषी मुस्कुरा रही थी।
आईने के पार से एक आवाज़ आई,

«“तुमने मुझे यहाँ बंद किया था… अब मैं आज़ाद हूँ।”»

वो पीछे हटी, पर पैरों ने साथ नहीं दिया।
आईने पर दरारें फैलती गईं, और उनसे काली धुंध निकलने लगी।
वो धुंध धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी, जैसे किसी ने साँस लेकर उसे खींच लिया हो।
अचानक दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।

अंधेरे में सिर्फ़ उसकी चीख़ गूँजी।

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तीन दिन बाद पुलिस आई।
घर खाली था।
टेबल पर नोटबुक खुली पड़ी थी — आख़िरी पन्ने पर लिखा था:

«“मैं अब भी यहाँ हूँ, अपने ही बनाए कमरे में।”»

मकान मालिक ने पुलिस से कहा,

«“वो तो पिछले किराएदार की कहानी थी — आयुषी शर्मा। पाँच साल पहले इसी बेसमेंट में मरी थी। और जाने क्यों… हर पाँच साल बाद कोई नई लड़की आती है, जो खुद को आयुषी कहती है।”»

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अब उस घर में नया किराएदार है — एक और writer।
रात में जब वो नोटबुक खोलता है, तो उसमें कुछ शब्द पहले से लिखे मिलते हैं।
कभी किसी औरत की लिखावट, कभी स्याही जो खुद बहती लगती है।
दीवारों से अब भी वही आवाज़ आती है —

«“खामोश रहो… मैं लिख रही हूँ…”»

कमरा अब भी सांस लेता है।
और शायद, हर वो कहानी जो कोई यहाँ लिखता है… वो उसी की होती है जो अब भी नीचे है।

समाप्त।