Khaufnak Jheel in Hindi Horror Stories by RTJD books and stories PDF | खौफनाक झील

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खौफनाक झील

‘ मंतू ’... घर में सब प्यार से मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। मेरा पूरा नाम मंतेश जामोद है। मैं मध्य प्रदेश के एक बेहद छोटे से गांव चीचमल में अपने छोटे से परिवार के साथ रहता हूँ। घर में माताजी हैं, एक छोटा भाई और एक बड़ी बहन है; बड़ी दीदी की शादी के बाद घर में चांद और मम्मी रह गए थे। पापा के गुजर जाने के बाद घर का सारा कारोबार मम्मी पर आ गया, जिसकी वजह से हमारी घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई थी। घर का सारा गुज़ारा मम्मी की मजदूरी से ही चलता है। थोड़ी सी जमा पूँजी के बाद अब जमीन का एक छोटा सा हिस्सा भी खरीद लिया है। अब इसी से घर का खर्चा तो निकल जाता है, परंतु अक्सर घर में आर्थिक तंगी का डेरा बना रहता है।

मैंने हाल ही में बारहवीं कक्षा की परीक्षा दी है; उसका परिणाम आने में अभी पूरे ढाई माह शेष है। मेरी पिछली दो कक्षाओं का परिणाम कुछ ख़ास नहीं था यू समझ लो किसी तरह अनुत्तीर्ण होने से बच गया। मैं वैसे बहुत मुश्किल परिस्थितियों से गुजर चुका हूँ। कठिन फैसले लेने में भी पीछे नहीं हटता, क्योंकि घर में कोई वयस्क पुरुष न होने की वजह से कई बार मुझे स्वयं ही निर्णय लेना पड़ता है। भले ही दूसरों बच्चों की तरह मैं अपने कागज़ों पर उतने अच्छे अंक न ला पाता हूँ, परंतु मैं रट्टा मारकर भी नहीं पढ़ता था। जितना समझ में आता था उतना लिख देता था और अतिरिक्त मेहनत भी नहीं की कभी। इसी दुर्दशा को देखते हुए मेरी माताजी ने मेरा जिले की उत्कृष्ट विद्यालय में दाखिला करवा दिया था। हालाँकि इस निर्णय से आगे जाकर कुछ बाधाओं का सामना भी करना पड़ा हमें। मगर नियति को भला कौन टाल सकता है। माताजी हमेशा मुझसे कहा करती हैं, " मंतु, तू बस इतना तो पढ़ लेना कि तुझे दूसरों के लिए काम न करने पड़ें। " और उनकी वह बात मैं आज भी गांठ बांध कर चलता हूँ।
लेकिन पता नहीं क्यों कभी कभी डर लगता है कि मैं उनको निराश न कर दूं। क्योंकि मैं खुद की आदतों को भली भांति जनता हूं, अब जो है सो है…

परीक्षा परिणाम आने में समय शेष है और मेरे पास पूरी गर्मियाँ। स्कूल के बाकी मेरे दोस्त ख़ूब उत्साहित और खुश है, क्योंकि यह हमारी स्कूल की आख़िरी गर्मी होने वाली है। उसके बाद समय मिले या नहीं? कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे मैं आपको बता दूँ, क्रिकेट का मैं बहुत अच्छा खिलाड़ी हूँ, अब आपको लगेगा कि “मैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू” कर रहा हूं मगर यहीं सच है। मैं सीधे हाथ का तेज गेंदबाज़ हूँ। मेरे सामने बड़े से बड़े खिलाड़ी के पसीने छूट जाते हैं। और हमारे लिए क्रिकेट खेलने का यही उचित समय है, क्योंकि इस समय सभी लड़के ग्रीष्मकालीन छुट्टी पर आए हुए हैं।


शाम का समय...
 "मंतू... इधर आकर बैठ, तुझसे कुछ जरूरी बात करनी है।" मेरी माताजी। 

"हाँ, अभी आया।" (कानों से हैंड्सफ़्री निकालते हुए)।

"बेटा मंतू, तेरे जीजा जी पुणे में एक कंपनी में काम करते हैं। परसों ही उनका फोन आया था। मैंने उनसे सिफ़ारिश की थी तेरे लिए काम ढूँढने की… आज उनका फोन वापस आया है, काम मिल गया है।" मंतू की माताजी बड़े वात्सल्य भाव से। 

"अच्छा...!" मैं।

"हाँ, और कंपनी भी अच्छे पैसे दे रही है। तू यहाँ फालतू दोस्तों के साथ समय बर्बाद मत कर और तेरे जीजा जी के साथ चला जा।" माताजी। 

"पर मम्मी..." (इसे पहले कि मैं बोल पाता) मैं अपने बात बोल ही नहीं पाया। 

"चांद की स्कूल फीस भरनी पड़ेगी और तेरको भी तो आगे पढ़ाई के लिए पैसे की जरूरत पड़ेगी। घर के हालात तो तू जानता है।" माताजी। 

मेरे पास उस वक्त बोलने के लिए शब्द नहीं थे, क्योंकि मैं अपनी माताजी की बात अनसुनी भी नहीं कर सकता था और घर की हालत वाकई में बहुत बुरी थी। माताजी ने न चाहते हुए भी यह बात कही, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं बचा था। अन्यथा वह मुझे महाराष्ट्र में काम करने के लिए कभी नहीं भेजती…शायद। 

मैं देर रात तक अपनी माताजी की उन बातों के बारे में सोचता रहा और अपने टूटते सपनों के बारे में भी। अजीब सी ख़ामोशी थी उस रात में, मानो पूरी दुनिया मेरे दुःख का शोक मना रही हो। मैं नाराज़ था अपनी इस विवश ज़िंदगी पर और अपने आप को दूसरों से तुलना करके घृणा कर रहा था। मजदूरी तो मैंने बहुत की थी, मगर गाँव से दूर जाकर नहीं, अपनों के साथ; और दूर अनजाने शहर में जाकर काम करने के बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था। भला अपना घर और गांव जहां तुमने अपना पूरा जीवन जीया हो उस जगह को छोड़ कर पराए मुल्क में जाना और रहना…ये कैसी शर्त हुई? लेकिन सच्चाई से भी तो झुठलाया नहीं जा सकता। फिर मेरी आखिरी गर्मियों का क्या होगा? मेरे दोस्त क्या कहेंगे?? इसी तरह के भिन्न-भिन्न खयालों में रात कब कट गई, पता नहीं चला।

सुबह जल्दी उठ कर मैंने अपना बैग पैक किया। मम्मी ने मेरे लिए टिफिन भी तैयार कर दिया था। यह सब देखकर मेरे आँखों के सामने पुरानी फ़िल्मों के दृश्य छा गए। फिर अपनी छोटे भाई चांद और माताजी से विदा लेकर निकल पड़ा एक नए सफर पर...!

 "हर आने वाला सफ़र अपने साथ मुश्किलें और रोमांच दोनों लाता है। और मेरा यह सफर भी कुछ इसी तरह के एहसास अनुभव कराने वाला था। मैं तो उस राह भटके मुसाफिर की तरह था जिसे खुद को भी नहीं पता था कि वह कहाँ जा रहा है। उलझा हुआ था अपनी ज़िंदगी की राहों में और मजबूर था अपनी बंदिश ज़िंदगी के आगे..."



रात के एक बजे की बस थी पुणे के लिए और मेरी घड़ी में अभी पौने नौ ही बजे थे। करीब तीन घंटे से भी ज्यादा समय था बस के छूटने में; तब तक मैं बस स्टेशन पर ही इधर-उधर भटकता रहा। काफी दुकानें तो बंद हो चुकी थीं और वातावरण शांत था। फिर मैं भी एक धर्मशाला देख कर वहीं बैठ गया, अपना टिफिन खोल कर खाना खाया। वहाँ एक कुत्तों का झुंड आ गया.. मैंने अपने टिफिन में से दो रोटियाँ निकाल कर फेंकी तो उनमें हाहाकार मच गया। खाना खाने के बाद घड़ी देखी..तो अभी भी रात के ग्यारह ही हुए थे। मैंने कुछ देर के लिए आराम करने की कोशिश की पर मच्छरों की मार ने वहाँ भी सुकून नहीं आने दिया। मेरे अलावा भी काफी लोग बस की प्रतीक्षा में थे; उनमें से कुछ छोटे बच्चे भी थे, कुछ बूढ़े, ये सारे महाराष्ट्र में मजदूरी करने जा रहे थे। जो अपने घर, गाँव को छोड़कर परदेश में जाकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। मैं उनकी हालत देखकर फिर से दुःखी हो गया और दुनिया भर के अलग-अलग प्रकार के विचार आने लगे। दुनिया में न जाने कितने ही लोग होंगे, मैं उनकी विरह वेदना को महसूस करने लगा था...

फिर अचानक किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मैं चौंक कर पीछे मुड़ा..एक आदमी खड़ा था।

"क्या हुआ?" (हैरानी से) मैंने पूछा। 

"बेटा, पुणे जाना है न तुझे?” उस आदमी ने पूछा।

 "हाँ, क्यों?" मैंने तुरंत ही पूछा। 

"पुणे की बस अभी दस मिनट में आने वाली है, तैयार रहना।" (कहकर वह चला गया) वो आदमी। 

वो टूर-एंड-ट्रैवल्स वाला था जो सभी को बस के आने की सूचना दे रहा था। आखिरकार बस में बैठ भी गया। मेरे बगल वाली सीट पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी। बाद में गौर किया तो पता चला वह एक लड़की थी। बड़े हिम्मत जुटाकर मैंने पूछा:

 "क्या आप भी पुणे जा रही हैं?"

"हाँ।" (शक की नजर से देखते हुए) वो अंजान लड़की।

फिर मेरी हिम्मत दूसरे सवाल के लिए नहीं हुई। मैं अपने हैंड्सफ़्री कान में लगाकर गाने सुनने लगा। रास्ते में बस दो जगह रुकी, किसी होटल पर; मैंने कुछ खाने की चीज़ें ली, फिर बस में चढ़ गया।

"क्या पानी मिल सकता है थोड़ा?" (मेरी तरफ़ देख कर) वो अंजान लड़की। 

 "हाँ, क्यों नहीं!" (पानी की बोतल उसकी तरफ बढ़ाते हुए) थोड़ा सा हैरान भी था। 

अब लग रहा था जैसे वो मुझ पर भरोसा करने लगी है, नहीं तो यूँ बस में अजनबी से कोई बात नहीं करता। वो बोतल वापस लौटा कर बोली, "धन्यवाद।"

 "कोई बात नहीं।" बड़ी बेवकूफी सी मुस्कान के साथ। 

फिर वह वापस अपनी सीट पर पलट कर सो गई और मुझे भी नींद आने लगी। बस में लेटे-लेटे मैं सोच रहा था कि इस बस में न जाने कितने लोग यात्रा कर रहे हैं, जिनके- जिनके अलग-अलग पुणे जाने के मक़सद होंगे: कोई नौकरी के लिए, कोई स्कूल के लिए, कॉलेज भी हो सकता है... या फिर कोई मेरी तरह कंपनी में काम करने जा रहा होगा। सोच कर ही हल्की सी हंसी छूट गई और मेरी आँख कब लग गई, पता नहीं चला।

सुबह जैसे ही मेरी आँख खुली, मैं पुणे में पहुँच चुका था और वह लड़की भी जा चुकी थी। स्टेशन पर उतरते ही सोनल जीज़ू आगे से हँसते हुए आकर मेरा बैग उठा लिये।

 "और जनाब, सफर कैसा रहा?" (गले मिलते हुए) सोनल जीजू। 

 "हाँ, काफी मज़ा आया जीज़ू जी।" (मैंने भी हँसते हुए जवाब दिया) थक गया था मैं। 

मैंने पुणे को फिल्मों में कई बार देखा था, पर वास्तव में पहली बार था! जीज़ू ने मुझे एक ढाबे पर ले जाकर नाश्ता करवाया। फिर वहाँ से टेंपो में बैठ कर, पुणे से डेढ़ घंटे के सफर के बाद हम वहाँ पहुँचे जहाँ कंपनी का कैंपस था। शहर से दूर एकान्त वातावरण में चारों तरफ देवदार के घने वृक्ष घूम रहे थे , आस-पास तक कोई गाँव भी नज़र नहीं आ रहा था। चारों तरफ उड़ती धूल और बंजर ज़मीन; करीब-करीब दो हेक्टेयर में पूरा कैंपस बना हुआ था। लंबे-लंबे देवदार के लहराते पेड़ इस वीरान सी जगह को और भी विचित्र और रहस्यमय बना रहे थे। जब मैंने पहली बार यह नज़ारा देखा, मेरा दिमाग थम-सा गया, आखिर इस बेसूरत जगह पर फैक्ट्री बनाने की क्या ज़रूरत थी? खैर, इससे मेरा क्या लेना-देना, वैसे भी मुझे यहाँ ज्यादा दिन नहीं रुकना था, दो माह की तो बात है। पर मुझे नहीं पता था कि इन दो महीनों में मेरी पूरी ज़िन्दगी बदल जाएगी, मैं इस नियति से वाक़िफ़ नहीं था उस समय।

मैं जीज़ू जी के पीछे-पीछे गया जहाँ वे रह रहे थे। वहाँ स्टील की छत थी और फ़र्श पर कारपेट बिछा हुआ था, ऐसे ही 10–15 कमरे बने हुए थे। जीज़ू कपड़े बदलकर मुझे आराम करने के लिए बोले और कंपनी चले गए। मैं रूम पर आराम कर रहा था उस दिन। शाम के समय भोंपू बजते ही मैस-रूम के आगे कर्मचारी जमा होने लगे और बारी-बारी से खाना लेने लगे। जीज़ू और हम भी खाना ले लिये। खाना इतना भी ख़राब नहीं था। दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी; मेरा मन नहीं था खाने का, पर जीज़ू के बार-बार कहने पर मैंने थोड़ा-सा खाया। खाने के बाद हमने घर पर फ़ोन किया और बात की, उसके बाद थोड़ी देर टहलने भी गए। जीज़ू ने फटाफट दोनों के लिए बिस्तर लगा दिए।

 "मंतु, नीचे नींद तो आजाएगी न? क्यूँकि हमे तो आदत हो गई है, भैय्या।" सोनल जीजू। 

 "कोई बात नहीं जीज़ू जी — मेरी भी बन जाएगी..." मैं। 

"और बताओ, पढ़ाई कैसे चल रही है?" सोनल जीजू।

"ठीक चल रही है, अभी मैंने 12वीं की परीक्षा दी है जीज़ू जी।" 

"उसके बाद?" सोनल जीजू।

"उसके बाद कोई अच्छी सी कॉलेज देख कर अपना ग्रेजुएशन पूरा करूँगा, और उसी दौरान कोई छोटी सी नौकरी कर लूँगा। वैसे भी घर की स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती जा रही है; सोचा था आगे पढ़ने का, मगर लगता है अब मैं आगे की पढ़ाई नहीं कर पाऊँगा..."

 "घुर्र्र... घुर्र्र... घुर्र्र...!"

 "जीज़ू?" मैं पलटकर देखा। 

जीज़ू तो कब के गहरे ध्यान में जा चुके थे। मैंने मोबाइल देखा तो अभी 9:30 PM ही थे। शायद दिन भर की भाग-दौड़ से थक गये होंगे; पर मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं खिड़की की तरफ़ मुड़ा, "आह!" क्या नज़ारा था बाहर: चांदनी रात में देवदार के पेड़ और भी मनभावन लग रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे खुले मैदान में दो दोस्त झूला झूल रहे हों। मैं अपने घर से चार सौ किलोमीटर दूर होने के बावजूद उस दृश्य में कहीं खो गया; कितनी अजीब जगह है यह, दिन के उजाले में कितनी वीरान और भयानक लगती है, और शाम ढलते ही मानो अलग ही दुनिया का अनुभव कराती है। मेरी सुखानुभूति में न जाने कब आँख लग गई...

सपने में मेरे नाम से किसी ने पुकारा और मेरी नींद टूट गई। उठकर देखा तो जीज़ू जी मेरा नाम लेकर मुझे पुकार रहे थे।

 "मंतू, उठ.. आज कंपनी में तेरा पहला दिन है, जल्दी से तैयार हो जा।" सोनल जीजू। 

 "हां... जीजा जी..." (सर पकड़ कर सोचते हुए)

 "क्यों? कोई भयानक सपना देखा क्या...?" सोनल जीजू। 

"हाँ, ऐसा ही कुछ!"

फिर मैं भी फटाफट उठ कर नहा-धोकर तैयार हो गया, तब तक साढ़े आठ बज गए थे। आज कंपनी में मेरा पहला दिन था, इसलिए मैं थोड़ा सा डरा हुआ था क्योंकि इससे पहले मैंने कभी किसी कंपनी में काम नहीं किया था। सबसे पहले हम रजिस्ट्रेशन रूम गए जहाँ मेरी संबंधित जानकारी भरी गई और एक प्रवेश-पत्र बनाया गया। उस पर मेरा नाम लिखा था। मंतेश जामोद पिता गजेंद्र दामोद "405" और पत्र के ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था "दामोदार पेप्सी एंड कोल्ड्रिंक्स प्राइवेट लिमिटेड, पुणे"।

पहला दिन था, इसलिए सुपरवाइज़र मुझे एक-एक चीज़ बता रहा था और मैं उनकी बातों का जवाब सिर हिलाकर "हमी" भर रहा था।

 "समझ में आ गया या ट्रेनिंग देनी पड़ेगी??” सुपरवाइजर। 

"हाँ सर, समझ गया!"

"बाकी ये चौकीदार बता देंगे... ठीक है!" सुपरवाइजर। 

"ठीक है सर!" मैं मुंडी हिलाते हुए। 

मेरा काम इतना था कि टरबाइन से टूटी-फूटी बोतलों को हैंगर से अलग करना पड़ता था। ज्यादा कठिन काम नहीं था, मगर आसान भी नहीं। हर वक्त हैंगर की तरफ देखकर खड़े होने से शरीर अकड़ जाता था, काफी बोरियत भरा काम था। तीन दिन तक सब कुछ इसी तरह चलता रहा। बीते ये तीन दिन मेरे लिए मानो तीन बरस के बराबर थे, पर धीरे-धीरे मैं इस दिनचर्या में ढल रहा था...।

शाम को जैसे भोंपू बजती, हम सब अपने-अपने कमरों की तरफ़ जाने लगे। उस दिन मैं बहुत ज्यादा थका हुआ था। तभी मैनेजर ने मुझे और जीज़ू को अपने केबिन में बुलाया और कहा कि जरूरी बात करनी है। रोज़ तो हमें वहाँ नहीं बुलाया जाता, तो आज ऐसा क्या हो गया? मैं थोड़ा सा डरा हुआ था कि कहीं हमने कोई गलती तो नहीं की?

मैनेजर ने सिर्फ जीज़ू को अंदर बुलाया और मुझे बाहर ही रुकने को कहा, तब मैं और भी भयभीत हुआ। मैंने देखा मैनेजर मेरे तरफ़ इशारा कर रहा था और जीज़ू भी मेरी तरफ ध्यान से देख रहे थे। इन दोनों के इस तरीके से बात करने से मैं समझ गया कि जिस मुद्दे पर वे चर्चा कर रहे हैं, वह मेरे बारे में ही है। आखिरकार जीज़ू बाहर आ गए। मैं घबराते हुए पूछा:

 "क्या बात है जीज़ू? मैनेजर ने केबिन में क्यों बुलाया था?" मैंने पूछा। 

 "कुछ नहीं..! ऐसे ही थोड़ा काम था।" (नज़रे चुराते हुए) सोनल जीजू। 

उनकी हरकतों से मैं समझ गया था कि कुछ न कुछ तो पक रहा है। मैंने पूछा:
 "कोई दिक्कत वाली तो बात नहीं है न?"

 "नहीं... नहीं, कोई दिक्कत नहीं है। आज कुछ ज़्यादा ही थकान है जनाब।" सोनल जीजू। 

रूम पर पहुंचते तक दोनों चुप थे... चारों तरफ़ खामोशी ही खामोशी थी। जब मैं बाहर टहलने निकला तो एक कर्मचारी दोस्त मिल गया और उसने जो बताया, सुनकर मेरे होश उड़ गए।

"भई मंतेश... तो पक्का तैयार है न?" रविन। 

रविन भी मेरी ही तरह यहां पर काम के लिए आया हुआ था। रविन का भाई कंपनी में कॉन्ट्रैक्टर है। काफ़ी सुशील और सुलझा हुआ आदमी है। इन दिनों हम खाना खाकर अक्सर बाहर पहाड़ी तरफ़ घूमने निकल जाया करते थे। 

 "किस लिए?" (हैरानी से)

"सोनल ने तुझे नहीं बताया क्या, भई?" रविन। 

"किस बारे में बात कर रहे हो, रवि...?"

"तुझे उस साइट पर भेजा जा रहा है — झील पर।" रविन ।

 "झील पर??" मैं हैरानी से। 

"ये ऐसी वैसी झील नहीं है…श्रापित झील है, भई... इससे पहले कई कर्मचारी गए थे; वहाँ सबके साथ कुछ न कुछ घटना घटी या उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रही। कहते हैं वहाँ काला साया का कब्जा है, भई।" रविन। 

"क्या फेंक रहे हो यार! ऐसा कुछ नहीं होता।" मैं।

 "मुझे पता था तुम आजकल के लड़के इन बातों पर विश्वास नहीं करोगे, पर जब तुम्हारे साथ होगा तो यकीन करोगे।" रविन। 

मैं उसकी बात पूरी सुनने ही वाला था कि कुछ बोलने से पहले ही वह चला गया। मगर कहीं-न-कहीं उस कर्मचारी की बातें मेरे दिमाग में घर कर गईं। मैं सोचता हुआ कमरे पर पहुँचा; किसी के कमरे से फुसफुसाने की आवाज़ सुनकर स्थम्पित हो गया। जीज़ू किसी से बातें कर रहे थे, साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था पर झील के बारे में और पैसे- पैसे की बातें हो रही थीं। मेरा सब्र का बांध टूट गया और मैं झट से कमरे में घुसा..तो देखा जीज़ू पैसों का एक बंडल लिए खड़े थे और मैनेजर हाथ में कुछ दस्तावेज़ लिए था। मुझे देख दोनों हड़बड़ा गए...!

जीज़ू मेरी तरफ़ देखते हुए फटकारने लगे:

 "मंतू, इस तरह कोई आता है क्या? तूने तो हम सबको डरा ही दिया था!" (मैनेजर को जाने का इशारा करते हुए)

मैं बहुत उलझन में पड़ गया और दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठने लगे।

 "ये मैनेजर यहाँ क्यों आया था? और इतने सारे पैसे किसलिए? आखिर तुमने क्या सौदा किया है?" मैं एक बार में इतने ही सवाल पूछ पाया।मेरे सवाल खत्म ही नहीं हो रहे थे।

"मंतू... समझने की कोशिश कर।" सोनल जीजू। 

 "अच्छा तो अब मैं समझा.. वह कर्मचारी दोस्त क्यों बेवजह बातें कर रहा था?" अपने दिमाग़ के घोड़े दौड़ाने लगा। 

"देख, मंतू…मैं पहले ही तुम्हें ये सब बताने वाला था, लेकिन..." सोनल जीजू। 

 "लेकिन क्या जीज़ू...?" मैं। 

"मैं नहीं चाहता था कि तुम उस मनहूस झील पर जाओ। मैने मैनेजर से बात कर ली है…अब मैं वहाँ जाऊँगा।" सोनल जीजू। 

 "क्या?? और ये झील का क्या किस्सा है?" मेरी आवाज़ में चिड़चिड़ापन था। 
फिर जीज़ू ने सारी बात विस्तार से समझाई।

 "ये लो, तीस हज़ार रुपए हैं… तेरी दीदी के खाते में डालवा देना।"
 "पर आखिर मैं क्यों नहीं जा सकता?"

 "तू समझ नहीं रहा है… वहाँ जाना मतलब अपनी जान की बाज़ी लगाना। और तू यहाँ मेरी जिम्मेदारी पर आया है; मैं तुम्हें वहाँ नहीं भेज सकता!"


मैं हमेशा से ही जिंदगी में कुछ अलग करके दिखाना चाहता था और ये मेरे लिए सही अवसर था। फिर मेरी और जीजू के बीच बहुत ही लंबी बहस के बाद मैंने उनको राज़ी कर ही लिया।

फिर उसी शाम को मैंने पैकिंग कर ली। ये बिल्कुल चंद्रपहार के शंकर जैसी फीलिंग थी। मैंने बचपन से ही ऐसे वीर सैनानी की उपन्यास पढ़ी हुई है, उनसे मैं काफी प्रभावित भी हूँ। मुझे उस डरावनी झील के बारे में सब पता होने के बाद भी, पता नहीं क्यों वहाँ जाने का और भी मन कर रहा था। मेरी उत्तेजना बढ़ती ही जा रही थी। उस पूरी रात में झील के बारे में ही सोचता रहा। जिज्ञासा इतनी थी कि मुझे सुकून ही नहीं था, नींद भी नहीं आ रही थी। ये अक्सर मेरे साथ होता है, जब भी कहीं पर जाने की अधिक उत्तेजना अपने आप पर हावी हो जाती है।

मैं बार-बार चंद्रपहार उपन्यास के बारे में सोचने लगा और उस उपन्यास के शंकर को अपने आप से तुलना कर रहा था। मेरी आँखों में वो घने-घने जंगल के चित्र बनने लगे थे। अभी से ये मुझे क्या हो गया है? पता नहीं क्यों मुझे नींद ही नहीं आ रही थी और दिल की धड़कनें तेज होने लगीं।

मैं: ये क्या हुआ! आह! आह! ये क्या है? मेरा सर फटा जा रहा है…

सुबह की पहली किरण के साथ मैंने सभी से विदा ले ली। जीजू बार-बार मुझे सतर्क रहने और देखभाल रखने को बोल रहे थे। मुझे झील तक पहुँचने के लिए कंपनी ने एक टेंपो भेजा था, साथ में हफ्ते भर का राशन भी था। झील की साइट यहाँ से करीब 30 मील की दूरी पर स्थित है। हम टेंपो से वहाँ तक पहुँचने में एक से डेढ़ घंटे का समय लगे।

उसके उपरांत हम पहुँच ही गए। झील पर क्या दिलकश नज़ारा था! मुझसे नियंत्रण नहीं रहा और मैं झील की तरफ ऊपर हाथ उठा कर चिल्लाया, "हुर्रे!"

झील काफी बड़े क्षेत्र में फैली हुई थी और चारों तरफ कटीले पेड़ थे। मुझे उनका नाम नहीं पता, पर इस तरह के पेड़ मैंने पूरी जिंदगी में नहीं देखे थे। ये बड़े भद्दे और मनहूस पेड़ लग रहे थे। और किनारे पर ही हमारा दो कमरों वाला ढाबा बना हुआ था। ये कैंप जैसा बिल्कुल नहीं था। बगल में ही फिल्टर मशीन लगी थी और पूल बना हुआ था।

काफी आकर्षक दृश्य था। कंपनी के उन चार दीवारों से तो दस गुना बेहतर था। कंपनी का टेंपो मुझे समान के साथ उतार कर वापस चल पड़ा। अंदर से एक 40-45 वर्षीय आदमी निकला। वो वही चौकीदार था जिसके साथ मुझे रुकना था इस झील पर। मजबूत हाथ, दाढ़ी-मूंछें, और गठीला शरीर, तो कुछ और ही कहानी बता रहे थे।

कुछ समय तक तो वो मेरे चेहरे की तरफ देखता रहा, फिर आगे हाथ बढ़ाते हुए:
“हाई! मेरा नाम बसन तिवारी है, झील पर आपका स्वागत है।” बसन।
सुनकर मुझे अटपटा लगा। फिर मैं भी हाथ मिलाते हुए बोला:
मैंहाई! मेरा नाम मंतेश है, पर आप मुझे मंतू बुला सकते हैं।” 

फिर वो मुझे कमरे में ले गया और आराम करने के लिए बोलकर खुद रसोई में चाय बनाने चले गए।

“ एमपी से हो? (चाय का एक सिप लेकर)” बसन। 
“ हां, और आप?” मैंने दोहराया। 
“मैं बिहार से हूँ।” (फिर चाय का प्याला उठा लिया) बसन।

थोड़ी देर इस तरह बातें करते-करते हम काफी घुल-मिल गए थे।

“बसन काका, आप यहाँ कब से हैं?” मैंने पूछा।
“करीब दो हफ्ते हो गए।” (सोचते हुए) बसन।

इस वक्त हम काफी खुल गए थे, इसलिए मैं अपनी अंतरात्मा की शांति के लिए वो सवाल पूछ ही लिया जो मुझे बार-बार परेशान कर रहा था।

“बसन काका… मैंने इस झील के बारे में काफी बेतुकी बातें सुनी हैं। वो सब अफवाहें हैं न?” मैंने वो सवाल आखिर पूछ ही लिया जो मेरे दिमाग में कब से खटक रहता था। 

“हाँ, अफवाहें ही हैं।” (चाय का प्याला एक तरफ रखते हुए और उठाकर किचन में जाने लगे) बसन। 

“तुम मछली तो खा लेते हो ना? (रुकते हुए) किचन में जाकर। 

“हाँ!!” थोड़ी भारी आवाज़ में। 

बसन काका का यूँ मेरे सवाल का असंतोषजनक जवाब मुझे बेचैन सा कर गया था। मैंने उस वक्त ज्यादा ध्यान नहीं दिया और बसन काका का हाथ बटाने किचन में चले गए। हम दोनों ने मिलकर मछली बनाई और शाम का खाना तैयार किया।

बसन काका ने मछली झील में से पकड़ी थी। ये इस घर के खाने की तरह लजीज़ तो नहीं थी, मगर घर से 400 मील दूर इसका मिलना ही हमारे लिए सौभाग्य था। फिर डिनर के बाद हमने कमरे के बाहर दो चारपाई लगाई और अलाव जला लिया। मैंने जीजू से फोन लगाकर बात की और झील के बारे में काफी बातें भी बताईं।

अलाव के सामने चाय पीते-पीते…
“बसन काका, आप अपने बारे में कुछ बताया नहीं?” मैं।
“बताने जैसा कुछ नहीं है…” बसन गहरी सांस छोड़ते हुए। 
“ परिवार?” .. मैं। 

थोड़ी देर चुप रहने के बाद, एक लंबी सांस लेकर उन्होंने अपनी पूरी गृहस्थिति बताई कि वो किस तरह से बिहार के एक छोटे से गाँव में अपने परिवार के साथ रहते हैं। बसन काका पेशे से एक किसान थे जिनके पास तीन बीघा जमीन थी, जिसमें उनके परिवार का पालन-पोषण हो जाता था। मगर ऊपर वाले को ये मंजूर नहीं था और कुदरत की एक कठिनाई ने उनका सब कुछ एक पल में छीन लिया। अब उनके पास अपनी फूटी किस्मत में पछताने के अलावा कुछ नहीं बचा था।

“और तब से मैं यहाँ आ गया। अपनी जान जोखिम में डालकर पैसे कमाता हूँ और हर महीने घर भेजता हूँ।” बसन अपनी पूरी बात बताया। 

ये सब सुनकर मैं अलग वियोग की कल्पना करने लगा। उनकी दुःखभरी घटना सुनकर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई आगे पूछने के लिए। चारों तरफ शोकपूर्ण वातावरण बन चुका था, शायद ये रात भी उनके हृदय पीड़ा को महसूस कर रही थी। मेरी भी आँख लग गई उसी बीच।

अचानक मेरी छठी इंद्रि जागृत हुई और मेरी नींद टूट गई। तभी मुझे कमरे में किसी की मौजूदगी महसूस हुई, परछाई देखी। पहले तो लगा बसन काका होंगे, पर जब मुझे ज्ञात हुआ कि बसन काका तो मेरे बगल में ही खर्राटे मार रहे हैं और अलाव में भी लकड़ियां खत्म हो चुकी थीं। तब मेरा माथा ठनका और मैं भयभीत मुद्रा में कमरे की ओर बढ़ गया। मैंने धीमी आवाज में बसन काका को आवाज लगाई:

“बसन काका… बसन काका… उठो, कमरे में कोई घुस गया है।” मैंने दबी आवाज़ में कहा। 

आवाज लगाने के बावजूद वो नहीं उठे। तो मैंने उनके उपर जैसे ही हाथ रखा, वो भी हड़बड़ाते हुए उठ गए। मैंने मुंह पर उंगली रखते हुए चुप रहने का इशारा किया और कमरे की तरफ देखने के लिए बोला।

मैं अलाव में से एक लकड़ी उठा ली और हम दबे पांव कमरे की तरफ बढ़ने लगे। कमरे का दरवाजा खुला था और खिड़की भी। अब मेरी भी धड़कने तेज हो गई थीं। बसन काका कमरे में पहुँचते ही सोलर लैंप का स्विच चालू कर दिया। कोई नहीं था। हमने पूरा कमरा छान मारा।

“शायद तुमने कोई सपना देखा होगा, मंतू।” (खुद को तसल्ली देते हुए) बसन। 

“नहीं-नहीं, मैंने कोई सपना नहीं देखा। मैंने पक्का किसी की परछाई देखी थी।” (चिंतित होकर) मैं। 
“तो कहां है?” बसन। 

बहुत समझाने के बाद मुझे भी लगने लगा कि शायद ये मेरा वहम होगा। रात के 3:30 AM बज चुके थे। फिर हम दोनों सोने चले गए। परंतु मुझे नींद नहीं थी। अजीब है, ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं पहले से ही सो रहा हूँ। फिर मैंने नींद आने तक हिंदी गाने सुना और आँख लग गई।

फिर मैंने नींद आते तक हिंदी गाने सुना और आँख लग गई। सुबह टैंकर ट्रक आ चुका था और बसन काका ने फिल्टर मशीन चालू कर दी थी। दिन में चार-पाँच बार टैंकर ट्रक आते हैं। हमारा काम बस फिल्टर मशीन चालू करके टैंकर भरना रहता है। इसी पानी के भंडारण का प्रयोग कोल्ड्रिंक निर्माण में किया जाता है। मुझे काम पसंद आया। वजह यह थी कि यहाँ वो सभी चीज़ें मिलीं जो मुझे चाहिए थीं। काम करते वक्त कोई रोक-टोक नहीं, शांत वातावरण, पूरी आज़ादी, और साथ में तनख्वाह तो मिल ही रही थी। मैं सोच रहा था, इतना सब मिलने के बावजूद, पता नहीं क्यों लोग यहाँ काम करने से डरते हैं? मगर मेरे इस प्रश्न का उत्तर भी मुझे बहुत जल्द मिलने वाला था।

चार दिन बिना किसी समस्या के गुजर चुके थे। पांचवे दिन की रात हम दोनों गहरी नींद में सो रहे थे। मेरी अचानक नींद खुली और बसन काका भी झट से बिस्तर से उठ बैठे।

“है राम! ये क्या हो रहा है?” बसन। (झील की तरफ देखते हुए)

फिल्टर मशीन चालू थी। रात के 2:30 बजे यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी। हम हैरान थे नजारे को देखकर।
“ये कैसे हो सकता है?” (बड़बड़ाते हुए झील की तरफ बढ़ने लगे)

“आपको पक्का याद तो है ना? आपने अच्छे से बंद तो किया था न इसे?” मैं भी उठ गया था। 
“हाँ रे, बाबा… मुझे पक्का पता है मैंने हर बार की तरह बंद कर दिया था। पता नहीं ये कैसे चालू हो गई।”(फिल्टर मशीन को बंद करते हुए) बसन। 

“तो फिर ये चालू कैसे हो सकती है अपने आप? यहाँ तो दूर-दूर तक कोई नहीं है।” (चिंतित होकर) मैं भी अब थोड़ा घबरा गया। 
“यही बात मुझे समझ नहीं आ रही है।” बसन। 
“और हम्म…!” मैं। 

बसन काका ने चुप होने का इशारा किया।
“श्श्श…!” बसन।

और कमरे की तरफ टॉर्च डाली। लैंप की लाइट दो बार बंद-चालू हुई। हम दोनों के रोंगटे खड़े हो गए और दोनों थोड़ी देर के लिए सहम गए, या यूँ कहें हक्के-बक्के हो गए।

फिर हम दोनों दबे पांव कमरे तक पहुंचे, पर फिर भी वहाँ कोई नहीं था।

“ये आखिर हो क्या रहा है हमारे साथ?” मैं मुड़कर देखा। 
कहकर मैं दीवार के सहारे खड़ा हो गया।

“शायद वायर शॉर्टेज होगा?” बसन।(लैंप की जाँच करते हुए)
“और फिल्टर मशीन?” मैं। 
बसन काका के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।

नींद तो दोनों की लगभग उड़ ही गई थी। बसन काका चाय बनाने लगे, तब तक मैंने अलाव सुधार दिया था।

“मैं इस बारे में कंपनी के मैनेजर से बात करूंगा।” बसन (मुझे चाय का कप थमाते हुए)
“तो मेरे जीजू सच कह रहे थे? हैं न? मैं (चाय का चस्का लगाते हुए)

“मेरे साथ इसी प्रकार की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं, मगर मैं तुम्हें सच बोलकर डराना नहीं चाहता था।” बसन (अलाव में लकड़ियां बढ़ाते हुए)

“हम्म… मुझे लगा ही था।” (लंबी सांस लेकर) मैं। 

सुबह उठकर बसन काका ने सर्वप्रथम कंपनी में फोन लगाकर रात की घटित सम्पूर्ण घटना की विवेचना की और मैनेजर से कुछ सुरक्षा के लिए आवश्यक सामग्री की मांग भी की।

जब मैं सोकर उठा तो पाया कि पूरे कमरे में रेत पसरी पड़ी थी।

“कल रात कोई न कोई तो कमरे में आया था!” मैं (रेत को उड़ाते हुए)

कैंपस के पहले ही ट्रक टैंकर द्वारा चीजें भिजवा दी गई थीं, कुछ सब्जियां, राशन और दो कार्बोलिक एसिड के दो डिब्बे। और कैंपस की तरफ से एक विद्युतकार को भी भेज दिया गया था, सोलर लैंप सुधारने के लिए। मैंने पूरे कमरे में कार्बोलिक एसिड का छिड़काव कर दिया और चूहों ने जो बिल बना रखे थे, उनको भी सीमेंट-रेत की सहायता से मरम्मत कर दी। बसन काका के साथ मिलकर फिर कमरे के चारों तरफ कटीले तार भी बिछा दिए।

ये सब करते-करते हमें शाम हो गई थी। दोनों बुरी तरह थक चुके थे। आज हमने जल्दी ही खाना भी बना लिया था और अलाव भी जला दिया।

“अगर मैं पुणे नहीं आया होता तो आज मैं घर होता और अपने दोस्तों के साथ गप्पें लड़ा रहा होता! दिन भर घूमता-फिरता, शाम को घर की डांट खाता। मगर आज वो डांट मुझे बहुत प्यारी लग रही है। घरवाले तो घरवाले होते हैं… हैं न काका?” देखते हुए मैं। 
“रश्मिका की अगले माह में शादी है, घर की बहुत सारी तैयारी करनी है। मुझे किसी भी हालत में वहाँ जाना अति आवश्यक है। अगर लड़के वाले पूछ लें कि लड़की का बाप कहाँ है तो?” बसन अपनी ही धुन में व्यस्त था। 
“बसन काका, ये मैं मन ही मन क्या बड़बड़ा रहा हूँ? तबियत तो सही है ना?” मैं थोड़ा चिंतित होकर। 
“कुछ नहीं, थकान ज्यादा है ना आज!” बसन की आवाज़ में मिथ्या थी। 

फिर मैंने भी ज्यादा नहीं पूछा। मुझे भी अब नींद आने लगी थी, पर मैं बीच-बीच में उठकर अलाव में लकड़ियां डालता रहा।
सुबह कैंपस की तरफ से जवाब आया और एक रजिस्टर्ड पिस्तौल भिजवा दी गई। हमने मांग तो दो की थी, परंतु एक ही प्राप्त हुई।
आज दो ही ट्रक टैंकर आए थे, इसलिए हम दोपहर 3 बजे के बाद खाली बैठे हुए थे।

“तुमने कभी भरी पिस्तौल चलाई है?” बसन ।(निशाना तानते हुए)
“चलाना तो दूर, मैंने कभी वास्तव में पकड़कर भी नहीं देखा है।” बड़ी तजुबता से। 

फिर मैं बसन काका के पास जाकर बैठ गया।

“इससे सही से निशाना लग जाता है?” मैं। 
“लो, तुम खुद ही चलाकर देख लो।” बसन (पिस्तौल मेरी तरफ बढ़ाते हुए)
“आप मजाक तो नहीं कर रहे है…क्या सच में “ बड़ी हैरानी हुई। 
“जल्दी आ जाओ इससे पहले कि मेरा मन बदल जाए। “ बसन। 
“काफी भारी है।” मैं (हाथ में उठाते हुए और झील की तरफ निशान लगाया)
“सेफ्टी ऑन करो…पहले अब ट्रिगर खींचो…” 
“क्या मैं सही कर रहा हूँ??” 
“ हा..परंतु एक ही बार चलाना। हमारे पास गोलियां कम हैं।” बसन थोड़ा दूर हट गया। 

पिस्तौल की "ढाई….. ढाईईई…." की आवाज के साथ मेरी भी चीख निकल गई।

“ क्या हुआ??...मज़ा आया?” बसन। (हँसते हुए)
“बहुत, मगर मेरा हाथ सुन्न पड़ गया है शायद।” मैं अपना हाथ झटकते हुए। 
“पहली बार में ऐसा ही होता है।” बसन वापस पिस्टल के लिए। 

एक हफ्ता गुजर चुका था, सब कुछ सही चल रहा था। हम भी उस घटना को भुला चुके थे। बसन काका के साथ हम अलाव के सामने अपनी-अपनी चारपाई पर पड़े-पड़े बात कर रहे थे।

“काका, तुम्हें क्या लगता है, क्या चीज़ थी वो?” मैं। 
“क्या? किस बारे में बात कर रहे हो? अच्छा…!! उस दिन वाली घटना? (सोचते हुए) पता नहीं! कोई जानवर होगा या फिर शायद कोई चोर-लुटेरा? तुम्हें क्या लगता है?” बसन। 
“जो भी था, उस दिन पिस्तौल की फायरिंग से डरकर भाग गया होगा।” मैं। 
“या फिर सही मौके का इंतजार कर रहा होगा…” बसन। 
“काका, क्या आप आस्तिक हो? मतलब, भगवान को मानते हो?” मैं। 
“पहले मानता था। पर जबसे लोगों को बाड़ में मरते देखा हूँ, तबसे अब नहीं मानता।” बसन गहरी सोच में डूब गया। 

दोनों में चुप्पी छा गई। फिर मैंने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,
“मैं भी नहीं मानता!” मैं….!

दोनों हंस पड़े। फिर बसन काका अपने गाँव, परिवार के बारे में बता रहे थे कि कब आँख लग गई।
फिर अचानक किसी की चीखने की आवाज सुनकर मेरी नींद टूट गई।

“ये तो किसी इंसान की चीख है…!” मैं उठ बैठा। 
फिर से चीख की आवाज आई।

“अरे..!! ये तो बसन काका हैं! अभी तो मेरे साथ बात कर रहे थे।” मैं बड़बड़ाता हुआ भागा। (चारपाई की तरफ देखते हुए)

और हाथ में जो भी आया, उठा कर सीधा आवाज की दिशा में भागने लगा। चीख से पता चल रहा था, कोई उन्हें घसीटकर ले जा रहा था। उस वक्त मेरे पास कुछ भी नहीं था, सिवाय टॉर्च के। फिर भी मैं हिम्मत जुटाकर उस चीज़ का पीछा कर रहा था।

भागते-भागते काफी दूर निकल आया था। मैं रुका। मेरी साँसे फूल आई थीं। मैं बुरी तरह से हांफने लगा था। एकदम से फिर से वो चीख सुनाई दी, परंतु ये वाली काफी नजदीक से थी। मैं फिर से उस आवाज का पीछा करने लगा।

मेरी इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं चिल्लाकर उस चीज़ को भगा सकूँ। थोड़ी देर भागने के पश्चात मैं सहम गया। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। किसी की झाड़ियों के पीछे से दर्द से कराहने की आवाज सुनाई दी।

मेरे दिल की धड़कनें इतनी तेज हो चुकी थीं कि मेरे कानों तक उनकी आवाज़ साफ़ सुनाई पड़ रही थी। मैंने जैसे ही टॉर्च की रोशनी डाली…

“ ओह! ये तो बसन काका हैं…” मैं। 

मैं दौड़कर उनके पास गया। वो बेहोशी की मुद्रा में थे और खून से लथपथ थे, जैसे किसी जंगली जानवर ने बुरी तरह से नोच लिया हो।
उनके हाथ और पैर रस्सी से बंधे हुए थे। मैं रस्सी खोलने लगा। बसन काका कुछ बड़बड़ा रहे थे, साफ़ तो नहीं सुनाई दे रहा था, मगर मुझे वो किसी चीज़ से सावधान कर रहे थे।

“ आपको यहाँ कौन लाया???” मैं घबरा गया था। (रस्सी खोलते हुए)

अचानक मुझे ज्ञात हुआ कि कोई मेरे पीछे खड़ा है। इससे पहले कि मैं मुड़कर देखूँ, किसी भारी-भरकम चीज़ ने मुझ पर हमला किया और मैं वही बेहोश हो गया……

जब मेरी आँख खुली तो मैं अपने आप को एक अज्ञात गुफा में पाया। मेरे हाथ-पाँव बंधे थे। जब मैंने ध्यान से नजर दौड़ाई, तो पाया कि मेरी ही तरह चार और लोग भी कैद थे। वहाँ उनमें बसन काका भी बेहोश पड़े थे। फिर मैंने अंदाजा लगाया कि ये वही लोग थे जो झील की चौकीदारी के लिए भेजे गए थे और जो अभी तक लापता थे।

मैंने धीरे से बसन काका को आवाज़ लगाई, मगर वो अभी तक बेहोशी मुद्रा में ही थे। फिर अचानक किसी के अंदर आने की आहट हुई। दो आदमियों का प्रवेश हुआ। ये साधारण आदमी की तरह नहीं लग रहे थे; करीब सात फीट की ऊंचाई, गठीला और अधनंगा काला शरीर। ये जंगली लोग थे, जैसे हॉलीवुड की फिल्मों में दिखाए जाते हैं।

वे आकर बेहोश लोगों को उठाने लगे। उसी बीच और किसी का आगमन हुआ। यह व्यक्ति थोड़ा हम में से मिलता-जुलता लग रहा था और थोड़े ढंग के कपड़े पहने हुए थे। वह मुखिया था। उसने सेवकों को कुछ इशारा किया, मेरे तो कुछ पल्ले नहीं पड़ा। फिर वह सेवक उसके कानों में कुछ फुसफुसाते हैं और मेरी तरफ इशारा करते हुए कुछ बताते हैं।

अब मेरा शक यकीन में बदल चुका था। किसी महापुरुष ने कहा है न कि जब मनुष्य का अंतिम क्षण आ जाता है, तब उसे उसके बचपन से लेकर पूरी जिंदगी भर की छवियाँ आँखों में तैरने लगती हैं, वैसा ही कुछ हाल उस वक्त मेरा हो गया। पर एक बार और सोचा, जब मेरे पास खोने के लिए कुछ बचा ही नहीं तो डरने का क्या मतलब? एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है?

मैंने बड़ी बहादुरी दिखाते हुए पूछा:
“क्या आप हिंदी समझते हो?” 

वे सब मेरी तरफ घूर कर देखने लगे, जैसे मैंने उन्हें गुस्सा दिलाने वाला सवाल पूछ लिया हो। उनकी आँखों की तेज में गुस्सा और नफरत झलक रही थी। फिर मुखिया ने सेवकों को इशारा करते हुए कुछ बताया।

मैंने फिर से सवाल किया:
“क्या हमने आपका कुछ बिगाड़ा है? कौन हो तुम?” 

उस समय मेरे दिमाग में कई सवाल मंडरा रहे थे, मगर मैं सिर्फ इतना ही पूछ सका। हम सभी को उन्होंने एक कतार में लेकर घुटनों के बल बिठा दिया। उस वक्त तक मुझे दो बातें तो पता चल गई थीं, पहली, इनका हमसे कुछ न कुछ तालुक तो है; दूसरी, ये जानबूझकर हमें अनदेखा कर रहे थे।

इसी बीच एक और कैदी चौकीदार ने विनती भरी आवाज़ में कहा:
“हमने आपका क्या बिगाड़ा है? हमें छोड़ दो!” । 

“तुमने नहीं, तुम्हारे मालिक ने बिगाड़ा है।” मुखिया (गुस्से में)

आख़िरकार उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ ही दी। अब ये भी पता चल गया कि वे हिंदी भी जानते हैं।
“तो इस कदर हमें कैद रखने से क्या होगा?” मैं। 

बसन काका अब होश में आ चुके थे और ठीक लग रहे थे।

“हमने कई बार तुम लोगों को डराकर भगाने की कोशिश की, कई तो डरकर भाग भी गए, परंतु तुम नहीं भागे। हम मजबूरन तुम लोगों को यहाँ लाकर कैद करना पड़े। हम बस तुम्हारे मालिक से बदला लेना चाहते हैं।” मुखिया। 

“तो तुम्हें क्या लगा, हम इस कदर कैद रखने से कोई हमें बचाने आएगा?” बसन। 

वे चुपचाप खड़े रहे। वे समझ गए थे कि उनसे गलती हो गई है।

“आखिर ऐसा क्या किया है तुम्हारे साथ हमारे मालिक ने?” चौकीदार। 
तब जाकर उस दल के मुखिया ने पूरी घटना का विस्तार से बताया:

“इस झील पर हमारी कई पीढ़ियाँ गुजर गई हैं। हम बरसों से इसी झील के आश्रय में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। हमारे सम्पूर्ण जीवन-यापन का स्रोत एक मात्र यही झील थी। झील हमारी मां थी। उसी के सहारे हम कृषि और कई जरूरत की चीजें प्राप्त करते थे।

सबकुछ सही चल रहा था। मैं उस दिन को आज भी नहीं भूलता जब शहर से कुछ लोग आए। उनमें से एक तुम्हारा मालिक भी था। उसने गांव में बिजली लाने और गांव के हित की बातें करके हमसे कुछ कागजों के टुकड़ों पर अंगूठों के निशान लगवा लिए।

गांव के भले लोग क्या जानते थे कि भेड़ की भेष में भेड़िया था वो। हमें क्या पता था कि वह अंगूठों के निशान नहीं, बल्कि हमारी जिंदगी छीनकर ले गया है। हम तो हकीकत से अंजान और उम्मीद लगाए बैठे थे।

कुछ दिन बाद वह आया मशीनों और बहुत सारे हथियारबंद लोगों के साथ। मशीनों ने हमारे घरों और बस्ती को तहस-नहस कर दिया। जब मैंने तुम्हारे मालिक के आगे मशीनों को रुकवाने के लिए गिड़गिड़ाया, तो उसने वो कागज के टुकड़े हमारे ऊपर फैंककर हमें बंदी बनवाकर इस गुफा में छोड़ दिया—मरने के लिए। कई सारे बच्चे और वृद्ध तो भूख और बीमारी से ही मर गए। अब हम कुछ ही लोग बचे हैं। हमारे पास अब बदला लेने के अलावा कुछ नहीं बचा।” मुखिया। 

हम सब मुखिया की बातें ध्यान से सुन रहे थे। सभी तरफ खामोशी और शांति थी।

मैंने साहस करके पूछा:
“अगर तुम्हें हमारा मालिक मिल जाए तो तुम हमें छोड़ दोगे?” 

“हां, मगर तुम ये कैसे करोगे?” मुखिया।

“वो सब तुम हम पर छोड़ दो। मेरे पास एक तरकीब है।” (लंबी सांस छोड़ते हुए)

“कैसी तरकीब, मंतू?” बसन। 

मैंने सबको मेरी तरकीब सुनाई। सब तैयार हो गए, मगर योजना के असफल होने का भय भी था। परंतु उस वक्त हमारे पास दूसरा कोई उपाय नहीं था। "एक गलत कदम और सारा खेल खत्म"।


बसन काका ने कंपनी के मैनेजर को फोन किया:

मैनेजर: हेलो…
बसन काका: हेलो, सर, मैं बसन तिवारी झील से बोल रहा हूं।
मैनेजर: हां बसन, बोलो!
बसन काका: मुझे बड़े साहेब से जरूरी बात करनी है।
मैनेजर: क्या बात बोलनी है, मुझे बोल दो मैं बोल दूंगा।
बसन काका: थोड़ी निजी बात है जो सिर्फ उन्हें ही बतानी है।
मैनेजर: हम्म… लाइन पर बने रहो, मैं बात करवाता हूं।

(आदित्य दामोदर - दामोदर कोल्ड्रिंक्स के मालिक)

दामोदर: हेलो?
बसन काका: हेलो, साहेब, मैं बसन तिवारी बोल रहा हूं, झील से।
दामोदर: हां, बोलो मुझसे क्या बात करनी थी?
बसन काका: साहेब, यहाँ कुछ जंगली प्रजाति के लोग आ गए हैं।
दामोदर: क्या बकवास कर रहे हो? (बड़ी आवाज़ में)
बसन काका: हमने अब उनको कैद कर लिया है। आप जल्दी आ जाएँ। इनके पास किसी प्रकार के कागजात भी हैं…
दामोदर: तुमने किसी और को बताया तो नहीं?
बसन काका: सबसे पहले आपके यहाँ ही फोन किया है।
दामोदर: शाबाश! ठीक है, तुम उनको पकड़कर ही रखना। मैं अभी पहुँच रहा हूँ।
बसन काका: हेलो, हेलो… फोन कट गया।

“ये सब तो ठीक है, परंतु इसकी क्या गारंटी है कि वह अकेला ही आएगा?” एक चौकीदार बोला। 

“अक्सर इंसान जल्दबाज़ी में अपना आपा खो बैठता है। वह जरूर अकेला आएगा। अब तुम सब अपनी-अपनी जगह संभाल लो।” मैं। 

एक घंटा भी नहीं हुआ था कि एक सफेद कार आई। उसमें से बहुत जल्दी में एक आदमी सूट-बूट में उतरा। वह आदित्य दामोदर ही था।
साथ में उसने अपने ड्राइवर को भी लाया। वह उतरकर सीधा आवाज लगाते हुए कमरे में घुस गया और पूरा कमरा छान मारा।
बाहर आकर जोर से बसन का नाम लेकर चिल्लाने लगा।

“बेवकूफ बनाया!” दामोदर (जमीन पर पैर पटकता हुआ)

फिर उसने ड्राइवर को इशारा करते हुए गाड़ी शुरू करने को कहा, मगर गाड़ी के टायर पंचर थे। (योजना के अनुसार रास्ते में हमने नुकीली खिल बिछा दी थी)।

अब दामोदर का चेहरा गुस्से से लाल-पीला हो चुका था। वह आगबबूला हो गया।

“बसन… तुम कहाँ हो???” दामोदर। 

तभी मुखिया उसके सामने आ जाता है। उसे देख कर दामोदर और भी ज्यादा परेशान हो जाता है।

“क्यों, बे साले! बूढ़े, तू अभी तक मरा नहीं?” दामोदर। 
“तूने कई मासूमों की जान ली है और कई को बेघर भी किया है।”
मुखिया। 

दामोदर मुखिया के सामने जाकर खड़ा हो जाता है और आँखों में आँखें डालकर:
“फिर भी तू मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकता, बूढ़े!” 

“आखिर क्यों? क्यों किया ऐसा हमारे साथ? हमने तेरा क्या बिगाड़ा था?” मुखिया। 

“पैसा, पैसा… पर तुझे क्या पता इसकी माया?” दामोदर झील की तरफ इशारा करते हुए:
(हंसने लगा)

फिर बंदूक निकालकर मुखिया के माथे पर रखते हुए:
“तैयार हो जा, तुझे भी तेरे परिवार के साथ भेज रहा हूँ।”

जैसे ही उसने ट्रिगर दबाना चाहा, झाड़ियों के पीछे छुपे दल ने बिजली की तेजी से तीर चलाए और बंदूक फिक्की कर दी। झट से आकर दामोदर और उसके ड्राइवर को बंदी बना लिया। दामोदर को सोचने-समझने का समय ही नहीं मिला।

“मुझे तुम कब तक कैद करके रखोगे? पुलिस ढूँढ लेगी तुम्हें।” दामोदर (हंसने लगा)
“ढूँढ तो लेगी, मगर तुम्हें सीधे जेल भेजने के लिए।” बसन। 
“ह्ह्ह्ह….!!, मेरी कमिश्नर तक पहुँच है, कुछ नहीं उखाड़ सकते।” दामोदर घमंड में कहता है। 
“हाँ, लेकिन यहाँ कोई कमिश्नर नहीं आएगा तुझे बचाने। अब तक तो टीवी के हर न्यूज चैनल पर सीधा प्रसारण होगा तेरा।” मैं। 
“ये क्या बकवास है?” दामोदर चिढ़ते हुए। 

(हमने झाड़ियों के पीछे से वीडियो रिकार्डिंग कर ली थी।)

“हमने वो सारी बातें रिकॉर्ड कर ली थीं जो तूने अभी-अभी इकबालिया बयान दिया है। पुलिस भी अभी पहुँचती ही होगी।” मैं। 

थोड़ी ही देर में पुलिस और मीडिया टीम भी पहुँच गई। मीडिया टीम मुखिया और दल के आदमियों से बयान ले रही थी। तब तक एहतियात दल भी पहुँच चुका था। मौके पर वहाँ के कलेक्टर ने घटना का मुआवजा किया और दावा किया उचित सुविधाएँ उपलब्ध कराए जाने का। सरकार ने भी पीड़ितों को मुआवजा देने और गांव में बिजली पहुंचाने का वायदा किया। पुलिस ने आदित्य दामोदर को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का आश्वासन दिया।

फिर बाद में हमारा भी बयान लेकर हमें जाने दिया।

“हो सके तो हमें माफ कर देना। बदले की आग ने हमें अंधा कर दिया था, हम अपनी इंसानियत भूल गए थे।” मुखिया। (हाथ जोड़कर)
“इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं।” बसन। 
“अरे कोई नहीं। ये तो हमारा दायित्व बनता है। आजकल मनुष्य अपने स्वार्थ और मोह-माया का गुलाम है। वर्तमान में मनुष्य का भौतिक वस्तुओं से आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है, जिस कारण वह अपने आध्यात्मिक मार्ग से विचलित होता जा रहा है। ये कुछ ज्यादा ही फिल्मी हो गया, न?” मैं ये बोलते हुए अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस कर रहा था। 

“ह्म्म्म…!!” सब एक साथ। 
कहकर सब हँसने लगे और हाथ जोड़कर विदा ली।
कैंपस पहुँचते ही सभी कर्मचारियों ने जोर-शोर से हमारा अभिवादन किया। जीजू मुझे नीचे उतरते ही गले से लगा लिया।

“तू ठीक तो है न? मुझे माफ कर देना… सोनल जीजू। (चिंतित होकर)
“अरे बाबा, मैं ठीक हूँ, एकदम टनाटन…मैं।(हँसते हुए)

एंबुलेंस जख्मी चौकीदारों को सिटी हॉस्पिटल में रेफर कर रही थी। बसन काका को भी। (हॉस्पिटल का सारा बिल कंपनी भुगतान करती है)।
वो मुझे देखकर गले से लिपट गए। आह! क्या दर्द था उनके लालित्य में।

“सब ठीक है काका… अब आप ठीक हो जाओ जल्दी।” मैं। 

जब एंबुलेंस ले जा चुकी थी, तो मुझे अपने आप से अजीब सी घृणा होने लगी। भले ही हम एक-दूसरे को थोड़े समय से जानते हैं, मगर मानो रिश्ता बरसों का लगने लगा, अटूट बंधन बन गया।
फिर मैं कमरे में जाकर चैन से आराम करने लगा और मुझे नींद भी आ गई।

जीजू मुझे आवाज़ दे रहे थे:
“मंतू, उठ, मंतू… सुबह हो गई?

मैं एकदम से उठा, मानो भयानक सपना देख रहा था। मेरे आँखों के सामने अंधेरा छाया हुआ था।

“क्या हुआ? कोई डरावना सपना देखा क्या?
“ह्ह्ह्ह, ये सपना था??” मैं सोच में पड़ गया। 
मुझे उस वक्त सब कुछ एक खौफनाक सपने कीबतरह ही लग रहा था। मेरे दिमाग में उस खौफनाक झील के दृश्य घुलने लगे और मेरे फिर से रोंगटे खड़े हो गए। 

“तबियत तो ठीक है?” सोनल जीजू (शरीर का तापमान जांचते हुए)
“क्या…?? नहीं मैं बस थोड़ा सा थका हुआ महसूस कर रहा हूँ।” 
“ठीक है फिर…तुम आराम करो। वैसे भी आज कंपनी में मीटिंग है, कल की दुर्घटना को लेकर।” सोनल जीजू। 

“क्या हमसे पूछताश होंगी…??” मैं। 
“ नहीं.. तुम्हारा सारा बयान पहले ही रिकॉर्ड कर लिया है..अब बस हस्ताक्षर करने है तुम्हें। और कुछ करने की जरूरत नहीं है। “ सोनल जीजू। 

उस दिन मीटिंग में मीडिया और न जाने जाने तरह तरह के लोग आए, हमसे फ़िर से पूछताश हुई। हम सबने वहीं बयान दिया जो हमने देखा और अनुभव किया था। फ़िर मैं मीटिंग के बाद यू ही कैंपस के बाहर घूमने निकल गया। और उस दिन मैं देर रात तक इधर उधर भटकता रहा और मुझे पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई थी। 

फिर जब मैं शाम को कैंपस में पहुंचा तो पता चला कि हमारा प्रमोशन हो गया है और हमें कुछ बोनस भी दिया जा रहा है। हमारी बहादुरी और ईमानदारी की एक कहानी अख़बार में भी छपने वाली थी। हम सब ख़ुश थे…।

तीन हफ़्ते बाद…!
मैं गाड़ी में बैठकर जा रहा था, खिड़की के बाहर देखता हूँ सोच रहा था। और अपने सफ़र का आनंद उठा रहा था। 

मैंने कई बार सोचा कि कंपनी छोड़ दूं और दूसरी अच्छी जगह पर काम कर लू। मगर मैं कभी वो कंपनी छोड़ नहीं पाया। कंपनी में अब मेरी अच्छी पहचान बन चुकी है, सब जानते है मुझे और मेरी काबिलियत को भी। बल्कि अब तो कंपनी के सुपरवाइजर भी मेरे दोस्त बन गए है…अक्सर दोपहर के खाने के बाद या शाम को मैं सबको उस झील की कहानी सुनाता हूं और वो लोग बड़े ध्यान से मेरी कहानी सुनते भी हैं। कहानी सुनाते सुनाते बीच में जब बसन काका का जिक्र होता है तो मैं थोड़ा भावुक भी हो जाता हूं।है, वो अब कंपनी छोड़कर बिहार जा चुके है.. अस्पताल का सारा खर्चा कंपनी ने दिया और बोनस का पैसा भी मिला। खैर अब यही है…

अब गाड़ी जंगलों के बीच में से गुजरने लगी…
मुझे अभी फ़िर से झील पर जाने के लिए प्रस्ताव दिया गया है, बहुत अच्छा पैसा मिल रहा है। इतना की मैं अपना एडमिशन एक अच्छी यूनिवर्सिटी में करवा सकता हूँ, छोटे की स्कूल फ़ीस, माताजी की आंखों का इलाज सब कुछ बड़े आराम से हो जाएगा। और मेरे साथ जो हुआ उस झील पर उसके बावजूद मैं इस प्रस्ताव को मना नहीं कर सका। गाड़ी में बैठे बैठे ही मुझे अब झील दिखने लगी…और मैं जैसे देख कर तड़प उठा। मेरा पुराना ज़ख्म ताज़ा हो गया। मैं फिर से सोच में डूब गया…और उस वक्त मेरे दिमाग में एक ही सवाल आया, क्या मैंने इस झील पर आकर फिर से कोई गलती तो नहीं कर दी?