Lekin Ki Dyniya in Hindi Letter by RTJD books and stories PDF | लेकिन की दुनिया

The Author
Featured Books
  • सपनों का सौदा

    --- सपनों का सौदा (लेखक – विजय शर्मा एरी)रात का सन्नाटा पूरे...

  • The Risky Love - 25

    ... विवेक , मुझे बचाओ...."आखिर में इतना कहकर अदिति की आंखें...

  • नज़र से दिल तक - 18

    अगले कुछ दिनों में सब कुछ सामान्य दिखने लगा — पर वो सामान्य...

  • ट्रक ड्राइवर और चेटकिन !

    दोस्तों मेरा नाम सरदार मल है और मैं पंजाब के एक छोटे से गांव...

  • तन्हाई - 2

    एपिसोड 2तन्हाईउम्र का अंतर भूलकर मन का कंपन सुबह की ठंडी हवा...

Categories
Share

लेकिन की दुनिया

लेकिन की दुनिया 

कहते हैं - ‘लेकिन’ से पहले कही गई सारी बातें झूठी होती हैं,
और यह बात सच भी प्रतीत होती है।

इसका जन्म, सच की शुरुआत और झूठ के अंत के मध्य कहीं होता है।
इस सच और झूठ को मिलाने वाली कड़ी का नाम ही ‘लेकिन’ है।
लोग अक्सर इसे पक्षपाती समझ बैठते हैं, जबकि सच इसके बरअक्स है।

शब्दों की दुनिया में ‘लेकिन’ की ख्याति कोई बहुत अच्छी नहीं रही है।
इसे झगड़ालू और अकड़ू माना जाता है।
यह किसी को तीर की तरह चुभता है, तो किसी को तिनके-सा सहारा देता है।
शब्दों की इस दुनिया में इसे जिद्दी और संदेही की उपाधि प्राप्त है।

‘लेकिन’ के दायरे वक्त, जगह और हालात देखकर बदलते रहते हैं।
साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता द्वारा उम्मीदवार से कहा गया ‘लेकिन’
दो बुज़ुर्ग व्यक्तियों की बातचीत में बोले गए ‘लेकिन’ से कहीं अधिक प्रभावशाली होता है।
और उससे भी अधिक घातक है -
अस्पताल में ऑपरेशन थिएटर से बाहर आकर डॉक्टर के मुंह से निकला ‘लेकिन’।

इसी तरह, ‘लेकिन’ के मायने वक्त, जगह और हालात तय करते हैं।

जहां ‘लेकिन’ का ज़िक्र अधिक बार हो जाता है,
वहां उस बात का वज़न कम हो जाता है, उसकी एहमियत घट जाती है।
वहीं एक सटीक जगह पर रखा गया एक ‘लेकिन’,
कई ‘लेकिन’ से अधिक बलवान होता है।

शब्दों की दुनिया में इसकी बदनामी का एक कारण यह भी है
कि इसने समझौते बहुत कम कराए हैं,
जबकि झगड़े और युद्ध की चिंगारी कई बार फूंकी है।
इसने दिल जोड़े कम हैं, तोड़े अधिक,
और तारीफ़-लायक कोई काम भी बहुत कम किया है।

यह उस कंकड़ की तरह है,
जो चावल खाते समय अचानक मुंह में आ जाए
और जायका बिगाड़ दे।
इसलिए इसे चुभने वाला शब्द कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
जहां कहीं इसका आगमन होता है,
वहां की फिज़ा बदल जाती है,
हंसते-खिलते चेहरे मायूसी से भर जाते हैं।

‘लेकिन’ के घातक प्रहार और इसकी विषाक्तता को कम करने के लिए,
इसके प्रयोग से पहले अक्सर कई बड़े-बड़े शब्दों की कुर्बानी दी जाती है।
फिर भी, इसकी चोट की भरपाई करना आसान नहीं होता।

यह भी कहा जा सकता है कि
जो व्यक्ति ‘लेकिन’ अधिक बोलता है,
वह या तो अच्छा आलोचक होता है
या बुरा वक्ता / संवादी।

इसलिए अपनी भाषा में ‘लेकिन’ का प्रयोग ज़रूरत के अनुसार करना चाहिए।
यह तुम्हारे विचारों का वज़न बढ़ा देता है,
उनमें गंभीरता और जटिलता भर देता है,
परंतु ज़रूरत से अधिक होने पर संतुलन बिगाड़ देता है।
इसकी तुलना व्यंजनों में नमक से की जा सकती है-
न अधिक, न कम।

हमने ‘लेकिन’ को जितना गंभीर बना दिया है,
उतनी ही नकारात्मक इसकी छवि बन गई है,
कि अब हम इसकी तारीफ़ करना भूल गए हैं।

‘लेकिन’ की बलता (शक्ति) का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है
कि यह शब्द होकर भी स्वतः अल्पविराम का काम कर देता है।
जहां-जहां इसका ज़िक्र होता है,
वहां एक पल के लिए ठहराव महसूस होता है,
बोलने वाले के हाव-भाव बदल जाते हैं
और लिखने वाले की कलम रुक जाती है।

और जहां बात करने के लिए कोई शब्द न मिले,
वहां ‘लेकिन’ का प्रयोग कर
एक नया वाक्य या विचार गढ़ा जा सकता है।
इस तरह इसे शब्द-पूरक के रूप में भी देखा जा सकता है।

भाषा के प्रवाह को तोड़ देने वाला यह शब्द,
नेताओं के मुंह से उतना नहीं चुभता,
न ही तकलीफदेह लगता है।
नेता के मुंह से निकला हर ‘लेकिन’
किसी न किसी तरह यक़ीनी लगता है -
इसलिए नहीं कि वे झूठ बोलते हैं,
बल्कि इसलिए कि नेता ‘लेकिन’ का सही इस्तेमाल करना सीख जाते हैं।
यही कारण है कि नेता, भाषा-विद्वानों से अधिक संवादी माने जाते हैं।
‘लेकिन’ लगातार इसी प्रयास में लगा है कि उसे शब्द से बढ़कर एक अलग दर्जा दिया जाए। जहां भाषा का कोई उसूल इस पर लागू नहीं होता हो, यह स्वतंत्र है। इसकी एक अलग ही दुनिया मौजूद है जिसे “लेकिन की दुनिया” कहा जाता है।