"कुछ कहानियाँ कभी लिखी नहीं जातीं… वे बस जी जाती हैं — दो लोगों के बीच, हमेशा के लिए अधूरी।"
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अध्याय 1 : वापसी आना
आज बहुत दिनों बाद मैं फिर से वापिस आ रही हूँ।
सड़कें वही हैं, हवाओं में वही खुशबू है।
लेकिन इस बार मेरे अंदर कुछ बदला है।
मेरे हाथ में वही पुराना बैग है जो मैंने उसे दिया था जब उसने हँसते हुए कहा था —
“तू चली जा न माया, कोई फर्क नहीं पड़ता।”
लाख बार मन को कहा, भूल जा सब कुछ…
पर “नैना”… मेरे पापा का पुराना घर सामने दिखता है तो सांसें जैसे रुक सी जाती हैं।
“नैना, पापा ने पुराना घर फिर से बेच दिया क्या?”
मैंने खुद से पूछा, पर जवाब हवा में ही रह गया।
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अध्याय 2 : तुम्हारा राज़
वो रात याद है जब तुमने कहा था,
“कभी किसी को मत बताना माया, लेकिन मेरी लाइफ का एक पेज ऐसा है…”
मैंने झट से बीच में टोका —
“राज़ मत खोलो, प्रोफेसर।”
माया कहकर तुमने हँसते हुए मेरी तरफ देखा था,
लाल टीशर्ट में, ब्लैक लेदर वॉच पहने हुए, वो रात किसी जादू से कम नहीं थी।
> “तू पागल है… कोई पढ़ेगा तो सोचेगा ‘किसी को ये पढ़ना चाहिए’।”
मैंने कहा था — “कभी किसी को जरूरत पड़ेगी।”
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अध्याय 3 : डायरी और डॉक्टर
मेरे पापा के दोस्त, डॉ. खन्ना के पास वही डायरी थी।
वही डायरी जो तुम्हारे कॉलेज के दिनों की थी।
तुम्हारे बचपन के दोस्त, उन्नाव वाले डॉक्टर, वही।
“उन्होंने कहा था — बेटा, ये खन्ना सर की नहीं, तुम्हारे पापा की दोस्त की डायरी है।”
मैंने डायरी खोली और पहली लाइन पढ़ी —
> “माया, तुझे हँसते हुए देखना मेरे लिए किसी प्रार्थना से कम नहीं।”
मुझे नहीं पता क्यों, पर उस वक्त मेरी आँखें नम हो गईं।
कहीं न कहीं, मैं तुम्हारी लिखी हर बात महसूस कर सकती थी।
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अध्याय 4 : फिल्महॉल — एक अप्रत्याशित डेट
माँ ने कहा — “तू पापा से मिलने जा रही है न, जल्दी आ जाना।”
मैं मुस्कुराई और कहा — “कॉलेज का काम है, जल्दी लौट आऊँगी।”
और फिर वो दिन...
जब बारिश में मैं मरीन ड्राइव पहुँची।
“क्या तुम पागल हो?”
तुम्हारा पहला वाक्य वही था।
> “तुम्हारे जैसा पागलपन तो चाहिए था मेरी लाइफ में,”
मैंने कहा था, और तुम बस मुस्कुरा दिए थे।
अध्याय 5 : चाय और खामोशी
वो चाय की दुकान अब भी वहीं है।
उसी जगह पर, जहाँ तुम हमेशा दो कप चाय मंगवाते थे — एक मीठी, एक बिन शक्कर की।
“तू अब भी बिना शक्कर की ही पीती है?”
अगर तुम आज होते, तो यही पूछते।
मैंने दुकानदार से पूछा — “भाई, वही चाय मिलेगी क्या?”
वो मुस्कुराया, बोला — “आप तो वही हैं न जो पहले इनके साथ आया करती थीं?”
मैं बस मुस्कुरा दी। जवाब नहीं दे पाई।
कभी-कभी खामोशियाँ ही सबसे सही जवाब होती हैं।
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अध्याय 6 : वो आखिरी झगड़ा
“माया, तू समझती क्यों नहीं कि मैं तेरे लायक नहीं हूँ।”
तुम्हारी आवाज़ आज भी कानों में गूंजती है।
> “और मैं तेरे बिना नहीं जी सकती।”
मैंने कहा था, रोते हुए।
तुमने बस इतना कहा —
“जाना पड़ेगा।”
वो शब्द जैसे किसी ने सीने में तीर की तरह चुभो दिए हों।
मैंने कुछ नहीं कहा। बस तुम्हें जाते हुए देखा।
बारिश तेज़ होती जा रही थी, और मेरे अंदर सब कुछ सूख गया था।
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अध्याय 7 : मुलाक़ात — सालों बाद
कहते हैं वक्त सब ठीक कर देता है।
पर वक्त सिर्फ हमें जीना सिखाता है, भूलना नहीं।
मैं मुंबई लौटी थी एक प्रोजेक्ट के लिए।
सामने देखा तो तुम खड़े थे — वही मुस्कान, बस आँखों में अब थकान थी।
“माया…”
इतने साल बाद तुम्हारा नाम तुम्हारे लहजे में सुनना, जैसे पुरानी धूप की खुशबू।
मैंने बस इतना कहा —
“कैसे हो?”
तुमने हँसकर जवाब दिया — “अब भी तेरी कहानी अधूरी है।”
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अध्याय 8 : आखिरी पन्ना
आज वही डायरी बंद कर रही हूँ, जो तुमने शुरू की थी।
तुम्हारे शब्दों से, तुम्हारी सांसों से, और उन अधूरी शामों से भरी हुई।
> “कहानी खत्म नहीं हुई, बस रुक गई है थोड़ी देर के लिए…”
यह तुम्हारी आखिरी लाइन थी।
मैंने नीचे लिखा —
“रुकना ही शायद प्यार का दूसरा नाम होता है।”
डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा था —
> “The End”
पर मैं जानती हूँ,
कहानी कभी खत्म नहीं होती।
समाप्त
- Tanya Singh