पुरस्कार समारोह की चकाचौंध और 'चंद्रकांता' की ऐतिहासिक सफलता ने अनन्या की दुनिया बदल दी थी। रातों-रात वह एक गुमनाम शोधार्थी से साहित्यिक दुनिया का चमकता सितारा बन गई थी। मीडिया ने उसे "विरासत की खोजकर्ता" का ख़िताब दिया, लेकिन तालियों की गूंज और कैमरों की फ्लैशलाइट के बीच, अनन्या को एक अजीब सा खालीपन महसूस हो रहा था।
एक शाम, अपने छोटे से फ्लैट की खिड़की पर बैठी अनन्या, पाठकों के भेजे खतों का ढेर देख रही थी। तभी एक लिफ़ाफ़े पर उसकी नज़र ठहर गई। यह ख़त इलाहाबाद के पास एक छोटे से कस्बे की युवती का था। उसने लिखा था - "आपकी किताब ने मुझ जैसी न जाने कितनी लड़कियों को पंख दिए हैं। मैं भी लिखना चाहती हूँ, पर यहाँ कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं है। क्या आप मेरी मेंटॉर बनेंगी?"
इस एक सवाल ने अनन्या के मन में हज़ारों सवाल खड़े कर दिए। क्या 'चंद्रकांता' को खोज लेना ही काफ़ी था? उन अनगिनत प्रतिभाओं का क्या, जो सही मार्गदर्शन के अभाव में गुमनामी के अंधेरे में ही दम तोड़ देती हैं?
अचानक उसके कानों में सुभद्रा के शब्द गूंजे - "शिवानी जी सिर्फ एक लेखिका नहीं, एक मशाल थीं। उन्होंने कई नए लेखकों की अँधेरी राहों में रौशनी की थी।"
बस, यही वो पल था! अनन्या को लगा जैसे उसे अपनी ज़िंदगी का नया मकसद मिल गया हो। क्यों न वो शिवानी जी की इसी विरासत को आगे बढ़ाए? एक ऐसा मंच तैयार करे, जो देश के कोने-कोने में छिपी लेखिकाओं को उनकी आवाज़ दे सके।
इस ख़याल ने अनन्या को एक नई ऊर्जा से भर दिया। उसने तुरंत सुभद्रा को फ़ोन मिलाया और अपना आइडिया बताया। सुभद्रा की आवाज़ में भी वही जुनून था, "अनन्या, इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता! शिवानी जी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी। मैं पूरी तरह तुम्हारे साथ हूँ।"
अगले कुछ हफ़्तों के भीतर "शिवानी साहित्य संस्थान" की नींव रखी गई, एक छोटे से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म के रूप में। मकसद साफ़ था - नई प्रतिभाओं को खोजना, उन्हें तराशना और उनकी कहानियों को दुनिया तक पहुँचाना।
शुरुआत बहुत मामूली थी - एक वेबसाइट और एक सोशल मीडिया पेज। पर धीरे-धीरे, उम्मीद की यह छोटी सी लौ मशाल बनने लगी। देश भर से युवा अपनी रचनाएँ भेजने लगे। अनन्या हर कहानी को पर्सनली पढ़ती और उन्हें अपना फ़ीडबैक देती। उसे एहसास हुआ कि 'चंद्रकांता' को खोजना तो सफ़र की शुरुआत थी, असली काम तो अब शुरू हुआ था।
एक दिन, उसे एक 65 साल की महिला का ईमेल मिला। उन्होंने लिखा था कि वे जीवन भर कविताएँ लिखती रहीं, पर उन्हें किसी को दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं। अनन्या की कहानी ने उन्हें हौसला दिया था। जब अनन्या ने वे कविताएँ पढ़ीं, तो हैरान रह गई - उनमें ज़िंदगी के खट्टे-मीठे अनुभवों का निचोड़ था। उसने तुरंत उन्हें प्रकाशित करने का फ़ैसला किया।
लेकिन यह नया सफ़र फूलों की सेज नहीं था। समय की कमी, पैसों की तंगी और कभी-कभी निराशा भी उसे घेर लेती। एक रात, थकान से चूर अनन्या ने अपनी डायरी खोली, जो अब उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी। उसने लिखा -
"कभी-कभी लगता है, मैं हार रही हूँ। फिर शिवानी जी का संघर्ष और दादी का अटूट विश्वास याद आ जाता है। उन्होंने मुझसे कहीं ज़्यादा मुश्किलें झेली थीं। मेरे पास तो इतनी मदद है... और फिर से हिम्मत लौट आती है।"
उसने एक बड़ा फ़ैसला किया। उसने अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि पूरा समय संस्थान को दे सके। यह एक बड़ा रिस्क था, पर सपनों के लिए रिस्क तो उठाना ही पड़ता है।
संस्थान का पहला वार्षिकोत्सव एक यादगार लम्हा था। देशभर से चुनी गई दस नई लेखिकाओं की पहली किताबें लॉन्च हो रही थीं। स्टेज पर बैठी उन लड़कियों के चेहरों पर आत्मविश्वास और खुशी के मिले-जुले भाव देखकर अनन्या की आँखें भर आईं। उसे महसूस हुआ जैसे शिवानी जी की आत्मा उसी रूम में मौजूद है और मुस्कुरा रही है।
समारोह के अंत में अनन्या ने कहा - "आज हमने साबित कर दिया है कि अगर आवाज़ में सच्चाई हो, तो उसे दबाया नहीं जा सकता। उसे बस एक मौके की तलाश होती है।"
उस रात, अपने घर में अकेली बैठी अनन्या को एहसास हुआ कि 'चंद्रकांता' की खोज महज़ एक किताब की खोज नहीं थी। यह एक ऐसी यात्रा की शुरुआत थी, जिसने सिर्फ एक पुराने उपन्यास को नहीं, बल्कि सैकड़ों नई ज़िंदगियों को रौशनी दी थी।
उसने खिड़की से बाहर तारों से भरे आसमान को देखा। एक तारा स्पेशली ज़्यादा चमक रहा था। अनन्या मुस्कुरा दी। उसे लगा, जैसे वो शिवानी जी का आशीर्वाद हो - एक नई शुरुआत के लिए, एक नई कहानी के लिए, जिसे लिखा जाना अभी बाकी था...