भाग 1: विरासत की पहली कड़ी
अटारी में धूल के कण हवा में तैर रहे थे, मानो समय के साथ उलझी कोई पुरानी कहानी बुन रहे हों। नाना जी का बंगला, जो कभी किताबों की सौंधी खुशबू, कविताओं की गूंज, और ज्ञान की चर्चाओं से जीवंत था, अब विस्मृति की मोटी परतों तले दबा था। लकड़ी की सीढ़ियाँ चरमराईं, जब अनन्या ने अटारी में कदम रखा। उसकी माँ ने सफाई का जिम्मा उसे सौंपा था, यह जानते हुए कि उनकी बेटी पुरानी चीज़ों में छिपे इतिहास को सहेजने का जुनून रखती है। अनन्या के लिए यह बंगला केवल ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं था; यह यादों का खजाना था, जो उसे दादी माँ, राजेश्वरी देवी, के करीब ले जाता था।
अटारी के एक कोने में, धूल से अटी एक लकड़ी की पेटी ने उसका ध्यान खींचा। पेटी साधारण थी, पर उसकी जटिल नक्काशी और जंग खाया ताला उसे रहस्यमय बना रहा था। अनन्या ने ताले को छुआ; उसकी उंगलियों पर जंग की खुरदराहट महसूस हुई। थोड़े प्रयास के बाद ताला चरमराया, और पेटी का ढक्कन धीरे-धीरे खुल गया, मानो कोई पुराना राज उजागर होने को बेताब हो।
अंदर पुराने कागजों का ढेर था—फीके पड़ चुके पत्र, फटे हुए चित्र, और उनके नीचे दबी एक मोटी, चमड़े से बंधी डायरी। इसके आवरण पर सुनहरे अक्षरों में उकेरा था: राजेश्वरी देवी। अनन्या की धड़कनें तेज हो गईं। दादी माँ! वही राजेश्वरी, जिनकी कहानियाँ और बुद्धिमत्ता उसके बचपन की लौ थीं। उनके देहांत के बाद यह डायरी शायद वर्षों से इस अंधेरे कोने में कैद थी। अनन्या ने डायरी को थाम लिया, जैसे वह दादी माँ की गर्मजोशी को फिर से महसूस कर रही हो।
डायरी के पन्ने पलटते हुए उसकी नजर एक तारीख पर ठहरी—१५ अगस्त, १९६५। दादी माँ की सधी हुई लिखावट में लिखा था:
"आज शिवानी जी से लंबी बात हुई। वह अपने नए उपन्यास 'चंद्रकांता' पर काम कर रही हैं। यह एक ऐसी युवती की कहानी है, जो समाज के बंधनों को तोड़कर अपनी पहचान गढ़ती है। शिवानी जी की बातें मेरे मन को छू गईं, मानो वह मेरे ही विचारों को शब्द दे रही हों। 'चंद्रकांता' कोई साधारण किरदार नहीं—वह एक विचार है, एक क्रांति है, जो समय को चुनौती देती है..."
अनन्या स्तब्ध रह गई। शिवानी? क्या यह वही मशहूर लेखिका थीं? और 'चंद्रकांता' नाम का यह उपन्यास? उसे तो इसके बारे में कभी कुछ पता नहीं था। यह कृति साहित्य के इतिहास में कहाँ गायब हो गई थी? उसने उत्सुकता से पन्ने पलटे। कई जगह 'चंद्रकांता' का जिक्र था—उसके किरदार की गहराई, उसकी बगावत, और कुछ पंक्तियाँ जो अनन्या के मन को झकझोर गईं। यह उपन्यास समय से आगे था, फिर भी अधूरा-सा लगता था।
तभी, डायरी के अंतिम पन्नों में से एक पीला, मुड़ा हुआ पत्र खिसककर बाहर गिरा। उस पर लिखा था: श्रीमती शिवानी, 'साहित्य सदन', इलाहाबाद। पत्र के कोने में हल्की स्याही से कुछ शब्द धुंधले थे, मानो कोई रहस्य अधूरा छूट गया हो। अनन्या के मन में सवालों का तूफान उठा। क्या इस पत्र में 'चंद्रकांता' का कोई सुराग था? क्या दादी माँ और शिवानी जी के बीच कोई ऐसी बात हुई थी, जिसने इस उपन्यास को इतिहास के पन्नों से मिटा दिया?
उसने डायरी को सीने से लगा लिया। यह महज एक डायरी नहीं थी—यह एक विरासत थी, एक जिम्मेदारी थी। अनन्या ने ठान लिया कि वह 'चंद्रकांता' की खोज करेगी, चाहे इसके लिए उसे इलाहाबाद की गलियों से लेकर साहित्य के गलियारों तक क्यों न भटकना पड़े। यह उसकी दादी माँ की विरासत को जीवित करने का पहला कदम था। वह इस अधूरी कहानी को पूरा करेगी।