रात की पहली पहर। तारे जैसे जले हुए चावल हों—छोटे, सफ़ेद, नेक। हवा में धान के कटने की गंध। दूर कहीं बैलों की घँटी। बबलू और धर्म पूरब वाली गली से निकले। बबलू के हाथ में टहनी, जिसे वह आड़ी-तिरछी रेखाओं में घुमा रहा था—जैसे कोई अजीब-सा आलाप हो। धर्म ने उसका बाजू पकड़ा—“शोर को शोर मत कर, शोर को चुप सुन। रात का कान पेड़ के ऊँचे भाग में लगा होता है।”
“मतलब?” बबलू ने बालसुलभ चाव से पूछा।
“मतलब यह कि अगर कोई परिंदा सोते-सोते हड़बड़ाता है, तो समझो हवा नहीं, आदमी गुज़रा है। अगर कुत्ते एक साथ नहीं, अलग-अलग भौंकते हैं, तो राहगीर अकेला नहीं, कई हैं। रात पढ़नी पड़ती है, पढ़ाई नहीं। समझा?”
धरम ने धीरे-धीरे बोलते हुए बबलू की तरफ़ देखा। उसकी आवाज़ में न केवल अनुभव था, बल्कि चेतावनी भी।
“और सुन,” वह आगे बोला,
"अगर बैल अचानक गर्दन झटककर अँधेरे में ताकने लगें — तो समझना कि इंसान अगर ऊँट या बैल अचानक गर्दन झटककर अँधेरे में ताकने लगें — तो समझना कि इंसान की गंध आई है।"
धरम ने गहरी साँस ली और धीमे स्वर में जोड़ा:
“रात को आँख से मत देखना, कान से मत सुनना — दिल से पढ़ना। रात किताब है, बबलू… और जो इसे पढ़ लेता है, उसके लिए कोई दुश्मन अदृश्य नहीं रहता।”
बबलू ने उसी वक्त टहनी अपने कान से लगी—“लिख ली, गुरु।”
दोनों हँस दिए।
दूसरी पहर में विनय और रामदीन ने मोर्चा संभाला। विनय की चाल में कोई घबराहट नहीं—उसे शहर की रातें याद थीं, जहाँ गली में सन्नाटा भी ताँबे की तरह टंकारता था। उसने चौपाल की दीवार पर हाथ रखा—दीवार ठंडी थी। उसने फुसफुसाया—“दीवारें झूठ नहीं बोलतीं।” रामदीन, जो शंकाओं का गठजोड़ था, चौंक पड़ा—“क्या?”
“कुछ नहीं,” विनय मुस्कराया, “बस यह दीवार कह रही है कि अभी गाँव सो रहा है। जब यह काँपेगी, तब पहले हमें सुनाई दे।”
तीसरी पहर के समय आर्यन ने लाठी उठाई—“मैं निकलता हूँ।” गगन साथ उछल पड़ा—“मैं भी!” रेखा ने टीके की तरह शब्द जड़ा—“और मैं भी!” आर्यन ने दोनों को आँख से मना किया—“तुम दोनों घर के रक्षक हो। माँ (गाँव) सो रही है—उसकी चौखट मत छोड़ना।”
रेखा ने होंठ भींचे—“ठीक है, पर लौटकर कहानी सुनाना।”
“कहानी नहीं,” आर्यन बोला, “रास्ते की ख़बर सुनाऊँगा।”
वह अकेला निकला बबलू के सिख के साथ जो इसे धरम ने सिखाया था—आसमान के नीचे, अपनी परछाई का साथी। उसे रात का धड़कता दिल सुनाई देता था—कहाँ मुरगी ने पंख फड़फड़ाए, कहाँ टहनी ने अपनी उम्र के बोझ से कराह उठी, कहाँ कहीं कोई साँस अनजान थी। उसने उसी अनजान साँस के क़दमों का हिसाब भीतर रख लिया। लौटते वक्त उसने चौपाल की दीवार स्पर्श की—ठंडी थी, पर अब जैसे हल्की-सी नम। उसने सोचा—“किसी ने अभी-अभी इसे देखा है। कौन?” फिर खुद को झिड़क दिया—“कभी-कभी रात भी सपने देखती है।”
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सुबह ने चौपाल पर कोयले की रेखाएँ खींच दीं—चूल्हा बुझा था, पर राख अभी गरम। रसोई के बड़े लोटे में पानी की हल्की लहर थी। सुधा और रेखा दोनों हल्दी में उँगलियाँ डुबोकर रोटियों पर छोटे-छोटे बिंदु बना रही थीं—जैसे किसी गुप्त भाषा के अक्षर। बबलू खिड़की की साँसों से बाहर झाँककर बोला—“आज दो घरों में सामूहिक भोजन। पहला—कुंती काकी। जिनके घर मेले में सब काम करते-करते खुद खाना नहीं बना। दूसरा—हरीमल्ला ठाकुर—जो अकेले खाना खाते-खाते अकेले रह गए।”
रेखा ने पलटकर पूछा—“हरीमल्ला ठाकुर अकेले क्यों?”
विनय ने पीछे से उत्तर दिया—“क्योंकि जो बहुत दिन अकेले खाते हैं, उनके घर के चूल्हे में आँच कम पड़ने लगती है। हम भर देंगे।”
धर्म ने मटकियाँ उठाईं—“चलो। रास्ता भी पढ़ना है।”
चलते-चलते सुधा ने आर्यन की तरफ देखा—“कल रात कुछ सुना?”
आर्यन ने सिर हिलाया—“दीवारें नम थीं। शायद ओस… शायद किसी की नज़र।”
“दीवारें नम होती हैं, नज़रें भी,” सुधा ने जैसे अपने आप से कहा, फिर चुप हो गई।
कुंती काकी का घर—लिपा-पुता, पर भीतर किसी भारी घड़ी की आवाज़। वह बोली—“अरे, इतना सब? हमें क्या ज़रूरत…”
धर्म ने उनके हाथ छूकर कहा—“जरूरत का असर भूख से नहीं पता चलता, काकी—आदत से पता चलता है। आज की आदत—संग-साथ।”
एक-दो और घर, दोपहर का सूरज, हिसाब से ज्यादा थकान नहीं—क्योंकि जब बाँटकर उठती है थकान, तो वह थकान कम लगती है। गाँव के बच्चे गलियों में रस्सी कूदते, रेखा उन्हें ‘गिनती’ सिखाती—“एक-आम, दो-जाम, तीन-इमली, चार-शाम…” गिनती कविता बन जाती और कविता खेल।
दोपहर बाद चौपाल पर विनय ने खेत-घूर के बारे में चर्चा चालू की—“कूड़े-कचरे से खाद बनाओ। मेले का कचरा व्यर्थ नहीं—उसे खेत में भेजो, कल की रौनक कल की रोटी बने।” लोग हँसे—“हट्टा कट्टा दिमाग है तुम्हारा।” विनय ने भी हँसकर सिर झुका लिया—“दिमाग नहीं—पेट को समझाता हूँ। गाँव का पेट। जब तक पेट संतुष्ट नहीं, कोई रक्षक टिकता नहीं।”
धर्म ने विनय की बात को आगे बढ़ाया—“और एक बात—जो बाहर की ख़बरें लाते हो, सच्ची लाओ। डर से बड़ी बीमारी अफ़वाह है।”
बात खत्म हुई ही थी कि दूर से एक भैंसा-गाड़ी आई। उस पर जूट के बोरे, और बोरो के नीचे से एक बूढ़े की आँखें झाँकतीं। गाड़ीवाला बोला—“किरनवेल से हूँ—मसाले और दवाएँ। मेला में नहीं आ पाया—रास्ते बिगड़ गए थे।”
धर्म ने उसे चौपाल में जगह दी—“किरनवेल से आए हो तो हमारी तरफ से स्वागत। मसाले रसोई में उतारो, दवाएँ विनय देखेंगे।”
विनय ने दवाओ की शीशियाँ देखकर लंबी साँस ली—“नमक-चूना, सूखी हरड़, आँवला—ठीक है। पर यह क्या—दो शीशियाँ बिना नाम?”
गाड़ीवाला हड़बड़ा गया—“अ… वह… शायद गलती से…”
विनय की आँख की रोशनी सख्त हुई—“गलती दुहराओ मत। कल से रात की पहर ड्योढ़ी पर आकर बैठना—नाम, राह और वजह लिखवाना।”
धर्म ने बात को नरम किया—“घबराओ मत। यहाँ भूखे को रोटी मिलती है, झूठे को सच्चाई। दोनों के हिस्से अलग-अलग।” गाड़ीवाले ने सिर झुका दिया। विनय का माथा शांत नहीं हुआ, पर उसने मुस्कान पहन ली—“ठीक है, उतारो।”
सुधा ने रेखा से फुसफुसाकर कहा—“किरनवेल के लोग सीधे होते हैं—पर दुनिया सीधी नहीं।” फिर खुद अपनी बात के भार से चुप हो गई।
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शाम ने फिर से गाँव की देह पर कस्तूरी की लकीरें खींच दीं। चौपाल की मिट्टी पर अब बच्चों के पाँव के निशान थे, जो घुंघरुओं की भाषा के अक्षर-से लग रहे थे। धर्म ने रात के लिए पहर बाँटी। बबलू ने लाठी की जगह बाँस उठाया—“आज बाँस से धुन बनाऊँगा। अगर कोई आक्रमणकारी होगा, तो पहले मेरे सुर सुन लेगा—फिर हिम्मत करे तो कदम रखे।”
धर्म हँस पड़ा—“सुर बचाव हैं, चुनौती नहीं। बचाव में मज़ाक चलता है, चुनौती में नुक़सान।”
विनय ने आते हुए जोड़ा—“आज उत्तर-पश्चिम की ओट से चलेंगे। खेतों के पार, जहाँ रात और दिन की सीमा खिंची मिलती है।” उसकी आवाज़ में अनायास एक सावधानी थी—जो शब्द नहीं, हवा से पैदा होती है।
मुखिया ने धर्म को गले लगाया—“सलाहकार, आज गाँव वैसा लग रहा है जैसा सपने में था। एक-एक साँस भरोसे से भरी।”
“भरोसा काम से होता है,” धर्म ने कहा।
मुखिया की पत्नी बोली—“और सुधा… बिटिया आज हँसी है। कितने दिनों बाद। तुम्हारी टोली ने उसे घर दिया है।”
धर्म दूर बैठी सुधा की ओर देखने लगा—वह रेखा और गगन से घिरी हँस रही थी—जैसे लम्बे अँधेरे के बाद कोई दीपक अपनी लौ से खुद चौंक जाए। धर्म ने मन में कहा—“अच्छा है। जिसने पानी से डरना सीखा, वह अब आग के पास मुस्कुरा रही है।”
आर्यन उस समय छोटी-सी लोहा-छड़ की धार घिस रहा था—साफ, पतली, घाव न देने वाली—बस पेड़ों की सूखी टहनियाँ काटने के काम की। सुधा ने एक नज़र देखी—“तुम हथियार बनाते हो?”
“हथियार नहीं,” आर्यन बोला, “औज़ार। हथियार मारते हैं, औज़ार जोड़ते हैं।”
“और तुम?” सुधा ने पूछा, “मारोगे या जोड़ोगे?”
आर्यन के चेहरे पर एक क्षण के लिए कोई बादल-सा गुज़रा—“देखेंगे। जो काम सामने होगा, वही।”
सुधा ने महसूस किया कि यह लड़का भविष्य के सवालों में नहीं उलझता—वह पलक की एक झपक में वर्तमान का फ़ैसला बना देता है। यह गुण डराता भी है, मोहता भी।
गगन और रेखा ने दोनों के बीच उदासी का धागा काट दिया—“चलो—कहानी! विनय चाचा, रात की कहानी!” विनय ने हाथ उठाए—“आज नहीं—आज रात खुद कहानी लिखेगी। हम बस उस कहानी को बिना ग़लतियों के पढ़ेंगे। बस इतना वादा है—अगर कहीं कोई ‘गलत मात्रा’ होगी, धर्म उसे ठीक कर देगा।”
सब हँस पड़े, पर हवा के किसी कोने में एक अनदेखी नोट-सी काँपी—बहुत धीमे, पर मौजूद।
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रात आधी हुई तो चौपाल की दीवार फिर से नम महसूस हुई—ओस थी, या आँख—कहना मुश्किल। बबलू और धर्म खेत की मेड़ पर चलते। दूर से कुत्ते की एक टुक-सी भौंक सुनाई दी—लंबी नहीं, खँडित। बबलू ने धीमे से कहा—“एक से ज़्यादा…?”
“शायद,” धर्म ने पाँव रोके, “पर अभी घबराहट नहीं। चलो।”
विनय पश्चिमी किनारे पर रामदीन के साथ रुका—“सुनो,” उसने कहा। हवा रुकी, साँसें ठहरीं। उसने फिर कहा—“कुछ नहीं। पर ‘कुछ नहीं’ कभी-कभी सबसे बड़ा संकेत होता है।”
चौपाल के छप्पर पर, जहाँ रेखा और गगन नींद में एक कहानी के बीच चहक रहे थे, सुधा खड़ी होकर आकाश देख रही थी। तारे जैसे उसके बालों में गिर रहे थे—वह उन्हें उँगलियों से छाँटती, फिर अपने भीतर रख लेती। उसे लगा—“आज की रात अच्छी है।” फिर उसी क्षण उसे लगा—“अच्छी रातें कभी अकेली नहीं आतीं—उनके पीछे कुछ चल रहा होता है।”
आर्यन लौटते वक्त चौपाल के दरवाज़े पर रुका—उसने दीवार पर हाथ रखा। इस बार दीवार ठंडी नहीं थी—बस उसके भीतर का हाथ गरम था। उसने धीरे-से फुसफुसाया—“मैं हूँ।”
धर्म दूर से लौट रहा था। उसने चौपाल को देखा—जैसे कोई पिता घर को देखकर आश्वस्त होता है कि दीवारें खड़ी हैं, छत अपनी जगह, और भीतर लोगों की साँसें लय में। उसने मन ही मन कहा—“कल दिन में गोदाम की चाबी विनय के पास। पहर का हिसाब लिखित। और…” उसने वाक्य पूरा नहीं किया—“और” के बाद अक्सर वही आता है जो हम नहीं लिखते—जो आने का रास्ता ख़ुद बना लेता है।
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अगली सुबह गाँव ने एक और शांति का निवाला खाया। कुंती काकी की आँखों में चमक थी—“आज बिना चूल्हा जलाए रात कट गई।” हरीमल्ला ठाकुर ने अपने बरामदे की झाड़ू खुद उठाई—“कभी-कभी साथ खाने से अकेलापन कम हो जाता है।” रसोई से सुगंध उठी, पाठशाला में गिनतियाँ कविता बनीं, खेतों की मेड़ पर पैर कम, विश्वास ज़्यादा पड़े।
पंचायत ने दो नई बातें तय कीं—पहली, हर हफ्ते एक शाम ‘कथा’—जहाँ विनय जैसे लोग दूर की ख़बरों और पास की समझ को जोड़ेंगे। दूसरी, रात की पहर अब ‘लेखन-पुस्तक’ में दर्ज होगी—कौन कब कहाँ गया, क्या देखा, किससे मिला। “क्यों?” किसी ने पूछा। धर्म ने मुस्कराकर कहा—“क्योंकि स्मृति झूठ नहीं बोलती, पर भूल जाती है। काग़ज़ भूलता नहीं।”
मुखिया ने सभा के अंत में कहा—“आज मेरा दिल कह रहा है—यह गाँव नया हो रहा है।”
धर्म ने मन में धीरे-से जोड़ा—“नया गाँव, पुरानी जड़ें… इसी में बचाव है।”
सुधा ने रेखा को चोटी बनाते हुए कहा—“जब जड़ें मज़बूत होती हैं, हवा का काम गीत बन जाता है, आँधी का काम ‘नृत्य’।”
रेखा खिलखिलाई—“और जब कोई बुरा आए?”
सुधा ने एक पल को नज़रें बाहर कर लीं—“तब गीत ताल हो जाता है, नृत्य चाल—और लोग संग-साथ होकर घेरा बना लेते हैं। बीच में एक दीपक रख देते हैं—धरम चाचा जैसा।”
रेखा ने चोटी कसकर बाँधी—“एक दीपक से गाँव जलता है?”
“न,” सुधा ने उसकी नोक पर उँगली टिकाई—“एक दीपक से दूसरा जलता है। गाँव उसी से जलता है—जिससे दूसरे जल उठें।”
आर्यन बाहर से लौटा—उसके हाथ में लाठी नहीं, एक पतला-सा बाँस का बांसुरीनुमा टुकड़ा। उसने गगन को थमाया—“फूँककर देख।”
गगन ने फूँका—पहली हवा शोर बनी, दूसरी हवा सुर, तीसरी हवा में रेखा हँसी—“सुनो, यह तो ठीक-ठाक आवाज़ है!”
आर्यन के होंठों पर बहुत महीन मुस्कान आई—जैसे कोई पहाड़ अपने भीतर एक छोटी सी नदी का जन्म सुन ले। सुधा ने उस मुस्कान को देखा—उसमें हथियार नहीं, औज़ार था; युद्ध नहीं, तैयारी थी; अभिमान नहीं, एक शांत-सा अभ्यास।
विनय ने दूर से यह सब देखा—उसकी आँखों में आसमान की रेखाएँ उतर आईं। उसने धीमे से खुद से कहा—“अब, अगर कोई आएगा भी… तो यह गाँव अकेला नहीं होगा।”
धर्म ने चौपाल की दीवार पर हाथ रखकर फिर फुसफुसाया—“मैं हूँ।”
दीवार ने जैसे भीतर-ही-भीतर उत्तर दिया—“हम हैं।”
और ठीक इसी संगति में, मेले के बाद की यह शांति अपने आप में एक दीर्घ श्लोक बन गई—जिसकी हर पंक्ति में रसोई की सोंधी महक थी, पहर की ठंडी हवा थी, बच्चों की उछलती हँसी थी, और एक सलाहकार-से-ज़्यादा एक पड़ोसी का भरोसा। दूर कहीं, बहुत दूर, किसी अज्ञात सीमा पर धूल की पतली-सी रेखा उठ रही थी—इतनी बारीक कि अभी किसी की नज़र में नहीं आई। पर जो दीवारें नम और जीवित होती हैं, वे ऐसे ही धागों को सबसे पहले महसूस करती हैं।
फिलहाल चंद्रवा अपने ‘हम’ में मग्न था—बबलू की दौड़ अब कहानी थी, आर्यन की चुप अब सुर, सुधा की मुस्कान दीया, विनय की समझ चौकी, मुखिया की सहमति छत, और धर्म… धर्म वह दरवाज़ा, जो भीतर से बंद भी हो तो बाहर वाले को ‘घर’ का भरोसा दे।
और कहानी—कहानी अभी शांति में साँस ले रही थी, ताकि जब आगे आए—तो साँस थाम लेने वाली हो।