बैंक लॉकर से मिला लिफाफा थामे अनन्या उत्साह से भरी घर लौटी थी। उसे लगा मानो वह कोई छिपा हुआ खजाना लेकर आई हो। लिफाफा खोला तो अंदर सिर्फ ‘चंद्रकांता’ की हस्तलिखित पांडुलिपि ही नहीं, शिवानी जी के निजी पत्र और एक पतली सी डायरी भी थी। वह डायरी उन संघर्षों की गवाह थी जो उन्होंने इस उपन्यास को लिखते हुए झेले थे—समाज की बेरहम बातें, प्रकाशकों की बंद होती हुईं दरवाज़ें और अकेलापन।
अनन्या ने काँपते हाथों से पांडुलिपि खोली। पहला पन्ना पढ़ते ही वह स्तब्ध रह गई। शब्दों में ऐसा साहस और तीखापन था, मानो किसी ने बंद कमरे में आग जला दी हो। चंद्रकांता—उपन्यास की नायिका—उस दौर की हर रूढ़ि को चुनौती देती थी। वह सिर्फ़ विवाह को जीवन का ध्येय नहीं मानती थी, बल्कि अपनी पहचान गढ़ना चाहती थी। परंपरा के ठेकेदारों से बेख़ौफ़ उलझती, वह एक ऐसी स्त्री थी जो उस जमाने की चौखटें तोड़ने को तैयार थी।
अनन्या अनायास बुदबुदाई—“वाह!” मगर अगले ही पल उसकी नज़र डायरी पर टिक गई। उसमें लिखा था—
“आज प्रकाशक ने साफ मना कर दिया। कहा, यह किताब समाज के मूल्यों को चोट पहुँचाती है। पुरुष इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। क्या सच लिखने का इतना बड़ा दंड है?”
अनन्या की आँखें भर आईं। आज से दशक पहले भी स्त्री की कलम को दुत्कारा गया था। तभी सुभद्रा को फोन किया। सारी बात सुनने के बाद सुभद्रा ने गहरी साँस लेकर कहा—
“हाँ अनन्या, यही वजह थी। उस समय यह बहुत बोल्ड थी। और मानो या न मानो, आज भी इसे कुछ लोग विवादास्पद मानेंगे। साहित्य में पुरुषों की हुकूमत आज भी पूरी तरह टूटी नहीं है।”
अनन्या के सामने सवाल खड़ा था—क्या वह इस उपन्यास को सामने लाए? क्या आलोचना और विरोध की आँधियों का सामना कर पाएगी? तभी उसकी नज़र आखिरी पन्ने पर गई। शिवानी जी ने लिखा था—
“नहीं जानती, यह कभी छपेगा या नहीं। पर मैंने वही लिखा जो मेरे दिल में था। अगर कोई पढ़े, तो मेरा संदेश बस इतना है—सच से मत डरो।”
ये पंक्तियाँ चिंगारी बन गईं। अनन्या ने ठान लिया—‘चंद्रकांता’ को दुनिया तक पहुँचाना ही उसकी जिम्मेदारी है।
लेकिन यह राह काँटों भरी निकली। उसने अनेक प्रकाशकों से संपर्क किया। कुछ ने मसौदा देखे बिना मना कर दिया—“नई लेखिका और पुराना युग… बाजार में नहीं बिकेगा।” कुछ ने पढ़ने के बाद टिप्पणी की—“बहुत भारी है, आज के पाठक इसे नहीं समझेंगे।” हर इनकार अनन्या के मन पर चोट की तरह था।
हताश होकर उसने सोचा, क्यों न खुद इसे स्व-प्रकाशित किया जाए? इंटरनेट और नए मंचों से यह संभव था। लेकिन उसके लिए धन चाहिए था, एक अच्छे संपादक की टीम चाहिए थी। उसकी बचत कितनी थी? क्या सब दाँव पर लगा देना सही होगा?
तभी सुभद्रा का फोन फिर आया। आवाज़ आशा से भरी थी—
“अनन्या, मैंने एक छोटा लेकिन सशक्त प्रकाशन घर ढूँढा है। वे स्त्रीवादी साहित्य में विशेषज्ञ हैं। तुम्हारा नंबर उन्हें दे दिया है।”
कुछ ही पलों में अनन्या का फोन बजा। दूसरी तरफ प्रकाशक की गूंजती आवाज़ थी—
“अनन्या जी, सुभद्रा जी से सब सुना। ‘चंद्रकांता’ तो साहित्य की क्रांति है। हम इसे प्रकाशित करना चाहते हैं।”
अनन्या की आँखों में चमक लौट आई। पर साथ ही भीतर का डर अब भी वहीं था—क्या दुनिया इसे खुले मन से अपनाएगी? या फिर दशकों पुरानी साजिशें आज भी चुप कराने लौटेंगी?
उसने मन ही मन शिवानी जी की आत्मा और अपनी दादी से प्रार्थना की—“मुझे ताकत दो, ताकि इस सच को दबने न दूँ।”