Pati Brahmchari - 1 in Hindi Drama by Raju kumar Chaudhary books and stories PDF | पति ब्रहाचारी - भाग 1

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पति ब्रहाचारी - भाग 1


📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 1 : जन्म और बचपन

प्रस्तावना

धरा पर ऐसे कई व्यक्तित्व आए हैं, जिनका जीवन केवल उनके परिवार या गाँव तक सीमित नहीं रहा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। उनके जीवन में तप, त्याग और संयम की ऐसी धारा प्रवाहित हुई, कि लोग आज भी उनकी गाथाएँ सुनकर प्रेरित होते हैं। यह कथा भी उसी प्रकार के पुरुष की है, जिसे संसार ने बाद में “पति ब्रह्मचारी” के नाम से जाना।



जन्म और माता-पिता

नेपाल और भारत की सीमा पर स्थित प्रसौनी ग्राम सदियों से धार्मिक और संस्कारी वातावरण के लिए जाना जाता था। यहाँ का प्रत्येक घर, प्रत्येक परिवार धर्म, संस्कार और साधना में लीन रहता। इसी ग्राम में रहते थे – आचार्य वेदमित्र और उनकी पत्नी सत्यवती।

दोनों ही गहरी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वेद, उपनिषद और धर्मग्रंथों का अध्ययन उनका दैनिक कर्म था। वे बच्चों को शिक्षा देने के साथ-साथ जीवन में आदर्शों का पालन भी कराते थे। परंतु उनका एक ही दुख था – संतानहीनता। बीस वर्षों के दाम्पत्य जीवन में उनकी गोद खाली थी।

गाँववाले कभी-कभी ताने मारते –

“आचार्य, विद्या तो तुम्हारे पास है, पर वंश का दीपक कहाँ?”



सत्यवती चुपचाप आँसू पोछतीं और आचार्य उन्हें सांत्वना देते –

 “जो कुछ ईश्वर देगा वही सही है। हमारा धर्म केवल प्रयास करना है।”



कई वर्षों तक व्रत, उपवास और तीर्थयात्राएँ करने के बाद भी कोई संतान नहीं हुई। तब गाँव में प्रसिद्ध ऋषि अत्रिदेव का आगमन हुआ।

ऋषि अत्रिदेव ने आचार्य के घर पधारते ही कहा –

 “हे वेदमित्र! तुम्हें जो संतान मिलेगी, वह साधारण नहीं होगी। उसका जन्म इस धरती पर धर्म की रक्षा और ब्रह्मचर्य के आदर्श की स्थापना के लिए होगा।”



सत्यवती की आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने अपने मन की पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा –

 “हे भगवन्! मेरे जीवन की एकमात्र कामना यह है कि मेरी गोद भी कभी भरे।”



ऋषि ने उन्हें आश्वस्त किया –

“वास्तव में, देवी, तुम शीघ्र ही एक तेजस्वी पुत्र की माता बनोगी। उसका जन्म इस संसार के लिए प्रेरणा बनेगा।”



कुछ ही महीनों बाद सत्यवती ने एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया। जन्म के क्षण में पूरा गाँव जैसे दिव्य आभा से झिलमिला उठा। आकाश में हल्की रोशनी फैली, और पक्षियों की चहचहाहट मानो उसे आशीर्वाद देने आई हो।

बालक का मुखकमल ऐसा था कि हर कोई उसकी ओर आकर्षित हो गया। उसे नाम दिया गया – आदित्यनंद।



बचपन के लक्षण

आदित्यनंद बचपन से ही असाधारण था। वह बहुत कम रोता, अधिकतर शांत और ध्यानमग्न रहता।

खेल-कूद में भी वह दूसरों से अलग था।

वह अक्सर नदी किनारे बैठकर पानी की लहरों को निहारता।

पक्षियों और वृक्षों को देखकर उनके जीवन का अध्ययन करता।


एक बार गाँव के बच्चे खेलते समय एक छोटे पंछी पर पत्थर फेंक बैठे।
सभी बच्चे हँसने लगे, पर आदित्यनंद दौड़ा और पंछी को अपनी गोद में उठाया। उसने अपने वस्त्र का टुकड़ा बाँधकर उसके पंख पर पट्टी बांधी और तब तक उसकी देखभाल की जब तक वह उड़ने योग्य न हो गया।

गाँववाले कहते –

“यह बालक साधारण नहीं है। इसका हृदय करुणा और संयम से भरा है।”



गुरुकुल शिक्षा

पाँच वर्ष की आयु में आदित्यनंद का उपनयन संस्कार हुआ।
गुरु ने गायत्री मंत्र का उपदेश देते हुए उसके कान में धीरे-धीरे उच्चारित किया।
आदित्यनंद की आँखों में ध्यान और संकल्प की चमक देख गुरु आश्चर्यचकित रह गए।

गुरुकुल में प्रवेश के साथ ही उसकी शिक्षा प्रारंभ हुई।

वह मंत्र, श्लोक और गणित की जटिल समस्या तुरंत स्मरण कर लेता।

ज्योतिष, दर्शन और नीति शास्त्र में भी उसका ज्ञान अद्भुत था।


एक दिन गुरु ने शिष्यों से पूछा –

 “बच्चो, मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा शत्रु क्या है?”



कई शिष्यों ने क्रोध, लोभ या मोह बताया।
आदित्यनंद ने गंभीरता से उत्तर दिया –

“गुरुदेव, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसकी असंयमित इंद्रियाँ हैं। यदि इंद्रियाँ वश में हों, तो क्रोध, मोह, लोभ सब समाप्त हो जाते हैं। यदि नहीं, तो ज्ञान और धर्म व्यर्थ है।”



गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा –

 “वत्स! तू भविष्य में महान तपस्वी बनेगा।”




सामाजिक अनुभव और परिवार

आदित्यनंद जब दस वर्ष का हुआ, तब उसके माता-पिता ने उसे गाँव और समाज के जीवन में सहभागी बनाया।

वह लोगों की सेवा करता,

वृद्धों का सम्मान करता,

बच्चों को खेल और शिक्षा के माध्यम से जीवन की सही राह दिखाता।


एक बार गाँव में अकाल पड़ा। अधिकांश लोग भयभीत होकर भाग गए। आदित्यनंद ने अपनी माता के साथ मिलकर गाँववालों के लिए पानी और अन्न का प्रबंध किया।
गाँववाले उसकी बुद्धिमत्ता और साहस देखकर चकित रह गए।



करुणा और आत्मसंयम की शिक्षा

आदित्यनंद का बचपन केवल विद्या और खेल तक सीमित नहीं था।

वह रोज़ सुबह उठकर नदी किनारे जाकर जलस्रोत की सफाई करता।

वृद्ध और गरीबों के घर जाकर उनकी सेवा करता।

जानवरों की देखभाल करना उसका प्रिय कार्य था।


इस बीच उसकी आत्मा में ब्रह्मचर्य और संयम की भावना धीरे-धीरे जागने लगी।

वह कभी भी झूठ नहीं बोलता।

किसी की बुरी भाषा सुनकर क्रोध नहीं करता।

दूसरों की जरूरत और पीड़ा को अपने से ऊपर रखता।




किशोरावस्था का प्रारंभ

जब आदित्यनंद बारह वर्ष का हुआ, तब वह धीरे-धीरे अपने भीतर गहरे चिंतन और आत्मनिरीक्षण की ओर बढ़ने लगा।

समाज की गलतियों पर प्रश्न करता,

धर्म और न्याय के मूल्यों पर विचार करता,

और अपने माता-पिता तथा गुरु से परामर्श लेकर अपने चरित्र को और दृढ़ बनाता।


गुरुकुल के शिक्षक उसे देखकर कहते –

 “यह बालक केवल विद्या में ही नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म में भी उत्तम है। यदि इसी तरह साधना और संयम का मार्ग अपनाए, तो यह युगों तक आदर्श बनेगा।”



इस तरह आदित्यनंद का बचपन और प्रारंभिक जीवन न केवल विद्या और करुणा से परिपूर्ण रहा, बल्कि उस समय उसके भीतर आत्मसंयम और ब्रह्मचर्य की बीज भी अंकुरित हो गए।
यह बीज भविष्य में उसे पति ब्रह्मचारी बनने की ओर ले जाएगा, जो न केवल अपने परिवार का, बल्कि पूरे समाज और युग का आदर्श पुरुष बनेगा।