Pati Brahmchari - 2 in Hindi Drama by Raju kumar Chaudhary books and stories PDF | पति ब्रहाचारी - भाग 2

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पति ब्रहाचारी - भाग 2


📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 2 : किशोरावस्था और ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा

प्रारंभ

आदित्यनंद जब बारह वर्ष का हुआ, तब उसकी बुद्धि, समझ और भावनाएँ तेजी से विकसित होने लगीं। अब वह केवल बालक नहीं रहा, बल्कि किशोरावस्था के द्वार पर खड़ा एक चिंतनशील, संवेदनशील और धर्मपरायण युवक बन चुका था।

गुरुकुल में शिक्षक उसकी प्रतिभा, उसके गंभीर प्रश्न और असाधारण आत्मसंयम देखकर चकित रहते।

उसने अनेक श्लोक और मंत्र याद कर लिए थे।

दर्शन और नीति में उसकी समझ अद्भुत थी।

गणित और ज्योतिष के जटिल प्रश्नों को सहज ही हल कर लेता।


परन्तु उसके भीतर एक और परिवर्तन शुरू हो गया – कामवासना और सांसारिक इच्छाओं से दूर रहने का संकल्प।



किशोर मन की उलझनें

किशोरावस्था में अक्सर शारीरिक और मानसिक परिवर्तन आते हैं। आदित्यनंद भी इससे अछूता नहीं था।

मित्रों के साथ खेलते समय उसे अचानक भीतर से एक अलग प्रकार की ऊर्जा और इच्छा का अनुभव हुआ।

उसकी सोच में अक्सर यह सवाल उठता –


“यदि मैं इन क्षणिक इच्छाओं में फंस जाऊँ, तो क्या मेरा जीवन आदर्श पुरुष बनने के मार्ग से भटक जाएगा?”



गुरु ने उसे समझाया –

 “वत्स! जीवन में इच्छाएँ स्वाभाविक हैं, परंतु उन्हें नियंत्रित करना ही महानता है। संयम ही पुरुष को ब्रह्मचारी बनाता है।”




सामाजिक जिम्मेदारियाँ

किशोरावस्था में आदित्यनंद को गाँव में कई सामाजिक जिम्मेदारियाँ दी गईं।

वृद्धों की सेवा,

गरीब बच्चों को शिक्षा देना,

मंदिर और पानी के कुओं की देखभाल करना।


इन अनुभवों ने उसके भीतर सेवा भाव और करुणा को और दृढ़ किया।
एक बार गाँव में अकाल पड़ा। कई लोग अपने घरों में छुप गए। आदित्यनंद ने माता सत्यवती और कुछ मित्रों के साथ मिलकर गाँव के बच्चों और वृद्धों के लिए अन्न और पानी का प्रबंध किया।

गाँववाले आश्चर्यचकित होकर बोले –

 “यह बालक न केवल बुद्धिमान है, बल्कि साहसी और दयालु भी है। इसकी आत्मा में जैसे ब्रह्मचर्य और संयम का बीज पहले से अंकुरित हो गया है।”




---

मित्र और प्रतिस्पर्धा

गुरुकुल में अन्य किशोर भी थे। कई बार वे आदित्यनंद से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करते।

खेलों में,

ज्ञान में,

और शारीरिक क्रीड़ाओं में।


पर आदित्यनंद ने कभी अहंकार नहीं दिखाया। वह हर बार शांति और धैर्य से काम लेता।
एक दिन, मित्रों ने उससे कहा –

 “तुम इतने शांत कैसे रहते हो? क्या कभी क्रोध आता है?”
आदित्यनंद मुस्कराते हुए बोला –
“क्रोध और लालसा मनुष्य को केवल दुख देती है। संयम ही स्थायी शक्ति है।”



यह दृष्टिकोण उसके साथियों पर गहरा प्रभाव डालता। धीरे-धीरे कई साथी भी उसके मार्ग का अनुसरण करने लगे।



ब्रह्मचर्य की पहली प्रतिज्ञा

किशोरावस्था के लगभग पंद्रहवें वर्ष में, आदित्यनंद ने गुरु के सामने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेने का निर्णय लिया।

एक शाम, गुरुकुल के पास पेड़ की छाँव में, उसने गुरु अत्रिदेव से कहा –

“गुरुदेव, मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन केवल ज्ञान, धर्म और सेवा में व्यतीत हो। मैं सांसारिक इच्छाओं से परे रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ।”



गुरु ने उसे ध्यान से देखा और बोले –

 “वत्स! यह मार्ग कठिन है, परंतु यदि दृढ़ संकल्प हो तो असीम शक्ति और शांति की प्राप्ति होगी। क्या तुम तैयार हो?”



आदित्यनंद ने दृढ़ता से कहा –

 “हाँ गुरुदेव। मेरा मन और आत्मा इस मार्ग के लिए पूर्णतः तैयार हैं।”



इसके बाद गुरु ने उसे सांकेतिक वस्त्र और मंत्र देकर ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा दिलाई।

यह प्रतिज्ञा केवल शब्दों की नहीं थी।

यह मन, वचन और कर्म के संयम का संकल्प था।


गाँव में यह खबर फैल गई कि आदित्यनंद ने स्वयं को ब्रह्मचारी घोषित किया।
कुछ लोग आश्चर्यचकित हुए, कुछ ने आलोचना की, परंतु आदित्यनंद ने शांत मन से अपना मार्ग जारी रखा।



किशोरावस्था की साधना

प्रतिज्ञा लेने के बाद, आदित्यनंद का जीवन और भी अधिक अनुशासित हो गया।

दिन का प्रारंभ सूर्योदय से पहले ध्यान और मंत्र पठान से होता।

भोजन और नींद का समय निर्धारित।

पढ़ाई, सेवा और साधना के बीच संतुलन बनाए रखा।


गुरुकुल के शिक्षक और गुरु अत्रिदेव उसे देखकर कहते –

 “वत्स! तेरी साधना से यह संसार भी आलोकित होगा। तेरी तपस्या और संयम आने वाले पीढ़ियों के लिए आदर्श बनेगा।”




आत्मसंयम और मनोबल का विकास

किशोरावस्था में ही आदित्यनंद ने भीतरी इच्छाओं और भावनाओं पर विजय पाई।

मोह, लालसा और क्रोध के क्षणों में उसने ध्यान और योग का सहारा लिया।

कठिन परिस्थितियों में भी उसने धैर्य और करुणा का मार्ग अपनाया।


यह अनुभव उसे भविष्य के लिए तैयार कर रहा था, जब उसे परिवार, समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए आदर्श पुरुष बनना होगा।



भाग 2 का सार

इस प्रकार किशोरावस्था में आदित्यनंद ने

सामाजिक जिम्मेदारियाँ निभाना सीखा,

मित्रों और समकालीनों से अपने चरित्र की परीक्षा ली,

ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा ली,

आत्मसंयम, करुणा और सेवा भाव को अपनाया।


यह सब बीज उसके भविष्य के “पति ब्रह्मचारी” बनने की नींव थे।