Devki ki Vytha - 1 in Hindi Spiritual Stories by Vaidehi Vaishnav books and stories PDF | देवकी की व्यथा - भाग 1

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देवकी की व्यथा - भाग 1

दोपहर का समय था। सूर्य देवता का रथ अभी गगन में अधिक ऊपर नहीं चढ़ा था ; लेक़िन पावन धरती द्वारका नगरी के मार्ग पर एक रथ तेज़ी से आगें बढ़ता जा रहा था। रथ में उस नगरी के रचयिता द्वारकाधीश की माता देवकी सवार थीं। उनका मन विचलित था। रथ के पहिए की तरह ही विचार उनके मन में घूम रहें थें। योगेश्वर कृष्ण की माता का मन विचलित है ,यदि यह कोई जान लेता तो निश्चय ही अजरज में पड़ जाता। देवकी जो कि द्वारका नगरी की महारानी हैं ,सब उनका सम्मान करते हैं। उन्हें अब किसी प्रकार का कोई कष्ट भी नहीं था , फ़िर क्यों उनका मन अशांत था ..?

"और कितना समय लगेगा...!" - व्याकुल होकर माता देवकी ने रथवान से पूछा।

"महारानी ! द्वारिकाधीश का महल यहाँ से अभी दूर है। थोड़ा और समय लगेगा।" - घोड़े की लगाम खींचते हुए रथवान ने आदरपूर्वक उत्तर दिया।

रथवान का उत्तर सुनने के बाद ,माता देवकी रथ में बैठी हुई पर्दे की ओट से बाहर निहारने लगतीं है। यह नगर उनके पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा ही बसाया गया था। कितना अद्भुत हैं यहाँ का हर दृश्य ! हिलोरें लेती समुंद्र की लहरें ,कलकल बहती गोमती नदी , ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएँ , सुंदर बाग-उपवन , छोटे-बड़े हाट (बाज़ार) जिनमें तरह-तरह की वस्तुओं से सजी हट्टीयां (दुकानें) थी। हट्टीयों के इर्दगिर्द सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित द्वारिकावासी अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप सामग्रियों के क्रय-विक्रय में व्यस्त थे। एक जगह कुम्हार चाक पर मिट्टी के बर्तन बना रहा था। रथ कुछ आगें बढ़ा तो एक लुहार लोहे को पीट रहा था। बाहर जितनी अधिक रौनक़ दिखलाई पड़ रही थीं , भीतर से देवकी का मन किसी अंधेरी अमावस रात की तरह नैराश्य से भरा हुआ व नीरस था।

इस निराशा की जड़ एक दुःस्वप्न था , जिसे माता देवकी ने गोधूलि बेला में देखा था। स्वप्न शास्त्र के अनुसार गोधूलि में देखा गया स्वप्न सत्य हो जाता है।          स्वप्न सत्य होने के विचारभर से माता देवकी का ह्दय कांप उठा। रक्तवाहिनियों में रक्त भी मानो तीव्र गति से बहने लगा था। इस उपक्रम की वजह से देवकी के माथे पर पसीने की बूंदे उभर आई। पर्दे की ओट से आती हुई सूर्य रश्मियों से पसीने की बूंदे भी उनके दिव्य आभूषणों की तरह टिमटिमा रहीं थीं।

"कृष्ण इस द्वारका नगरी के किसी एकांत स्थान पर वृक्ष की छांव में पैर पर पैर रखकर क्यों विश्राम करेगा..? वह तो इस द्वारका नगरी का द्वारिकाधीश है। जब वह चलता है तो सैंकड़ो जन उसके पीछे चलते हैं। उसके दर्शन की प्रतीक्षा में कितने ही लोग पलक पावड़े बिछाए रहते हैं। फ़िर यह कैसे सम्भव हो सकेगा कि ऐसे स्थान पर वह नितांत अकेला ही विश्राम करेगा ? स्वप्न की स्मृति मेरे मन की विकलता को बढ़ा रहीं है।" - स्वप्न की स्मृति के बारें में विचार करते हुए देवकी अपने आप से ही बुदबुदाते हुए बोली।

घोड़ो की हिनहिनाहट से देवकी का ध्यान टूटा। वह विचारों के समुद्रमंथन से बाहर निकल आई थीं। रथवान ने घोड़ो की लगाम खींचकर रथ रोका। रथ से उतरकर उसने देवकीजी से कहा - "महारानी ! हम द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के महल पहुंच गए हैं।" देवकी ने पर्दा हटाकर देखा ...सामने उनके पुत्र द्वारका नगरी के द्वारकाधीश का भव्य महल था।

रथवान का सहारा लेकर देवकी रथ से उतरती है। ऐसा नहीं है कि देवकी की काया को वृद्धावस्था ने घेर लिया था ; किंतु वर्षों तक जीवन मे मिले कष्टो ने उन्हें कमजोर बना दिया था। उन्होंने अपने जीवन का एक लंबा समय कारावास में व्यतीत किया था।

शेष अगलें भाग में....

राधे राधे आपको यह रचना पसन्द आती है तो दिल खोलकर आशीर्वाद दीजिएगा।