माता देवकी होले-होले से महल के मुख्य द्वार की ओर बढ़ने लगीं। द्वार के नजदीक पहुँचते ही द्वारपालों ने उनका अभिवादन करतें हुए कहा - " प्रणाम ! महारानी..."
माता देवकी ने उन्हें स्नेहसिक्त नज़रों से देखा और आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाकर उनका अभिवादन स्वीकार किया। जैसे ही माता देवकी ने मुख्य द्वार के अंदर प्रवेश किया। वहाँ पर उपस्थित अतिथि सत्कार के लिए नियुक्त किए गए दास व दासियों ने माता देवकी पर पुष्प बरसाए फ़िर झुककर सभी ने सादर प्रणाम किया।
माता देवकी के आगमन की सूचना दासी द्वारा श्रीकृष्ण तक पहुंचा दी गई थीं। कृष्ण सभा के कार्यो से निवृत्त होकर अपने कक्ष की ओर जा ही रहें थे कि दासी ने उन्हें माता देवकी के आगमन कि सूचना दी।
माता देवकी के आने की सूचना पाते ही कृष्ण द्रुतगति से मुख्य द्वार की ओर चल दिए। उन्हें सामने अपनी माता धीमी गति से चलती हुई आती दिखाई दी।
माता देवकी को देखकर श्रीकृष्ण के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान तैर गई। निकट जाकर उन्होंने माता देवकी के चरण स्पर्श किये।
माता देवकी ने अपनी दोनों हथेलियों को झुके हुए कृष्ण के कंधों पर रखा और उन्हें अपनी ओर भींचते हुए अपने ह्रदय से लगा लिया। भोर से विचलित उनके अशांत मन को अब शीतलता का अनुभव हो रहा था। मानों डूबती हुई नाव को किनारा मिल गया था , प्यासी मरुभूमि पर बादल का एक टुकड़ा बरस पड़ा और बरसकर सूखी - बंजर जमीन को तृप्त कर दिया , मानो देह छोड़ते शरीर को अमृत की बूंदे मिल गई हो। कुछ देर तक माता देवकी अपने लाल को ह्रदय से लिपटाए रहीं। आज भी माता देवकी के लिए अखिल ब्रह्मांडनायक कृष्ण अबोध शिशु की भांति ही थे। ममता से भरा दिल कहाँ मानता है.?द्वारकापुरी ही नहीं वरन सम्पूर्ण आर्यावर्त के लोग उन्हें योगेश्वर कृष्ण की जननी कहकर , उनके भाग्य की सराहना किया करतें हैं। पुत्र कितना ही बड़ा हो जाए , बलशाली बन जाएं या पृथ्वीलोक का राजा ही क्यों न बन जाए माँ के लिए तो वह उनका भोला सा लल्ला ही रहता है। माँ के हृदय में सदैव ही यह चिंता बनीं रहती है कि कहीं कोई उसके पुत्र का अनिष्ट न कर दे , कोई उसके कोमल ह्रदय को आहत न पहुंचा दे , वह किसी के द्वारा छला न जाए। माता देवकी भी आज इन्हीं आशंकाओ से घिर कर अपने पुत्र की चिंता में घुलती हुई यहाँ दौड़ी चली आई थीं।
देवकी ने कृष्ण के माथे को बड़े प्यार से चूमा। मानो वह उनके मस्तक से विधि द्वारा लिखें सारे अशुभ प्रभावों को नष्ट कर देना चाहतीं हैं।
श्रीकृष्ण ने माता देवकी की दोनों हथेलियों को अपनी हथेली पर रख लिया। कृष्ण ने वही टेढ़ी सी मुस्कुराहट अपने चेहरे पर बिखरते हुए पूछा - "माँ ,कैसी हैं आप ? आप मुझें आदेश करती। मैं तुरन्त आपके समक्ष उपस्थित हो जाता। आपकों मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ..?"
देवकी कृष्ण के चेहरे की ओर ममतामयी निगाहों से देख रहीं थीं। उनका तो एक ही कष्ट था। देवकी के कान हमेशा कृष्ण के मुख से 'मैया' सुनने को तरसते थे। जब कृष्ण वृन्दावन से मथुरा लौट आए थे तब कई बार देवकी उन्हें कहती कि कृष्ण , मुझें मैया कहा करो। इस पर कृष्ण हमेशा यही कहते कि मैया तो वृन्दावन में हैं।
देवकी की आँखों के कोर आंसुओ से भीग गए। वह धीमे से बोली - " तुमसे मिलने आई हूँ कान्हा ।"
कृष्ण ने कान्हा सुने जाने पर देवकी माता की ओर देखा लेक़िन कहा कुछ भी नहीं। मौन ही रहें। आज भी यह नाम उन्हें वृंदावन की याद दिलाता है। वह कान्हा से कब कृष्ण हो गए...कब कृष्ण से द्वारकाधीश बन गए यह सब ऐसे घटित हुआ मानों मुट्ठी से रेत फिसल रहीं हो।
देवकी ने कृष्ण को मौन देखकर उन्हें करुणामय दृष्टि से देखते हुए कहा - " कृष्ण , तुम यहाँ द्वारिकापुरी में बहुत अधिक समय रहते ही कहाँ हो ? कई बार तुम्हारी प्रतीक्षा करतें समय भ्राता कंस के कारावास में बिताए क्षणों की स्मृति जीवंत हो उठती हैं। तुम्हारी प्रतीक्षा में बिताए क्षण आज भी मुझें कल्प समान जान पड़ते हैं। अपने कक्ष में बैठी यहीं सोचती रहती हूँ कि कृष्ण कब आएगा..? आज ही रोहिणी से ज्ञात हुआ कि तुम इंद्रप्रस्थ से द्वारकापूरी लौट आए हो।"
एक माँ की भावना के समक्ष ईश्वर भी कहाँ तर्क-वितर्क कर पाते हैं , फ़िर यह तो कृष्ण हैं जो भावों के ही अधीन रहते हैं। सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होने पर भी प्रेम की डोर से बंध जाते हैं।
भावविह्वल होकर कृष्ण कहते हैं -" माँ मैं तो सदैव आपके इन चरणों में ही रहता हूँ। मैं सदैव आपके निकट ही रहता हूँ।"
शेष अगलें भाग में........
हरे कृष्ण ❤️