चित्रदास और विचित्रदास, दो ऐसे दोस्त थे जिनके स्वभाव एक-दूसरे से बिल्कुल उलट थे, जैसे दिन और रात।
गंगा के किनारे बसे एक छोटे से गाँव में ये दोनों साथ बड़े हुए। बचपन में उनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती थी, पर जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उनके रास्ते अलग हो गए।
चित्रदास एक अच्छा इंसान था, उसका दिल सोने सा था। वह गाँव में सबका चहेता था। कोई भूखा हो, तो चित्रदास अपनी रोटी उसे दे देता। गाँव की बूढी औरतों के लिए वह बेटे की तरह था, और बच्चों के लिए दोस्त जैसा।
लोग कहते, “चित्रदास जैसा इंसान विरला ही पैदा होता है।” पर चित्रदास का एक रंग और था, वह भगवान में विश्वास नहीं करता था। मंदिर की घंटियाँ उसे शोर लगती थीं, और पूजा-पाठ उसे समय की बर्बादी।
वह कहता, “अच्छे कर्म ही मेरा धर्म हैं क्यूँकी कर्म ही पूजा है। ये साधू लोग जीवन की कठिनाइयों से डर कर भागते हैं। इन सब ढोंग ढकोसलों को मैं नहीं मानता । मैं बोलता हूँ कि इंसान इंसान की मदद करे।”
दूसरी ओर, विचित्रदास था, नाम की तरह ही विचित्र ही था। वह गाँव का सबसे बदनाम शख्स था। शराब की बोतल उसके हाथ से कभी नहीं छूटती थी। गाँव की गलियों में उसकी हरकतें किसी से छिपी नहीं थीं। वह वेश्याओं से संबंध बनाता, जुआ खेलता, और लोगों को धोखा देता। गाँव वाले उससे दूरी बनाए रखते थे पर विचित्रदास को इसकी परवाह नहीं थी।
वह कहता, “जीवन एक बार मिलता है, मजे करो, दुनिया जाए भाड़ में!”
चित्रदास अक्सर विचित्रदास को समझाता था, “विचित्र, यह गलत रास्ता छोड़ दे। कुछ अच्छा कर, लोग तुझे भी इज्जत देंगे। और तेरा भला होगा ”
विचित्रदास जवाब देता, “अरे चित्र, तू अपनी भलाई की दुकान चला। मैं तो अपने मजे में हूँ, जीवन बार बार नहीं मिलने वाला।”
चित्रदास सोचता, “शायद एक दिन इसे अक्ल आ जाए।”
एक दिन, नियति ने दोनों को एक साथ अपने आगोश में ले लिया।
गाँव के बाहर एक पुराना बरगद का पेड़ था, जहाँ दोनों अक्सर बैठकर बातें करते थे।
एक दिन वहाँ जब चित्रदास विचित्रदास का इंजतार कर रहा था तभी आँधी-तूफान ने गाँव को अपनी चपेट में ले लिया। बिजली की एक चमक के साथ, वह बरगद का पेड़ चटक गया और चित्रदास उसकी चपेट में आ गया। पलक झपकते ही उसकी साँसें थम गईं। दूसरी और विचित्रदास को उसके घर तेज बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया।
चित्रदास और विचित्रदास की आत्माएँ अपने शरीर से अलग हुईं, तभी, दो भयानक आकृतियाँ प्रकट हुईं, ये थे यमदूत।
चित्रदास के सामने एक विशालकाय यमदूत खड़ा था। उसकी ऊँचाई बीस फीट से ज्यादा थी, आँखें लाल और चमकती हुई, जैसे जलते हुए अंगारे हों। उसके बस दो दाँत इतने बड़े थे कि वे मुह बाहर आ रहे थे। उसके कंधे पर एक विशाल साँप लिपटा हुआ था, जो फुफकार रहा था।
वह बोला, “चित्रदास, मेरे साथ चल!”
चित्रदास की आत्मा काँप गयी। उसने सोचा, “मैंने तो हमेशा अच्छे काम किए। मुझे इतने भयानक दूत क्यों ले जा रहे हैं?”
यमदूत ने चिल्लाते हुए कहा, “ज़्यादा सोच मत, चल!”
दूसरी ओर, विचित्रदास के सामने एक सुंदर दूत खड़ा था। उसका शरीर चमक रहा था। उसने मुस्कुराते हुए कहा, “विचित्रदास, आओ मेरे साथ।”
दोनों आत्माएँ अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ीं। चित्रदास को दक्षिण मार्ग पर ले जाया गया, जहाँ रास्ता काँटों और पत्थरों से भरा था। विचित्रदास को उत्तर मार्ग पर ले जाया गया, जहाँ फूलों की महक थी।
दोनों आत्माएँ एक साथ यमराज के दरबार में पहुँचीं। यमराज का दरबार बहुत भयानक था। यह एक बहुत बड़ा काला महल था, जिसके चारों ओर आग की लपटें उठ रही थीं। महल में बहोत सारे खंबे थे और सब पर नरकंकाल लटक रहे थे।
यमराज का सिंहासन काले पत्थरों से बना था, जिसके पास एक विशाल त्रिशूल खड़ा था। यमराज स्वयं एक भयानक रूप में थे और उनकी आँखें ऐसी कि एक नजर में आत्मा को भष्म कर दे। उनके सिर पर एक मुकुट था, जिसमें साँपों की आकृतियाँ थीं। उनके चारों ओर यमदूत खड़े थे, एक से एक भयानक।
कोई दूत ऐसा था जिसके कई हाथ थे, प्रत्येक हाथ में एक अलग हथियार, किसी में तलवार तो किसी में जंजीर, तो किसी में हड्डियों से बना हथौड़ा।
एक दूत का सिर ही नहीं था, और उसका सिर्फ धड़ खड़ा था। एक दूसरे दूत के बहुत लंबे हाथ थे, जो जमीन को छू रहे थे।
दरबार के बीच में चित्रगुप्त खड़ा था, एक विशाल किताब खोले हुए। वह हर आत्मा के कर्मों का हिसाब पढ़ रहा था। “रामदास, तूने अपने भाई को धोखा दिया।"
यमराज:- "ये नरक में सजा भुगतेगा!” उस आत्मा को यमदूत घसीटते हुए ले गए।
चित्रगुप्त:- “श्यामलाल, तूने गरीबों की मदद की।"
यमराज:- "तुझे स्वर्ग में स्थान मिलेगा” एक दूसरी आत्मा को सुंदर दूत ले गए।
चित्रदास और विचित्रदास लाइन में खड़े थे, चित्रदास का दिल धक-धक कर रहा था। उसने सोचा, “मैंने तो हमेशा अच्छे काम किए। मुझे स्वर्ग जरूर मिलेगा।”
चित्रगुप्त ने चित्रदास का नाम पुकारा। “चित्रदास, आगे आ!”
चित्रदास आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ा। उसे विश्वास था कि उसे स्वर्ग जरूर मिलेगा।
चित्रगुप्त ने अपनी किताब खोली और बोला, “हाँ, चित्रदास, तूने भलाई के काम किए। तूने गरीबों को खाना खिलाया, बीमारों की सेवा की। पर तूने भगवान की पूजा कभी नहीं की। तूने मंदिर में कदम नहीं रखा। तूने भगवान की पूजा करने वालों का अपमान किया और कई बार लोगों और साधुओं की निंदा की, जब वे पूजा-पाठ करते थे।”
चित्रदास हक्का-बक्का रह गया और सोचने लगा "मैंने तो कर्म को ही भगवान माना”
चित्रगुप्त ने ठंडी आवाज में कहा, “तेरे कर्म अच्छे थे, पर तूने भक्तों का अपमान किया। साधुओं का अपमान किया।"
यमराज ने गरजते हुए कहा, “चित्रदास, तुझे नरक भेजा जाता है!”
चित्रदास के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसके हाथ कांपने लगे। यमराज का फैसला सुनकर वो हकदम रह गया। अब यमराज के सामने कौन आवाज उठाए। यमराज का फैसला ही अंतिम फैसला था।
यमदूतों ने उसे घसीटना शुरू किया। वह चिल्लाने लगा, “भगवन, मुझे स्वर्ग मिलना चाहिए!” लेकिन यमदूत उसे घसीटते हुए ले जाने लगे।
तभी चित्रगुप्त ने विचित्रदास का नाम पुकारा। “विचित्रदास, आगे आ!”
विचित्रदास आगे बढ़ा और चित्रगुप्त के सामने खड़ा हो गया।
चित्रगुप्त ने किताब देखी और बोला, “विचित्रदास, तूने शराब पी, जुआ खेला, वेश्याओं के साथ संबंध बनाए, चोरी की। पर तेरे बेटे ने तेरा कल्याण कर दिया।” चित्रगुप्त ने कहा, “तेरे पापों को भगवान ने माफ कर दिया। तुझे स्वर्ग में स्थान मिलेगा।”
यमराज ने घोषणा की, “विचित्रदास, तुझे स्वर्ग भेजा जाता है!”
स्वर्ग के दूत आए और विचित्रदास को एक सुन्दर विमान में सोने के सिंहासन पर बैठाकर स्वर्ग ले गए।
चित्रदास को यमदूत नरक में ले गए। चित्रदास को वो शरीर प्राप्त हुआ जिसमें नरक में सजा दी जाती है। ये मानवीय शरीर नहीं था।
नरक का दृश्य इतना भयानक था कि चित्रदास की आत्मा काँप उठी। वहाँ उन आत्माओं की हवा में चीखें की गूँज रही जिन्हें सजा दी जा रही थी।
एक तरफ एक आत्मा को उबलते तेल के कड़ाह में डाला जा रहा था। वह चीख रही थी। दूसरी ओर, जंगली कुत्ते एक आत्मा को नोच रहे थे, और उसका शरीर बार-बार बन रहा था, ताकि सजा दोबारा शुरू हो सके।
नरक के रखवाले भयानक थे। उनके चेहरे पर मांस नहीं था, सिर्फ हड्डियाँ दिख रही थीं। कुछ के मुँह से आग निकल रही थी, और कुछ के हाथों में जंजीरें थीं, जिनसे वे आत्माओं को पीट रहे थे।
एक रखवाले ने चित्रदास को देखकर कहा, “तेरी बारी कल है। तुझे उबलते तेल में तला! जाएगा ”
चित्रदास का दिल बैठ गया। उसने सोचा, “यह मेरे साथ अन्याय हो रहा है। मैं यह सजा नहीं भुगत सकता। मुझे कुछ करना होगा”