Nehru Files - 85 in Hindi Magazine by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-85

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नेहरू फाइल्स - भूल-85

भूल-85 
विकृत, स्वार्थपूर्णधर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकवाद 

धर्मनिरपेक्षता राज्य को धर्म से पूरी तरह से अलग करना है। यह राज्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले सरकारी संस्थानों और पदाधिकारियों को धार्मिक संस्थानों, धार्मिक प्राधिकरणों एवं धार्मिक पदाधिकारियों से अलग रखने का सिद्धांत है। 

पश्चिम में ईसाई धर्म के प्रभुत्व के नतीजे बेहद विनाशकारी रहे—तमोयुग (Dark Ages) और हिंसा भरे दंड, दमन, यातना, आनेवाले समय के दौरान भी जारी रहनेवाली पूछताछ। ईसाइयत ‘केवल सत्य’ और ‘इकलौते वास्तविक धर्म’ होने का दावा करता था और वह ईसाई मान्यताओं को मानने से इनकार करने पर विज्ञान तक को मानने से इनकार करता था—और निकोलस कोपरनिकस, गैलीलियो गैलिली, चार्ल्स डार्विन जैसे महान् लोग (या फिर वे सब, जिन्होंने गिरजाघरों के डर से अपनी खोज को प्रकाशित करने से रोक दिया) इसके पीड़ितों के सबसे जीवंत उदाहरण रहे हैं। 

धीरे-धीरे यह महसूस किया गया कि बहु-धार्मिक समाज, बहुसंस्कृतिवाद, स्वतंत्र सोच और ज्ञान के प्रचार एवं निर्बाध वैज्ञानिक लक्ष्य एक सभ्य, सामंजस्यपूर्ण, प्रगतिशील और समृद्ध राज्य के लिए आवश्यक संचालक हैं; लकिन ये सभी ईसाई अधिनायकवाद और बहिष्कार के शिकार बन गए। इसने ‘धर्मनिरपेक्षता’ की अवधारणा की वकालत का रास्ता खोला। 

हालाँकि, भारतीय हिंदू सभ्यता में धर्मनिरपेक्षता अंतर्निहित थी और इसने न सिर्फ इसे बिना हिचक के स्वीकार किया, बल्कि स्वतंत्र रूप से बहुजातीयता, बहुधर्म और बहुसंस्कृतिवाद को भी बढ़ावा दिया। इसकी धार्मिक परंपराओं ने ज्ञान और विज्ञान की खोज को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया तथा प्रोत्साहित किया, जो बाद के दोनों अब्राहमिक मतों के बिल्कुल विपरीत और भिन्न था। इस बात में कोई शक नहीं है कि भारतीय गणित, खगोल-विज्ञान, चिकित्सा आदि पश्चिम से सदियों आगे थे। 

इसके बावजूद नकलची और आंग्लरागी नेहरू, जिन्हें न तो पश्चिमी सभ्यता के विकास की गहरी समझ थी, न ही भारत की, ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ को लपक लिया, बिना यह सोचे-समझे कि यह भारत के लिए पूरी तरह से अप्रासंगिक है, क्योंकि यह तो पहले से ही भारतीय-हिंदू लोकाचार में समाहित है। 

सन् 1961 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन संस्थान के उद्घाटन और उसी के साथ आयोजित आध्यात्मिक जीवन पर आधारित एक सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर नेहरू ने अपने भाषण में कहा— 
“मैं हमेशा ‘आध्यात्मिकता’ शब्द का इस्तेमाल करने से बचता हूँ और उसका सबसे बड़ा कारण है झूठी आध्यात्मिकता का मौजूद होना। भारत एक भूखा देश है। एक भूखे व्यक्ति के सामने आध्यात्मिकता की बात करने का कोई मतलब नहीं है। आध्यात्मिकता के नाम पर जीवन की दैनिक समस्याओं से दूर भागना अच्छा नहीं है। मैं इस सभा के लिए अनुपयुक्त हूँ—मुझसे इस इमारत को खोलना और इस सम्मेलन का उद्घाटन करना अपेक्षित है। मैं ऐसा करता हूँ।” (क्रॉक/136) 

इतना अधिक अहंकार और अज्ञानता! क्या संस्थान या सम्मेलन भूख को अध्यात्म से ढकने की वकालत कर रहे थे? क्या एक बेहतर भौतिक जीवन (जिसमें निश्चित रूप से, भूख को दूर करना शामिल हो) और आत्मिक आध्यात्मिक जीवन की खोज करना एक साथ नहीं चल सकता? अगर नहीं, तो नेहरू और नेहरू के वंशवाद वाले गरीबी को बढ़ाने‌‌ वाले समाजवादी भारत में, जहाँ गरीबी और भुखमरी का हमेशा रहना तय था, वहाँ आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह नहीं हो सकती थी! 

‘डिस्कवरी अ‍ॉफ इंडिया’ के लेखक यह पता लगा पाने में पूरी तरह से विफल रहे कि विभिन्न भौतिक विशेषताओं, भाषाओं, भोजन की आदतों, वेशभूषा इत्यादि के बावजूद अगर कोई चीज थी, जो भारत को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और द्वारका से लेकर डिब्रूगढ़ तक एक सूत्र में पिरोकर रखे हुए थी तो वह था—हिंदू धर्म और उससे जुड़े जैन धर्म, बौद्ध धर्म एवं सिख धर्म जैसे अन्य धर्म, जो यहीं की मिट्टी में पले-बढ़े और यह भी कि हिंदू धर्म और भारतीय सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत परंपराओं ने धर्मनिरपेक्षता और बहुसंस्कृतिवाद पहले से ही समाहित था, क्योंकि उन्होंने हमेशा अन्य धर्मों और अल्पसंख्यकों को खुले दिल से स्वीकार किया था। 

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डेविड फ्रॉली ने संदीप बालकृष्ण की पुस्‍तक ‘70 ईयर्स अ‍ॉफ सेक्युलरिज्म : अनपॉपुलर एसेज अ‍ॉन ‌दि अनअ‍ॉफिशियल पोलिटिकल रिलीजन अ‍ॉफ इंडिया’ की प्रस्तावना में लिखा था— 
“भारत की धर्मनिरपेक्षता (नेहरू द्वारा स्थापित) वास्तव में उपनिवेशवाद ही रहा है, कपट वेश में नहीं, बल्कि एक नए आक्रामक और असहिष्णु रूप में, वह भी विदेशी शासन से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि स्वयं भारतीयों द्वारा विदेशी मानसिकता के शासन से प्रेरित होकर कोई भी चीज ‘धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ’ है, किसी भी चीज, जो हिंदू हो, उसकी बुराई करने का एक साधन बन गया और मिशनरियों व मुल्लाओं ने इसका पूरा उपयोग ‘बहुदेववादी’, ‘मूर्ति-पूजक’, ‘बुतपरस्त’ या फिर ‘काफिर’ जैसे शब्दों के जरिए बहुतायत से किया। भारतीय संस्कृति के किसी भी आध्यात्मिक आधार की अवहेलना करने के लिए धर्मनिरपेक्षता एक नया हथियार बन गया। इसके बदले में धर्मनिरपेक्षता विरोधी ताकतों को ‘फासीवादी’ मान लिया गया और इसने इस बयानबाजी के पीछे की वामपंथी वाक्पटुता को उजागर किया। किसी भी हिंदू चीज को फासीवादी घोषित करने का प्रयास किया गया, बिल्कुल वैसे ही जैसे चीनी वामपंथियों ने तिब्बती बौद्ध धर्म को फासीवादी घोषित कर दिया था। नेहरूवादियों और मार्क्सवादियों के गठजोड़ की पुस्तकें और सांस्कृतिक संहार सत्तर वर्षों के दौरान धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के नाम पर भारत और उसकी कई हजार वर्षों की महान् सभ्यता पर हावी हो गया। भारत राजनीतिक तौर पर कम्युनिस्ट नहीं बन पाया; लेकिन यह एक कम्युनिस्ट सहानुभूति वाली संस्कृति बन गया था और कम्युनिस्ट बौद्धिक शासन के अधीन था, वह भी सन् 1991 में सोवियत संघ के पतन के लंबे समय के बाद भी। इस छाया से पूरी तरह से बाहर आना अभी भी बाकी है। अगर भारत को भौतिक या सांस्कृतिक रूप से प्रगति करनी है तो इसे दूर करना भारत की बौद्धिक आवश्यकता है।” (एस.बी.के.) 
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जिन्ना द्वारा 16 अगस्त, 1946 को ‘सीधी काररवाई’ का आयोजन किया गया, जिसकी परिणति कलकत्ता नर-संहार, जिसे ‘कलकत्ता का भीषण हत्याकांड’ भी कहा जाता है, के रूप में हुई। यह मुसलिम लीग द्वारा किया गया सबसे भीषण सांप्रदायिक नर-संहार था, जिसमें 5,000 से 10,000 लोगों की जानें गईं, 15,000 घायल हुए और करीब 1 लाख लोग बेघर हो गए! एच.एस. सहरावर्दी (जिसे बाद में ‘कलकत्ता का कसाई’ कहा गया), जो उस समय मुसलिम लीग के वर्चस्व वाली बंगाल की सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, ने स्थिति पर काबू पाने के बजाय मुसलमान गुंडों को और अधिक उकसाया। नेहरू, जो उस कार्यकारी परिषद् (जो बाद में 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार बन गई और नेहरू प्रधानमंत्री) के उपाध्यक्ष थे, ने प्रांतीय स्वायत्तता के नाम पर पीड़ितों को राहत देने की दिशा में कुछ नहीं किया; चूँकि क्योंकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है, इसलिए वह बंगाल की प्रांतीय सरकार के विशेषाधिकार का मामला था। हालाँकि, जब बिहार में कलकत्ता नर-संहार की प्रतिक्रिया शुरू हुई तो नेहरू प्रांतीय स्वायत्तता की बात को भूलकर तुरंत बिहार पहुँच गए और बिहारी हिंदुओं को बमबारी तक की धमकी दी(!)—अगर मुसलमान हिंदुओं को मारें तो अनदेखा कर दो, बहाना बना दो या फिर तकनीकी आधारों की आड़ में छिप जाओ; लकिन अगर हिंदू मुसलमानों द्वारा की जा रही हत्याओं पर प्रतिक्रिया दें तो हिंदुओं के खिलाफ तुरंत कार्यवाही करो! 

पटेल एवं नेहरू के बीच कई मुद्दों को लेकर मतभेद थे और ऐसे ही मामलों में से एक था—स्वतंत्रता के तुरंत बाद अजमेर में हुए दंगों का मामला। इस बात को लेकर कोई शक नहीं था कि अजमेर के सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की शरारत थे और जब सरदार पटेल ने प्रमुख सचिव शंकर प्रसाद का समर्थन किया था तो नेहरू ने अपने निजी सचिव एच.वी.आर. आयंगर के जरिए मुसलमानों का पक्ष लेने का प्रयास किया और निर्देश दिया कि जितने मुसलमानों को गिरफ्तार किया जाए, उतने ही हिंदुओं (हालाँकि वे दोषी पक्ष नहीं थे) को भी गिरफ्तार किया जाए—संतुलन साधने के लिए! (आई.ई.) 

नेहरू ने पश्चिम बंगाल और असम में पूर्वी पाकिस्तान (बँगलादेश) से मुसलमानों के सैलाब को बेरोक-टोक आने की अनुमति दी, जिसके चलते इन क्षेत्रों की जनसांख्यिकी में भारी बदलाव आ गया। उनके जेहन में एक बार भी यह बात नहीं आई कि पाकिस्तान के निर्माण का सबसे बड़ा कारण भी बदली हुई जनसांख्यिकी ही था और स्वतंत्र भारत में एक बार फिर जनसांख्यिकी को बदलने की अनुमति देना एक बार फिर विभाजन का कारण बन सकता है। नेहरू ने ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर किए जा रहे अवैध धर्म-परिवर्तन पर भी आँखें मूंदे रखीं, जिसका परिणाम उत्तर-पूर्व में अलगाववादी आंदोलनों के रूप में हुआ। एक वास्तविक धर्मनिरपेक्षतावादी और एक बुद्धिमान व दूरदर्शी नेता को यह बात पता होनी चाहिए थी कि भारत में हिंदुओं (जिसमें बौद्ध, जैन, सिख, आदि शामिल हैं) के भारी बहुमत को सुनिश्चित करना, असल धर्मनिरपेक्षता के स्‍थायित्व को सुनिश्चित करने और सांप्रदायिकता के खिलाफ बचाव का गारंटीकृत तरीका है; बाद के दो अब्राहमिक धर्म, जिनका दावा था कि ‘सिर्फ वे ही असल धर्म हैं’, अलगाववादी, धर्म-परिवर्तन करनेवाले और धर्मनिरपेक्ष-विरोधी हैं—देश में मुसलमान बहुमत वाले कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ गैरमुसलिमों का जाना सुरक्षित नहीं समझा जाता है; या फिर बंगाल के कुछ क्षेत्रों में हिंदुओं को मतदान न करने देना, जहाँ मुसलमान बहुमत में हैं या मुसलमान बहुल कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन; या फिर मुसलमानों और ईसाई मिशनरियों द्वारा हिंदू देवी-देवताओं एवं परंपराओं के लिए प्रयोग की जानेवाली अक्षम्य और अपमाजनक भाषा; या फिर पूर्वोत्तर और तमिलनाडु के उन क्षेत्रों में ईसाइयों व ईसाई पादरियों का व्यवहार, जहाँ वे हावी हैं। 

कांग्रेस के अनुभवी नेता डी.पी. मिश्रा ने लिखा—
“...और जहाँ तक नेहरू का सवाल था, उन्हें स्पष्ट रूप से हिंदुओं से धर्मनिरपेक्षता का पालन करने की उम्मीद की थी।” हालाँकि, जब बात सत्ता हथियाने और वोट लेने की आती थी तो नेहरू के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ कोई बाधा नहीं थी। कांग्रेस इतनी तिकड़मी थी कि वर्ष 1957 के चुनावों में कोट्टायम के बिशप ने केरल के ईसाइयों से कांग्रेस को वोट देने के लिए अपील जारी की। कांग्रेस ने केरल में सत्ता हथियाने के लिए मुसलिम लीग के साथ गठबंधन किया। नेहरू राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में शामिल की गई समान नागरिक संहिता को सिरे से ही भूल गए, जो मुसलमान महिलाओं के लिए काफी फायदेमंद साबित हो सकती थी, जब उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मुल्लाओं और प्रभावशाली समूहों के चलते ऐसा करना उनकी पार्टी के मुसलमान वोटों को काट सकता है। 

नेहरू की धर्मनिरपेक्षता थी वोट बैंक राजनीति के लिए अल्पसंख्यकों को प्रभावित करना। अल्पसंख्यकों के उलट, हिंदू समूह में मतदान नहीं करते हैं और इसलिए बहुसंख्यक धर्म (हिंदू धर्म) के साथ अन्याय करना वोटों को प्रभावित नहीं करता। हालाँकि, धार्मिक अल्पसंख्यकों का पक्ष लेना वोटों में आसानी से तब्दील होता है, क्योंकि वे धार्मिक आधार पर मतदान करते हैं। नेहरू ने बिना समय गवांए वोटों और सत्ता के लिए आसान राह पकड़ ली और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इस प्रकार के काम किए, ताकि उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यकों के वोट मिलना सुनिश्चित हो सके। नेहरू ने जैसे आर्थिक क्षेत्र में अपने दुर्बल होते समाजवाद के जरिए दुर्गति की नींव रखी, बिल्लकु वैसे ही राजनीतिक और चुनावी क्षेत्र में हानिकारक, प्रतिस्पर्धी, धार्मिक अल्पसंख्यकवाद की नींव रखी। 

नेहरू ने अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में 13 दिसंबर, 1946 को एक उद्देश्य संकल्प प्रस्तुत किया, जिसका नतीजा संविधान में अनुच्छेद-29 व 30 के रूप में हुआ और ऐसा करने के पीछे उनका मकसद था मुसलिम लीग को खुश करना, ताकि वह विभाजन पर जोर न दे। हालाँकि, 15 अगस्त, 1947 को विभाजन और पाकिस्तान वास्तविकता बन गए। इसके बावजूद विभाजन को टालने के लिए शामिल किए गए अनुच्छेद-29 व 30 को लेकर बहस पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी जारी रही और उन्हें अंततः संविधान में शामिल भी कर लिया गया—नेहरू द्वारा मुसलिम तुष्टीकरण का स्पष्ट और गैर-जिम्मेदाराना मामला। (पी.जी.2/73) आर.टी.ई. के साथ अनुच्छेद-29 व 30 प्रभावी रूप से बहुसंख्यकों के प्रतिकूल हैं और समग्र शैक्षिक उन्नति के क्षेत्र में एक बड़ी बाधा हैं और इसलिए इन्हें सभी के लिए (चाहे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक) लागू करने की माँग काफी समय से की जा रही है।