Nehru Files - 81-82 in Hindi Film Reviews by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-81-82

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नेहरू फाइल्स - भूल-81-82

भूल-81 
उर्दू और फारसी-अरबी लिपि को बढ़ावा देना 

हिंदी को देवनागरी लिपि में बाएँ से दाएँ लिखा जाता है, जबकि उर्दू को दाएँ से बाएँ लिखा जाता है, जो अरबी लिपि के फारसी संशोधन से उत्पन्न हुई है। हिंदी के उच्‍च संस्करण संपन्नता के लिए संस्कृत पर निर्भर करते हैं, जबकि उर्दू अपने उच्‍चतर संस्करण के लिए फारसी और अरबी की ओर देखती है। 

हिंदी को उसका अधिकार देने के बजाय नेहरू ने इस बात पर जोर दिया कि उर्दू दिल्ली के लोगों की भाषा थी, इसलिए उसे आधिकारिक दर्जा दिया जाना चाहिए। जब गृह मंत्री जी.बी. पंत ने उन्हें बताया कि आँकड़े दिखाते हैं कि सिर्फ 6 प्रतिशत दिल्लीवालों ने उर्दू को अपनी भाषा के रूप में स्वीकार किया है, तो नेहरू ने उन आँकड़ों को झुठलाने का प्रयास किया, हालाँकि उन्होंने अपने इस बेवकूफाना विचार को आगे नहीं बढ़ाया। (डी.डी./329-30) 

इसके अलावा, नेहरू देवनागरी लिपि, जिसमें हिंदी व संस्कृत लिखी जाती हैं, के बजाय फारसी-अरबी लिपि के पक्ष में थे, जिसमें उर्दू लिखी जाती है। ऐसा लगता है कि जो कुछ भी भारतीय या हिंदू या फिर हिंदू/भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता हो, नेहरू को उससे परेशानी थी और उन्होंने उसे खत्म करने का प्रयास किया। राम मनोहर लोहिया का बिल्कुल ठीक ही कहना था कि “नेहरू हर उस चीज के खिलाफ थे, जो भारतीयों को भारतीयता का अहसास दिलाए!” (डी.डी./373) 

इसके अलावा, नेहरू ने उस चीज को आगे बढ़ाया, जिसके साथ वे व्यक्तिगत तौर पर सहज थे—अंग्रेजी या उर्दू। उसे नहीं, जो देश के लिए अच्छा था। हिंदी का स्पष्ट रूप से देश, भारत, हिंदू और संस्कृत से संबंध था; जबकि उर्दू की वकालत मुसलमान नेताओं ने की थी। वे राज्य, जो पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (अब बँगलादेश) बने, उनका उर्दू के साथ कोई संबंध नहीं था; उनकी भाषाएँ पंजाबी, सिंधी, बँगला आदि थीं। लेकिन यू.पी. के जो मुसलमान नेता पलायन करके पाकिस्तान गए थे, उन्होंने पाकिस्तान में उर्दूलागू कर दी। 

नेहरू द्वारा उर्दू और फारसी-अरबी लिपि का पक्ष लेने के पीछे क्या वजह थी, इसे आसानी से तभी समझा जा सकता है, जब हम उनके छद्म धर्म-निरपेक्ष चरित्र, वोट पाने के लिए मुसलमानों को खुश करने की उनकी उत्सुकता और भारत या भारतीय संस्कृति तथा हिंदू धर्म में निहित किसी भी चीज के प्रति नफरत पर ध्यान देते हैं। 

***

भूल-82 
संस्कृत की उपेक्षा 

अंग्रेजी भाषा कुलीन तंत्र और भूरे साहबों की प्रधानता के चलते भारतीय भाषाओं और संस्कृत में होने वाले काम को झटका लगा। संस्कृत, जो बिना किसी संदेह के सबसे महान् और सबसे वैज्ञानिक भाषा है, की स्थिति को देखें। यह विलुप्त होती जा रही है। आपके पास जब तक संस्कृत और अन्य पुरातन भाषाओं में महारत नहीं है, आप प्राचीन भारतीय इतिहास के क्षेत्र में प्रभावी शोध नहीं कर सकते। 

अमेरिकी इतिहासकार और दार्शनिक विल ड‍्यूरांट ने अपनी पुस्‍तक ‘द केस फॉर इंडिया’ में लिखा— 
“भारत हमारी प्रजाति की मातृभूमि थी और संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की माँ। वह हमारे दर्शन की माँ थी; अरबों के जरिए, हमारे अधिकांश गणित की माँ; बुद्ध के जरिए, ईसाइयत से संबद्ध सभी आदर्शों की माँ; स्वशासन और लोकतंत्र के माध्यम से ग्रामीण समुदाय की। भारत माता कई मायनों में हम सबकी माँ है।” (डब्‍ल्यू.डी./एल-80) 

अगर किसी को भारत के इतिहास पर काम करने की वास्तविक रुचि है तो अब उसे अमेरिका के कुछ प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में जाना पड़ता है, जिनके पास न सिर्फ समृद्ध पुस्तकों का एक पूरा समृद्ध संग्रह मौजूद है, बल्कि संस्कृत में प्रवीण अध्यापक मंडली भी है! इसलिए, अगर आपको भारत पर शोध करना है तो विदेश जाएँ! भारत को इस स्थिति में पहुँचा दिया गया है और इसकी सबसे बड़ी आरोपी हैं नेहरू राजवंश की कुत्सित नीतियाँ। गुरचरण दास की टिप्पणियाँ ध्यान देने योग्य हैं— 
“ ...अगर किसी भारतीय को गंभीरता से संस्कृत या प्राचीन क्षेत्रीय भाषाओं के शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन करना हो तो उसे विदेश जाना पड़ेगा। यह एक ऐसे देश में बिल्कुल अप्रत्याशित है, जब सभी प्रमुख भारतीय विश्वविद्यालयों में संस्कृत के दर्जनों विभाग हैं। यह एक घटिया सच है कि इन संस्थानों की शिक्षण की गुणवत्ता इतनी खराब है कि यहाँ का एक भी स्नातक अतीत के बारे में गंभीरता से सोचने या प्राचीन ग्रंथों को गहराई से परखने में सक्षम नहीं है। भारत की मृदु शक्ति उस समय कहाँ चली जाती है, जब कालिदास के ग्रंथों या अशोक के शिला-लेखों के बारे में सवाल-जवाब करने में सक्षम भारतीयाें की संख्या कम होती जाती है? एक भारतीय होने के योग्य होने का मतलब सिर्फ अंग्रेजी में बात करना बंद करना नहीं है। इसका मतलब है—अपने समृद्ध भाषाई अतीत के साथ जैविक संबंध स्थापित करने में सक्षम होना। वह चीज, जो मनुष्य को जानवरों से अलग करती है, वह है स्मृति और अगर हम ऐतिहासिक स्मृति को खो देते हैं तो हम इसे उन लोगों के हवाले कर देते हैं, जो इसका दुरुपयोग करें।” (यू.आर.एल.45) 

उपर्युक्त का प्रतिकूल नतीजा होता है कि हिंदू सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को सबसे अधिक विकृत करनेवाले शिकागो विश्वविद्यालय के वेंडी डोनिगर और कोलंबिया विश्वविद्यालय के शेल्डन पोलक संस्कृत, संस्कृत साहित्य और प्राचीन भारतीय विरासत से जुड़े सम्मानित वैश्विक प्राधिकारी बन गए हैं। इसके अलावा, कुछ अमीर भारतीय व्यापारियों ने भारतीय शास्त्रियों पर शृंखला प्रारंभ करने के लिए उन्हें दिल खोलकर पैसा दिया है; जबकि वे सक्षम भारतीयों को भी ऐसा करने के लिए आराम से वित्त-पोषित कर सकते थे। उनकी व्याख्याएँ पूरी तरह से पक्षपाती और विकृत हैं। ऐसा सिर्फ हाल ही में होना शुरू हुआ है कि राजीव मल्‍होत्रा सहित अन्य भारतीयों ने उनकी कलई खोलना शुरू किया है। राजीव मल्‍होत्रा की पुस्तकें ‘ब्रेकिंग इंडिया’, ‘बीइंग डिफरेंट’ व ‘द बैटल फॉर संस्कृत’ पढ़ने लायक हैं। (कृपया अमेजन पर देखें)

 संस्कृत, सबसे वैज्ञानिक भाषा—ए.आई. (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) के लिए भी सबसे अनुकूल— और कई भारतीय एवं यूरोपीय भाषाओं की जननी, को आसानी से सरल और उन्नत किया जा सकता था (जैसे इजराइल ने हिब्रू के साथ किया), सभी स्कूलों में पढ़ाया जा सकता था, वह भी अंग्रेजी के साथ। इसने भारत में नई जान डाल दी होती और इसे एकीकृत करने में मदद की होती।

 कई लोगों का ऐसा भी मानना है कि कई अभेद्य कारणों के चलते संस्कृत भारत की राष्ट्रीय भाषा बनने की हकदार है (अभी तक किसी भाषा को यह विशेषाधिकार नहीं मिला है)। यह कई सहस‍्राब्दियों तक भारत में सिर्फ धर्म और कर्मकांडों की ही नहीं, बल्कि दर्शन, तत्त्व-मीमांसा, साहित्य, कविता, गणित, खगोल विज्ञान, विज्ञान, कानून, न्यायशास्त्र आदि की संपर्क भाषा और एकमात्र माध्यम थी। इसमें न केवल एक समृद्ध शब्दावली मौजूद है, बल्कि आधार-शब्दों और जड़ों के विशाल भंडार के आधार पर नई शब्दावली गढ़ने के लिए एक अंतर्निहित तंत्र भी है। इसकी पहचान पूरी तरह से राष्ट्रीय है, क्योंकि इसकी शब्दावली सभी भारतीय भाषाओं में व्याप्त है। कोई भी क्षेत्र अकेले इससे संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता, इसलिए इसके प्रयोग में कोई क्षेत्रीय विवाद होने की संभावना भी नहीं है। 

“11 सितंबर, 1949 को तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने उप-विदेश मंत्री डॉ. बी.वी. केस्कर और श्री नजीरुद्दीन अहमद के समर्थन से एक संशोधन प्रायोजित करते हुए घोषणा की कि संघ की आधिकारिक भाषा संस्कृत होगी। इस संशोधन में 13 अन्य लोगों के हस्ताक्षर मौजूद थे, जिनमें से 11 दक्षिण भारत से ताल्लुक रखते थे और उनमें से भी 9 मद्रास से।” (यू.आर.एल.72)